Listen शरीर तो संसारका है और जन्मता-मरता रहता है, पर हम वही रहते
हैं‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८
। १९) । संसारके साथ शरीरकी एकता है, हमारी बिलकुल नहीं । समस्त पाप-ताप
शरीरके साथ हैं, हमारे साथ नहीं । हम सम्पूर्ण पाप-पुण्योंसे, शुभ-अशुभ कर्मोंसे
अलहदा हैं । बस, इतनी बात मान लें । हम केवल परमात्माके
हैं‒यह एकदम सच्ची बात है । इसको माननेमात्रसे मुक्ति हो जायगी; क्योंकि
मान्यतासे ही बन्धन होता है और मान्यतासे ही मुक्ति होती है । हम भगवान्के हैं‒इस बातको अगर हम भूल जायँ तो भी यह बात वैसी-की-वैसी ही
रहेगी । कारण कि भूलना अथवा न भूलना हमारी बुद्धिमें हैं, हमारेमें नहीं । हमारा
सम्बन्ध न भूलके साथ है, न यादके साथ है । हम तो वैसे-के-वैसे ही ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं । हमारेमें क्या भूलना और
क्या याद करना ? हम चेतन हैं और सत्त्व-रज-तम तीनों गुण जड़ हैं । हम इन गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं, तभी ये गुण हमें बाँधते
हैं । अगर हम गुणोंको न पकड़ें तो ये कुछ नहीं करेंगे । हम स्वयं चेतन तथा असंग होते हुए भी जड़को पकड़ लेते हैं, तभी फँसते
हैं । हम न पकड़ें तो गुण प्रकृतिमें ही रहेंगे‒‘प्रकृतिस्थानि’,
हमारे पास नहीं आयेंगे । इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । अगर हम गुणोंका
साथ न दें तो ये हमारा बाल बाँका नहीं कर सकते । इनमें ताकत ही नहीं है । हमारे लाखों जन्मोंके
कैसे ही कर्म हों, सब प्रभुको अपना मानते ही नष्ट हो जाते हैं‒ सनमुख
होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म
कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ (मानस, सुन्दर॰ ४४ । १) पुराने पाप नष्ट हो जायँगे और नया पाप होगा ही नहीं । कारण
कि पाप-कर्म तभी होता है, जब हम संसारको अपना मानकर उससे
कुछ चाहते हैं । अगर संसारको अपना न मानकर, उससे कुछ न चाहकर भगवान्को अपना मान
लें तो इसी क्षण अनन्त जन्मोंके पाप छूट जायँगे । भगवान् अपने हैं‒यह
बार-बार कहनेकी जरूरत नहीं है । जैसे, माँको हम अपना मान लेते हैं तो इसको बार-बार
नहीं कहना पड़ता । माँ तो अपनी बनी हुई है, पर भगवान् अपने बने हुए नहीं हैं ।
माँके पेटमें आये हैं, उसका दूध पिया है, तब माँ बनी है । परन्तु भगवान् पहलेसे
(सदासे) ही अपने हैं और सदा अपने रहेंगे ।
संसारका कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । अभी मर जायँ तो सभी सम्बन्ध मिट
जायँगे । मिटता वही है, जो नहीं होता और टिकता वही है, जो
होता है । टिकनेवाली बातको हम पकड़ लें, उधर दृष्टि कर लें‒इतना ही हमारा काम है । हम भगवान्के हैं, भगवान् हमारे हैं । शरीर संसारका है,
संसार शरीरका है । हमारी और परमात्माकी एकता है । शरीर और संसारकी एकता है । इसको
सन्तोंने ‘सत्संग’ कहा है । सत्का संग करना, सत्को
स्वीकार करना ‘सत्संग’ है । सत्संग करें तो कोई बन्धन है ही नहीं । हमारा सम्बन्ध
शरीर-संसारके साथ है ही नहीं‒यह बात मान लें तो इससे बड़ा कोई काम है ही नहीं ।
हजारों-लाखों आदमियोंको भोजन करायें तो वह भी इसके बराबर नहीं हो सकता । हम सदासे
ही शरीरसे अलग हैं । इसमें सन्देहकी कोई बात ही नहीं है । हमने अपनेको शरीर-संसारके साथ मान रखा है‒इस गलत
धारणाको छोड़ना है । इसको छोड़ दें तो अभी इसी क्षण मुक्ति है । हमारेसे भूल यह होती है कि संसारके जो सम्बन्ध रहनेवाले
नहीं हैं, उनको तो हम मान लेते हैं और जो सम्बन्ध सदा रहनेवाला है, उसको मानते ही
नहीं ! जिससे बन्धन होता है, उसको तो मान लेते हैं और
जिससे मुक्ति होती है, उसको मानते ही नहीं ! संसारका कोई भी सम्बन्ध
रहनेवाला नहीं है । कितना ही जोर लगा लें, संसारका सम्बन्ध रख सकते ही नहीं ! इसी
तरह कितना ही जोर लगा लें, भगवान्का सम्बन्ध तोड़ सकते ही नहीं । भगवान्में भी ताकत नहीं कि वे हमारा सम्बन्ध तोड़ दें । वे
सर्वसमर्थ होते हुए भी हमें छोड़नेमें असमर्थ हैं । मैं भगवान्का
हूँ‒इसका चिन्तन करनेकी जरूरत नहीं है । यह बात चिन्तनके अधीन नहीं है, प्रत्युत माननेके
अधीन है । जैसे, यह
खम्भा है तो अब इसमें चिन्तन क्या करें ? दो
और दो चार ही होते हैं, इसमें चिन्तन क्या करें ? हम भगवान्के हैं‒यह सच्ची बात है । सच्ची
बातको मान लें तो निहाल हो जायँगे । अगर शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध होता तो
शरीरके बदलनेपर हम भी बदल जाते । पर शरीर बदलता है, हम वही रहते हैं । शरीर बालक,
जवान और बूढ़ा होता है, हम बालक, जवान और बूढ़े नहीं होते । हम शरीर भी नहीं हैं और शरीरी (शरीरवाले) भी नहीं
हैं । हम शरीरसे अलग हैं और शरीर हमारेसे अलग है । शरीरसे अलग होनेसे ही हम
एक शरीरको छोड़ते हैं और दूसरे शरीरको धारण करते हैं । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं‒यह एकदम सच्ची,
पक्की और सिद्धान्तकी बात है । इसलिये हमें आज
ही सुनना, पढ़ना, सिखना आदि बन्द करके जानना और मानना आरम्भ कर देना चाहिये । अनन्त
ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु अपनी नहीं है, यहाँतक कि ये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि
भी अपने नहीं हैं‒यह जानना है, और केवल भगवान् ही अपने हैं‒यह मानना है ।
सुनने, पढ़ने, सीखने आदिसे हम विद्वान् बन सकते हैं, वक्ता बन सकते हैं, लेखक बन
सकते हैं, पर हमारा बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा । परन्तु ‘हमारा
कोई नहीं है’‒ऐसा जान लें तो हम मुक्त हो जायँगे और ‘केवल प्रभु ही हमारे हैं’‒ऐसा
मान लें तो हम भक्त हो जायँगे ।
नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |