।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

साधकोपयोगी अमूल्य बातें



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सेवक वह होता है, जो हर समय सेवा करता है । वह भोजन करे तो भी सेवा, शौच-स्‍नान करे तो भी सेवा, कपड़े धोये तो भी सेवा, व्यापार करे तो भी सेवा; जो भी काम करे सब सेवाभावसे करे । परन्तु ऐसा तब होगा, जब उसके भीतर यह भाव रहे कि ‘मैं सेवक ही हूँ’ । अगर उसमें ‘मैं मनुष्य हूँ’ अथवा ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं वैश्य हूँ’, ‘मैं गृहस्थ हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि भाव पहले हैं और ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पीछे है तो उससे कर्मयोग बढ़िया नहीं होगा । कर्मयोगीमें ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पहले और ‘मैं मनुष्य हूँ’ आदि भाव पीछे रहने चाहिये । ऐसे ही ‘मैं भक्त हूँ’, ‘मैं जिज्ञासु हूँ’ अथवा ‘मैं साधक हूँ’‒यह भाव पहले रहना चाहिये । जैसे ब्राह्मणमें ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ यह भाव (ब्राह्मणपना) हरदम जाग्रत्‌ रहता है, ऐसे ही साधकमें ‘मैं साधक हूँ’ यह भाव हरदम जाग्रत्‌ रहना चाहिये । ऐसा होनेसे मनुष्यभाव, शरीरभाव मिट जाता है । ‘मैं मनुष्य हूँ’‒यह पांचभौतिक मनुष्यशरीर है और ‘मैं साधक (सेवक, जिज्ञासु अथवा भक्त) हूँ’‒यह भावशरीर है । भावशरीरकी मुख्यता होनेसे साधन निरन्तर होता है ।

कर्मयोगी स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंकी सेवा करता है । शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना ‘स्थूलशरीर’ की सेवा है । विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना ‘सूक्ष्मशरीर’ की सेवा है । समाधि लगाना, अपना सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्‍चयसे विचलित न होना ‘कारणशरीर’ की सेवा है । स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता‒तीनोंको ही ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ न मानना उनकी सेवा है । कारण कि स्थूलशरीरकी स्थूल जगत्‌के साथ, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म जगत्‌के साथ और कारणशरीरकी कारण जगत्‌के साथ एकता है । इसलिये शरीरको संसारसे अलग मानना बहुत बड़ी गलती है । शरीर और संसारको ‘अपना’ तथा ‘अपने लिये’ मानना बहुत घातक है । ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत जाय ! इसलिये कर्मयोगीको ऐसा मानना चाहिये कि मैं संसारका हूँ और संसारकी सेवाके लिये हूँ । इस विषयमें एक दृष्टान्त है । लोगोंमें यह बात प्रचलित है कि रुपयोंके पास रूपया आता है; क्योंकि जिनके पास रुपये होते हैं, वे उन रुपयोंसे कई नये काम-धन्धे शुरू करके और रुपये कमा लेते हैं । एक आदमीने जब सुना कि रुपयेके पास रुपया आता है तो वह अपने हाथमें एक रुपयेका सिक्‍का बजाते हुए बाजारमें घूमने लगा । एक दूकानमें रुपयोंकी ढेरी पड़ी थी तो बजाते समय रुपया जाकर उस ढेरीपर गिर गया ! वह बोला कि बात क्या है ? रुपयेके पास रुपया आना चाहिये ? तो दूकानदार बोला कि हाँ, रुपयेके पास ही रुपया आया है । तुम्हारा रुपया छोटा है, ढेरीके रुपये बड़े हैं तो बड़ेके पास छोटा जायगा कि छोटेके पास बड़ा जायगा ? छोटा ही बड़ेके पास जायगा । इसी तरह संसार शरीरके लिये नहीं है, प्रत्युत शरीर संसारके लिये है । संसार हमारे लिये नहीं है, प्रत्युत हम संसारके लिये हैं । इसलिये साधकके भीतर यह भाव रहता है कि मैं संसारके काम आऊँ ।

साधकको चाहिये कि वह चाहे तो मैंपनको शुद्ध कर ले, चाहे मैंपनको मिटा दे, चाहे मैंपनको बदल दे । कर्मयोगी मैंपनको शुद्ध करता है, ज्ञानयोगी मैंपनको मिटाता है और भक्तियोगी मैंपनको बदलता है । इसलिये कर्तृत्वाभिमान रहते हुए भी मनुष्य कर्मयोग और भक्तियोगका अनुष्ठान कर सकता है । परन्तु कर्तृत्वाभिमान रहते हुए ज्ञानयोगका अनुष्ठान नहीं कर सकता । वह ज्ञानकी बातें भले ही सीख ले, पर सिद्धि नहीं होगी । कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले कामना मिटती है, पीछे अहंकार मिटता है । ज्ञानयोगमें पहले अहंकार मिटता है, पीछे कामना स्वतः मिटती है । तात्पर्य है कि कर्मयोग और भक्तियोग अहंता रहते हुए भी चल सकते हैं, पर ज्ञानयोग अहंता रहते हुए नहीं चल सकता । इसलिये अहंकारके रहते हुए ज्ञानयोग कष्‍टपूर्वक चलता है‒‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२ । ५) और अहंकार मिटनेपर सुखपूर्वक चलता है‒‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्‍नुते’ (गीता ६ । २८) । परन्तु जो भोग भी भोगता रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ भी करता रहे, रुपये भी इकठ्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी करता रहे, उसको कोई भी योग सिद्ध नहीं होता । वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना तो दूर रहा !

भक्त मैंपन (अहंकार)-को मिटाता नहीं है, प्रत्युत बदलता है । मैंपनको बदलना बहुत सुगम होता है । जैसे, लड़कीका विवाह होता है तो ‘मैं कुँआरी हूँ’ यह मैंपन सुगमतासे बदल जाता है । ऐसे ही भक्त मैंपनको बदल देता है कि ‘मैं संसारका नहीं हूँ, मैं तो भगवान्‌का हूँ ।’ मैंपनको बदलना सुगम भी है और श्रेष्‍ठ भी । मैंपनको बदलनेसे साधनमें तल्लीनता होकर अपने-आप स्वाभाविक ही सिद्धि हो जाती है ।