।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र अमावस्या, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

भगवत्प्राप्‍तिका सुगम तथा

शीघ्र सिद्धिदायक साधन



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गीतामें भगवान्‌ने कहा है‒

अनन्यचेताः   सततं   यो  मां  स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं  सुलभः  पार्थ    नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥

(८ । १४)

‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

‘अनन्यचेताः’ का तात्पर्य है कि एक परमात्माके सिवाय कोई इच्छा न हो । न जीनेकी इच्छा हो, न मरनेकी । न सुखकी इच्छा हो, न दुःखकी । ‘सततम्’ का तात्पर्य है कि प्रातः नींद खुलनेसे लेकर रात्रि नींद आनेतक स्मरण करे और ‘नित्यशः’ का तात्पर्य है कि आजसे लेकर मृत्यु आनेतक स्मरण करे । इस प्रकार ‘अनन्यचेताः’, सततम्’ तथा नित्यशः’‒ये तीन बातें होनेसे भगवान्‌ सुलभ हो जाते हैं । तात्पर्य है कि निरन्तर एक ही आवश्यकता रहे, एक ही भूख रहे, एक ही जागृति रहे कि भगवान्‌ कैसे मिलें ? जहाँ एक वृत्ति हुई कि प्राप्‍ति हुई । दूसरी वृत्ति रहेगी तो बाधा लगेगी । एक वृत्ति होनेमें कोई कठिनता भी नहीं है । कारण कि एक परमात्माके सिवाय दूसरी कोई वस्तु टिकनेवाली है ही नहीं, फिर उसमें आसक्ति कैसे टिकेगी ? वृत्ति कहाँ जायगी ? किसी भी वस्तुमें ताकत नहीं है कि वह हर जगह रहे, हर समय रहे, हर वस्तुमें रहे, हर व्यक्तिमें रहे, हर अवस्थामें रहे, हर परिस्थितिमें रहे । परन्तु परमात्माका किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था और परिस्थितिमें अभाव नहीं है । परमात्माके बिना कोई चीज है ही नहीं ।

जो सब जगह विद्यमान है, जिसका कहीं भी अभाव नहीं है, उसकी प्राप्‍तिमें देरीका कारण यही है कि उसको हम चाहते नहीं । उसकी प्राप्‍ति न होनेमें पाप कारण नहीं है । अगर पाप कारण हो तो पाप प्रबल हुआ, परमात्मा कमजोर हुए ! परन्तु यह सम्भव है ही नहीं । मनुष्यकी जो नीच वृत्ति या कृत्य है, उसका नाम पाप है । पाप टिकनेवाला है ही नहीं । सत्संगसे, नामजपसे, गंगास्‍नानसे पाप टिकते ही नहीं । बड़े-से-बड़ा पाप क्यों न हो, उसमें टिकनेकी ताकत ही नहीं है । पापकी सत्ता है ही नहीं । सत्ता एक परमात्माकी ही है । परमात्मा पापमें भी हैं, पुण्यमें भी हैं, अच्छेमें भी हैं, मन्देमें भी हैं; शुद्धिमें भी हैं, गन्दगीमें भी हैं । किसीने मेरेसे कहा कि तुम्हारे भगवान्‌ तो नरकोंमें हैं । मैंने कहा कि हमारे भगवान्‌ तो सब जगह हैं; स्वर्गमें भी हैं, नरकमें भी हैं । तुम्हारे पूर्वज नरकोंमें गये तो उन्होंने वहाँका समाचार दे दिया ! भगवान्‌से खाली जगह कोई हो सकती ही नहीं । वे सब जगह परिपूर्ण हैं । केवल उनकी प्राप्‍तिकी इच्छा हो, साथमें दूसरी कोई इच्छा न हो तो एक-दो दिन भले ही लग जायँ, उनकी प्राप्‍ति जरूर होगी । भगवान्‌के सिवाय हमारेको न धन चाहिये, न सम्पत्ति चाहिये, न वाह-वाह चाहिये, न आदर चाहिये, न सत्कार चाहिये, न महिमा चाहिये, न और कुछ चाहिये तो भगवत्प्राप्‍ति जरूर हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है । परमात्मा कैसे मिलें ?‒इस बातकी जागृति हरदम रहेगी तो परमात्मा कैसे छिपे रहेंगे ?

भूख लगे तो खा लें, प्यास लगे तो जल पी लें, नींद आये तो सो जायँ । हठ नहीं करना है । भोजनमें स्वाद, सुख नहीं लेना है । जल पीनेमें सुख नहीं लेना है । सोनेमें सुख नहीं लेना है । जैसे रोग होनेपर दवा लेते हैं, ऐसे भूख लगनेपर रोटी खा लें । दवा लेनेमें सुख थोड़े ही लेते हैं ? दवामें रुचि थोड़े ही होती है ? इच्छा केवल परमात्माकी ही रहे । इससे सुगम साधन और क्या होगा ! दूसरी इच्छाएँ साथमें रखते हैं‒यही बाधा है । मनुष्य कैसा ही हो, पापी हो या मूर्ख हो, वह परमात्मप्राप्‍तिका पात्र है । परमात्मप्राप्‍तिके लिये कोई भी कुपात्र नहीं है । केवल एक ही लालसा होनी चाहिये । दूसरी लालसा ही बाधक है । अगर भूख, प्यास और नींद तंग न करे तो खानेकी, पीनेकी और सोनेकी भी जरूरत नहीं । रोटी खाकर, पानी पीकर, नींद लेकर क्या कोई जी सकता है ? रोटी खाते, पानी पीते, नींद लेते हुए भी मनुष्य मर जाता है । जीनेकी ताकत अन्‍नमें, जलमें, नींदमें नहीं है । किसी भी वस्तुमें जीनेकी ताकत नहीं है । अगर भूखे रहनेसे मनुष्य मर जाता है तो खाते-पीते हुए भी मनुष्य मर जाता है । एक दिन मरना तो पड़ेगा ही, फिर नया नुकसान क्या हुआ ? जो होनेवाला है, वही हुआ । परन्तु मैं भूखे-प्यासे रहकर मरनेके लिये नहीं कहता । कारण कि भूखे-प्यासे रहनेपर मन वैसा नहीं रहता । अतः भूख-प्यास लगे तो अन्‍न-जल ले लें, नींद आये तो सो जायें, पर अपनी आवश्यकताको न भूलें । उसको हरदम जाग्रत्‌ रखें । परमात्मप्राप्‍तिमें समय लगाना हमारे अधीन है, चाहे एक घड़ीमें प्राप्‍ति कर लें, चाहे अनेक दिनों-महीनों-वर्षोंमें । फर्क हमारी चाहनामें है । परमात्माके मिलनेमें फर्क नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।

जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥

(मानस, सुन्दरकाण्ड ४४ । १)

भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ तो करोड़ों जन्मोंके पाप उसी क्षण नष्‍ट हो जायँगे । पापोंमें, दुराचारोंमें, अवगुणोंमें ताकत नहीं है कि वे भगवान्‌को रोक दें । भगवान्‌को रोकनेकी ताकत किसीमें हो ही नहीं सकती । अगर कोई भगवान्‌को रोक दे तो वे भगवान्‌ हमें मिलकर क्या निहाल करेंगे । वे भगवान्‌ हमारे किस कामके, जो किसीके द्वारा अटक जायँ ! केवल हमारी एक चाहनाकी आवश्यकता है । साधकको यही सावधानी रखनी है कि इस चाहनाकी कभी विस्मृति न हो । फिर भगवत्प्राप्‍तिमें कठिनता और देरी नहीं रहेगी ।

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !