।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
            माघ पूर्णमा, वि.सं.-२०७९, रविवार

सत्यकी स्वीकृतिसे कल्याण



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प्रश्‍न–फिर सुखी और दुःखी स्वयं क्यों होता है ?

उत्तर–मन-बुद्धिको अपना माननेसे ही स्वयं सुखी-दुःखी होता है । मन-बुद्धि अपने नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृतिके अंश हैं । आप परमात्माके अंश हो । मन-बुद्धिपर असर पड़नेसे आप सुखी-दुःखी होते हो तो यह गलतीकी बात है । वास्तवमें आप सुखी-दुःखी नहीं होते, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हो । विचार करें, अगर आपके ऊपर सुख-दुःखका असर पड़ जाय तो आप अपरिवर्तनशील और एकरस नहीं रहेंगे । आपपर असर पड़ता नहीं है, प्रत्युत आप अपनेपर असर मान लेते हैं । कारण कि आपने मन-बुद्धिको अपने मान रखा है, जो आपके कभी नहीं हैं, कभी नहीं हैं । मन-बुद्धि प्रकृतिके हैं और प्रकृतिका असर प्रकृतिपर ही पड़ेगा ।

प्रश्‍न–असर पड़नेपर वैसा कर्म भी हो जाय तो ?

उत्तर–कर्म भी हो जाय तो भी आपमें क्या फर्क पड़ा ? आप विचार करके देखो तो आपपर असर नहीं पड़ा । परन्तु मुश्किल यह है कि आप उसके साथ मिल जाते हो । आप मन-बुद्धिको अपना स्वरूप मानकर ही कहते हो कि हमारेपर असर पड़ा । मन-बुद्धि आपके नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृतिके हैं–‘मनःषष्ठानीनिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) और आप मन-बुद्धिके नहीं हो, प्रत्युत परमात्माके हो–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । इसलिये असर मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर नहीं । आप तो वैसे-के-वैसे ही रहते हो–‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४ । २४) । प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही सुख-दुःखका भोक्ता बनता है–‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३ । २१) । मन-बुद्धिपर असर पड़ता है तो पड़ता रहे, अपनेको क्या मतलब है ! असरको महत्त्व मत दो । इसको अपनेमें स्वीकार मत करो । आप ‘स्व’ में स्थित हैं–‘स्वस्थः ।’ असर ‘स्व’ में पहुँचता ही नहीं । असत् वस्तु सत्‌में कैसे पहुँचेगी ? और सत् वस्तु असत्‌में कैसे पहुँचेगी ? सत् तो निर्लेप रहता है ।

मन-बुद्धि चाहे आपके हों, चाहे एक कुत्तेके हों, उनसे आपका कोई सम्बन्ध नहीं है । कुत्तेके मन-बुद्धिपर असर पड़ता है तो क्या आप सुखी-दुःखी होते हो ? जैसे कुत्तेके मन-बुद्धि आपके नहीं हैं, ऐसे ही आपके मन-बुद्धि भी वास्तवमें आपके नहीं हैं । मन-बुद्धिको अपना मानना ही मूल गलती है । इनको अपना मानकर आप मुफ्तमें ही दुःख पाते हो !

एक मार्मिक बात है कि हमारे और परमात्माके बीचमें जड़ता (शरीर-संसार)-का परदा नहीं है, प्रत्युत जड़ताके सम्बन्धका परदा है । यह बात पढ़ाईकी पुस्तकोंमें, वेदान्तके ग्रन्थोंमें मेरेको नहीं मिली । केवल एक जगह सन्तोंसे मिली है । इसलिये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे हमारा बिलकुल सम्बन्ध नहीं है–ऐसा स्वीकार कर लो तो आप निहाल हो जाओगे ।

प्रश्‍न–जड़ताका सम्बन्ध छोड़नेके लिये क्या अभ्यास करना पड़ेगा ?

उत्तर–जड़ताका सम्बन्ध अभ्याससे नहीं छूटता, प्रत्युत विवेक-विचारसे छूटता है । यह अभ्याससे होनेवाली बात है ही नहीं । विवेकका आदर करो तो आज ही यह सम्बन्ध छूट सकता है । आप दो बातोंको स्वीकार कर लें–जानना और मानना । जड़के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है–यह ‘जानना’ है और हमारा सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है–यह ‘मानना’ है । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी चीज भी हमारी नहीं है–यह जाननेपर जड़ताका असर नहीं पड़ेगा । इसमें अभ्यास काम नहीं करता, पर विवेकसे तत्काल काम होता है । आपपर असर नहीं पड़ता, आप वैसे-के-वैसे ही रहते हो । वास्तवमें मुक्ति स्वतः-स्वाभाविक है । मुक्ति होती नहीं है, प्रत्युत मुक्ति है । जो होती है, वह मिट जाती है और जो है, वह कभी मिटती नहीं–

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः

(गीता २ । १६)

‘असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’