Listen जो ‘प्राप्त’ है, वह ‘परा
प्रकृति’ है और जो ‘प्रतीति’ है, वह ‘अपरा प्रकृति’ है । परा और अपरा‒दोनों ही
प्रकृतियाँ भगवान्की होनेसे भगवत्स्वरूप हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’
(गीता ९ । १९) । परन्तु जीव (परा)-ने जगत् (अपरा)-को धारण कर लिया अर्थात्
उसको स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता देकर अपना मान लिया‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि
कर्षति’ (गीता १५ । ७) । यही जीवकी मूल भूल है,
जिसके कारण वह जगत् बन गया[*] अर्थात् जगत्की तरह परिवर्तनशील, जन्मने-मरनेवाला बन गया
। इस भूलको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह ‘परा’ को
अर्थात् अपने-आपको भगवान्के अर्पित कर दे और ‘अपरा’ को अर्थात्
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारके अर्पित कर दे, संसारकी सेवामें लगा दे । ‘मैं भगवान्का और भगवान्के
लिये ही हूँ’‒ऐसा स्वीकार कर लेना अपने-आपको भगवान्के अर्पित करना है और ‘शरीर
संसारका और संसारके लिये ही है’‒ऐसा अनुभव कर लेना शरीरको संसारके अर्पित करना है
। इस प्रकार भगवान्की चीज भगवान्को दे दी‒यह ‘भक्तियोग’ हो गया, संसारकी चीज
संसारको दे दी‒यह ‘कर्मयोग’ हो गया और न तो भगवान्से तथा न संसारसे ही कुछ
चाहनेसे स्वयं असंग हो गया‒यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया । इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग‒तीनों सिद्ध होनेसे परा और अपराकी स्वतन्त्र सत्ताकी मान्यता मिट जाती
है और ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जाता है । जो अपना कल्याण चाहता है, वह
अगर अपरा (जगत्)-को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘कर्मयोग’ (भौतिक साधना) है,
अगर परा (जीव अर्थात् चेतन)-को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘ज्ञानयोग’
(आध्यात्मिक साधना) है और अगर परमात्माको सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘भक्तियोग’
(आस्तिक साधना) है । अगर वह किसीको भी सच्चा नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो
जायगा ! कारण कि किसीको भी न माननेसे उसपर संसार आदिका प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह
स्वतः निर्विकल्प हो जायगा । मनुष्यपर उसी वस्तुका असर
पड़ता है, जिसको वह सच्चा मानता है । हमने संसारकी चीज संसारको दे दी
तो अब हम संसारसे कुछ चाहनेके अधिकारी ही नहीं रहे । इसी तरह भगवान्की चीज भगवान्को
दे दी तो हमें स्वतः प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी । प्रेमसे
बढ़कर कोई चीज है ही नहीं, जिसकी चाहना हम भगवान्से करें । संसारकी चीज संसारको देना
‘योग’ है और संसारसे कुछ चाहना ‘भोग’ है । भगवान्की चीज भगवान्को देना ‘योग’ है
और भगवान्से कुछ माँगना ‘भोग’ है । वास्तवमें
मनुष्यशरीर कर्मयोनि अथवा भोगयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है;
क्योंकि भगवान्ने मनुष्यको प्रेमके लिये ही बनाया है‒‘एकाकी न रमते’ । इसलिये प्रेमकी प्राप्ति
मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है । सम्पूर्ण योनियोंमें एक
मनुष्य ही ऐसा है, जो भगवान्को अपना मान सकता है, भगवान्से कह सकता है कि मैं
तेरा हूँ, तू मेरा है अथवा केवल तू-ही-तू है । कारण कि भगवान्ने संसारको
जीवोंके लिये बनाया है और मनुष्यको अपने लिये बनाया है । मनुष्यमें संसारको अपना न
माननेकी और भगवान्को अपना माननेकी जो योग्यता और
सामर्थ्य है, वह भी वास्तवमें भगवान्की ही दी हुई है । भगवान्की दी हुई योग्यता और सामर्थ्यसे ही मनुष्य भगवान्से
प्रेम करता है । संसार निरन्तर बदलनेवाला (अप्राप्त)
है तथा अपना नहीं है, फिर भी वह हमारेको प्रिय लगता है और परमात्मा सब देश, काल
आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान (नित्याप्राप्त) हैं तथा अपने हैं, फिर भी वे
हमारेको प्रिय नहीं लगते ! इसका कारण यह है कि हम
संसारकी निन्दा तो करते हैं, पर उसकी सत्ता और महत्ता नहीं है तथा वह अपना नहीं
है‒यह अनुभव नहीं करते । इसी तरह हम परमात्माकी महिमा तो गाते हैं, पर उनको सत्ता
और महत्ता देकर अपना स्वीकार नहीं करते । इसलिये साधकका खास काम है‒विवेकपूर्वक
संसारको अपना न मानना और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्को अपना मानना, जो कि
वास्तविकता है ।
[*] त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं
नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ (गीता
७ । १३) ‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत्
(प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता ।’ ‒इस श्लोकमें
जीवात्माके लिये ‘जगत्’ शब्द आया है । |