।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

हम भगवान्‌के हैं



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          श्रीमद्भगवद्‍गीतामें भगवान्‌ कहते हैं‒

ममैवांशो  जीवलोके   जीवभूतः  सनातनः ।

मनःषष्‍ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥

(१५ । ७)

‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है । परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित मन और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है अर्थात्‌ उनको अपना मान लेता है ।’

जैसे किसी पिताका कोई पुत्र होता है, उससे भी विलक्षण हम भगवान्‌के पुत्र हैं । परन्तु हमने भगवान्‌को अपना न मानकर प्रकृतिमें स्थित शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना मान लिया‒यही बन्धन है । इसके सिवाय और कोई बन्धन नहीं है । जैसे शरीरमें माता-पिता दोनोंका अंश है, ऐसे हमारेमें भगवान्‌ और प्रकृति‒दोनोंका अंश नहीं है । हम केवल भगवान्‌के अंश हैं‒‘मम एव अंशः।’ भगवान्‌का अंश होनेसे हम भगवान्‌में ही स्थित हैं, पर हमने प्रकृतिमें स्थित शरीरको अपना मान लिया‒यही हमारी गलती है । प्रकृतिका अंश तो प्रकृतिमें ही स्थित रहा, हम ही अपने अंशी भगवान्‌से विमुख हो गये ! जड़ तो सपूत ही रहा, हम ही कपूत हो गये !

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त वस्तुएँ हैं, पर कोई भी वस्तु हमारी नहीं है, हमें निहाल करनेवाली नहीं है । अनन्त ब्रह्माण्डोंका राज्य भी मिल जाय, तो भी उससे हमें कोई लाभ होनेवाला नहीं है । जो वस्तु हमारी है ही नहीं, वह हमें निहाल कैसे कर सकती है ? कर ही नहीं सकती । हम जिसके अंश हैं, जो वास्तवमें हमारा है, वही हमें निहाल कर सकता है ।

हम परमात्माके अंश हैं और चेतन, मलरहित (निर्मल) तथा सहज सुखराशि हैं‒

ईस्वर अंस  जीव  अबिनाशी ।

चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

(मानस, उत्तर ११७ । १)

हम किसी भी योनिमें चले जायँ तो भी वैसे-के-वैसे ही ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ रहेंगे । ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका संग है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । सत्त्वगुणके संगसे उर्ध्वगति होती है, रजोगुणके संगसे मध्यगति होती है और तमोगुणके संगसे अधोगति होती है[*] तात्पर्य हुआ कि गुणोंके साथ सम्बन्ध होनेसे अर्थात्‌ शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धके साथ सम्बन्ध माननेसे ही जन्म-मरण होता है । इसलिये साधकको आज ही, इसी समय यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि हमारा सम्बन्ध तो केवल परमात्माके साथ ही है । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं और परमात्मामें ही रहते हैं । फिर मुक्त होनेमें कोई सन्देह नहीं है; क्योंकि हमने असली बात पकड़ ली । हमारे पास जो वस्तु है, जो योग्यता है, जो बल है, वह सब संसारका है और संसारके लिये ही है । हम परमात्माके हैं और परमात्माके लिये हैं ।

पृथ्वी, जल, अग्‍नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‌‒ये सब ‘अपरा प्रकृति’ हैं और जीवरूपसे बने हुए हम ‘परा प्रकृति’ हैं । हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है, शरीरके साथ नहीं । शरीर अपरा प्रकृति है । मैं (अहम्‌) और मेरा‒दोनोंका सम्बन्ध संसारके साथ है । इस प्रकार निर्मम और निरहंकार होते ही तत्काल शान्ति मिल जायगी‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) । हमारा कुछ नहीं है । ममता भी हमारी नहीं है और अहंकार भी हमारा नहीं है । कामना भी हमारी नहीं है और स्पृहा भी हमारी नहीं है । इसको गीताने ब्राह्मी स्थिति कहा है‒‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’ (गीता २ । ७२) । इसलिये केवल यह स्वीकार कर लें कि हम परमात्माके हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है तो अभी-अभी मुक्त हो जायँगे ! इसमें पाप-पुण्यका कायदा नहीं है । यह भावना ही उठा दें कि हम पापी हैं । हमारेमें पाप-ताप कुछ नहीं हैं । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं । पाप आगन्तुक हैं और किये हुए हैं, स्वाभाविक नहीं हैं । परन्तु हम स्वाभाविक ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं‒इतना ही हमें जानना है । पाप पैदा और नष्‍ट होनेवाली वस्तु है । हम पैदा और नष्‍ट होनेवाली वस्तु नहीं हैं ।

हम सदा परमात्माके साथ हैं और परमात्मा सदा हमारे साथ हैं । हम पापी हैं तो परमात्माके साथ हैं, पुण्यात्मा हैं तो परमात्माके साथ हैं । हम अच्छें हैं तो परमात्माके साथ हैं, मन्दे हैं तो परमात्माके साथ हैं । हमारेमें न पाप है, न पुण्य । न अच्छा है, न मन्दा । अभी हमें अनुभव न हो तो भी हम परमात्माके साथ ही हैं । कितना ही बड़ा पापी हो, रोजाना जानवरोंको काटनेवाला कसाई हो, तो भी है वह परमात्माका अंश ही ! हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं, पाप-पुण्य हमें छूते ही नहीं, हमतक पहुँचते ही नहीं । इस बातको हम ठीक समझ लें तो इतनेसे मुक्ति हो जायगी ।



[*] ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्‍ठन्ति राजसाः ।

   जघन्यगुणवृत्तिस्था   अधो   गच्छन्ति   तामसाः ॥

                                           (गीता १४ । १८)