।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

विज्ञानसहित ज्ञान



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जब मनुष्य संसारको अपना और अपने लिये मान लेता है, तब उसको अपनी और संसारकी (परा और अपराकी) स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है । इसका परिणाम यह होता है कि जीव जगत्‌के अधीन (पराधीन) हो जाता है और जन्म-मरणमें पड़कर दुःख पाता है । इस पराधीनतासे छूटनेके लिये साधकके लिये तीन खास बातें हैं‒

(१)        मेरा कुछ नहीं है ।

(२)        मेरेको कुछ नहीं चाहिये ।

(३)        मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है ।

(१) हमारा स्वरूप (स्वयं) सत्तामात्र है । इस स्वरूपके साथ कुछ भी नहीं है । संसारकी कोई भी वस्तु और क्रिया स्वरूपतक नहीं पहुँचती । तात्पर्य यह हुआ कि अपने पास अपने सिवाय कुछ भी नहीं है । ‘मैं’ कहलानेवाला स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर भी अपने साथ नहीं है और हम उसके साथ नहीं है । अगर शरीर हमारे साथ रहता तो हमारे अनेक जन्म कैसे होते ? हम अनेक शरीर कैसे धारण करते ? अगर हम शरीरके साथ रहते तो मुक्ति कभी होती ही नहीं । प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति, अवस्था आदिमें निरन्तर परिवर्तन होता है, उत्पत्ति-विनाश होता है, पर अपनेमें (स्वरूपमें) कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश नहीं होता । इन देश, काल आदि सबके अभावका अनुभव हमें होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । परिवर्तनशील एवं नाशवान्‌ वस्तु (शरीर-संसार) अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी तत्त्वके साथ कैसे रह सकती है और उसके क्या काम आ सकती है ? अमावस्याकी रात सूर्यके साथ कैसे रह सकती है और सूर्यके क्या काम आ सकती है ? सांसारिक शरीर, बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, सुन्दरता आदि संसारके ही काम आते हैं, हमारे काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते । तात्पर्य है कि अपरा प्रकृति और उसके कार्य शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता, हो सकता भी नहीं । अनन्त ब्रह्माण्ड मिलकर भी हमारी पूर्ति, सन्तुष्टि नहीं कर सकते । इसलिये अनन्त सृष्टियों, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो हमारी हो और हमारे लिये हो !

जीव और परमात्मा‒दोनों ही अकिंचन हैं । जीव इसलिये अकिंचन है कि उसके लिये संसारमें ‘मेरा कुछ नहीं है’ अर्थात्‌ उसका भगवान्‌के सिवाय और किसीसे सम्बन्ध नहीं है, और परमात्मा इसलिये अकिंचन हैं कि उनके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं है‒‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्‍चिस्ति’ (गीता ७ । ७), ‘सदसच्‍चाहम्’’ (गीता ९ । १९) । जबतक जीवकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है, तबतक उसके पास अपना करके कुछ नहीं है और जब उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, तब भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है‒‘वासुदेवः सर्वम् ।’ उसकी भगवान्‌के साथ आत्मीयता हो जाती है‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७ । १८), ‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (गीता ९ । २९) । इसलिये भगवान्‌ने रुक्मणीजीसे कहा है कि हम सदासे अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं और वे हमारेसे प्रेम करते हैं‒

निष्किञ्‍चना वयं शश्‍वन्‍निष्किञ्‍चनजनप्रियाः ।

(श्रीमद्भा १० । ६० । १४)

भगवान्‌ दर्शन भी अकिंचन भक्तोंको ही देते हैं‒‘त्वामकिञ्‍चनगोचरम्’ (श्रीमद्भा १ । ८ । २६) । इसलिये कोई भी वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं है‒ऐसा स्वीकार करके अनुभव करते ही हम अकिंचन हो जाते हैं, भगवान्‌के प्रेमी हो जाते हैं‒‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (गीता ७ । १७) ।

(२) इच्छा अभावसे पैदा होती है । सत्तामात्र अपने स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । इसलिये अपनेमें कोई इच्छा नहीं होती । जब अनन्त सृष्टिमें कोई वस्तु हमारी और हमारे लिये है ही नहीं और कोई वस्तु स्वयंतक पहुँच सकती ही नहीं, हमें प्राप्‍त हो सकती ही नहीं तो फिर किसकी इच्छा करें और क्यों करें ? जिस शरीरको हम ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ मानते हैं, वह शरीर भी हमें आजतक प्राप्‍त हुआ नहीं, प्राप्‍त है नहीं, प्राप्‍त होगा नहीं, प्राप्‍त होना सम्भव ही नहीं । कारण कि वह निरन्तर बदलता है और हम निरन्तर रहते हैं । तात्पर्य है कि शरीरका स्वयंसे कभी संयोग हुआ ही नहीं; क्योंकि ये दोनों ही परस्पर विरुद्ध स्वभाववाले हैं । इसलिये न तो हमें संसारसे कुछ चाहिये और न भगवान्‌से ही कुछ चाहिये । संसारसे इसलिये कुछ नहीं चाहिये कि उसके पास ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं, जो वह हमें दे सके । भगवान्‌से भी शान्ति, मुक्ति, सद्‌गति, दर्शन आदि कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि इनको देना भगवान्‌का कर्तव्य है, जो उनके अधीन है । हमारा काम भगवान्‌को उनका कर्तव्य बताना नहीं है, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करना है । हमारा कर्तव्य यह है कि हम भगवान्‌के सिवाय किसीको भी अपना न मानकर अपनेको सर्वथा अर्पण कर दें और भगवान्‌से कुछ भी न माँगें; क्योंकि वास्तवमें भगवान्‌के सिवाय अपना कोई है ही नहीं ।

एक मार्मिक बात है कि भगवान्‌के सिवाय दूसरी वस्तुको अपना माननेसे भगवान्‌से सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात्‌ विमुखता होती है । इसी तरह भगवान्‌से कोई वस्तु माँगनेसे उस वस्तुके साथ सम्बन्ध होता है और देनेवाले (भगवान्‌)-से सम्बन्ध-विच्छेद होता है । मनुष्यसे यही भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुओंको तो अपना मानता है; पर उनको देनेवालेको अपना नहीं मानता ! मिली हुई वस्तुएँ तो बिछुड़ जायँगी, पर भगवान्‌ नहीं बिछुड़ेंगे ।