Listen आपने असरको सच्चा मान लिया, जो कि असत् है, झूठा है ।
मन-बुद्धिके साथ आपका सम्बन्ध है ही नहीं । श्रीशरणानंदजी महाराजसे किसीने पूछा कि
कुण्डलिनी क्या होती है ? उन्होंने उत्तर दिया कि कुण्डलिनी क्या होती है–यह तो हम
जानते नहीं, पर इतना जरूर जानते हैं कि कुण्डलिनीके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है ।
कुण्डलिनी सोती रहे अथवा जाग जाय, हमारा उससे क्या मतलब ? ऐसे ही शरीर-संसारके साथ
हमारा सम्बन्ध ही नहीं है । अतः उसके असरका आदर मत करो । यह अभ्याससे नहीं होगा । अभ्यास
एक नयी स्थिति पैदा करता है । जैसे, रस्सेपर चलना हो तो इसके लिये अभ्यास करना
पड़ेगा । अभ्याससे कुछ लाभ नहीं होगा । अभ्याससे
तत्त्वज्ञान कभी हुआ नहीं, कभी होगा नहीं, कभी हो सकता नहीं । विवेकका आदर करो तो
आज ही, अभी निहाल हो जाओगे । आप केवल इतनी बात याद कर लें कि जड़ चीजोंके साथ
हमारा सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि वे प्रकृतिकी अंश हैं और हम परमात्माके अंश हैं । उत्पन्न
और नष्ट होनेवाली चीजोंका असर हमारेपर कैसे पड़ सकता है ? आपतक वह असर पहुँचता ही
नहीं । आप असंग हैं । स्थिरता
और समाधि भी आपकी नहीं है, प्रत्युत कारणशरीरकी है । आप कारणशरीरसे अलग हैं ।
समाधिमें दो अवस्थाएँ होती हैं–समाधि और व्युत्थान । आपमें दो अवस्थाएँ नहीं होतीं
। आपकी सहजावस्था है, जो स्वतः-स्वाभाविक है । आपका स्वरूप सत्तामात्र है । सार बात है कि जड़ और चेतन कभी मिलते नहीं, मिल सकते नहीं । जड़-चेतनका सम्बन्ध झूठा है । जैसे अमावस्याकी रातका
सूर्यके साथ विवाह नहीं हो सकता, ऐसे ही जड़का चेतनके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता । प्रश्न–जड़-चेतनका
सम्बन्ध झूठा है तो उसको छोड़नेमें कठिनता क्यों है ? उत्तर–जड़-चेतनका सम्बन्ध झूठा होनेपर भी उसको छोड़नेमें
कठिनता इसलिये होती है कि आपने
जड़-चेतनके सम्बन्धको महत्त्व दे दिया । अतः आज ही अपने विवेकको महत्त्व देकर सच्चे हृदयसे इस
सत्यको स्वीकार कर लें कि जड़ (शरीर-संसार)-के साथ हमारा बिलकुल सम्बन्ध नहीं है । हमारा सम्बन्ध
परमात्माके साथ है । मनुष्यमें शरीरको लेकर भोगोंकी इच्छा (कामना) होती है,
स्वरूपको लेकर तत्त्वकी इच्छा (जिज्ञासा) होती है और परमात्माको लेकर प्रेमकी इच्छा
(अभिलाषा) होती है । शरीर अपना नहीं है, इसलिये भोगकी इच्छा भी अपनी नहीं है,
प्रत्युत भूलसे उत्पन्न होनेवाली है । परन्तु तत्त्वकी और प्रेमकी इच्छा अपनी है,
भूलसे होनेवाली नहीं है । इसलिये शरीरको
निष्कामभावपूर्वक दूसरोंकी सेवामें लगानेसे अथवा तत्त्वकी जिज्ञासा तेज होनेसे भूल
मिट जाती है । भूल मिटनेसे भोगकी कामना मिट जाती है और तत्त्वकी जिज्ञासा पूर्ण हो
जाती है अर्थात् मनुष्यको तत्त्वज्ञान हो जाता है, जीवन्मुक्ति हो जाती है । फिर
स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्माके प्रेमकी अभिलाषा जाग्रत् होती है ।
सम्पूर्ण जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये प्रेमकी इच्छा सम्पूर्ण जीवोंकी अन्तिम तथा सार्वभौम
इच्छा है । मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है । जैसे समुद्रसे
सूर्य-किरणोंके द्वारा जल उठता है तो उसकी यात्रा तबतक पूरी नहीं होती, जबतक वह
समुद्रमें मिल नहीं जाता, ऐसे ही परमात्माका अंश जीवात्मा जबतक परम प्रेमकी प्राप्ति नहीं कर
लेता, तबतक उसकी यात्रा पूरी नहीं होती । परम प्रेमका उदय होनेपर मनुष्यजीवन पूर्ण
हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता ।
नारायण ! नारायण
! नारायण ! नारायण ! |