Listen संसारमें हमें दो चीजें दीखती
हैं‒पदार्थ और क्रिया । ये
दोनों ही प्रकृतिका कार्य हैं । साधारण दृष्टिसे हम लोगोंको संसारमें पदार्थ
प्रधान दीखता है, पर वास्तवमें क्रिया प्रधान है, पदार्थ
प्रधान नहीं है । पदार्थमें हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर
क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ ? क्रियाका पुंज ही पदार्थरूपसे दीखता है । वह
क्रिया भी बदलनेवाली है । ये क्रिया और पदार्थ प्रकृतिका स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप
नहीं हैं । हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थसे रहित ‘अव्यक्त’ है । जैसे हम मकानमें
बैठे हुए हैं तो मकान अलग है, हम अलग हैं । इसलिये हम मकानको छोड़कर चले जाते हैं ।
ऐसे ही हम शरीरमें बैठे हुए हैं । शरीर यहीं पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं । मकान
पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही उससे अलग हैं । ऐसे
ही हम शरीरसे अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही शरीरसे अलग हैं । वास्तवमें हम शरीरमें रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते
हैं । इसलिये भगवान्ने कहा है‒‘अविनाशी तु तद्विद्धि
येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २ । १७) ‘अविनाशी तो
उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।’ तात्पर्य है कि स्वरूप
सर्वव्यापी है, एक शरीरमें सीमित नहीं है‒‘नित्यः
सर्वगतः’ (गीता २ । २४) । जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक
वह साधक है । शरीरका सम्बन्ध सर्वथा छूटनेपर वह सिद्ध हो जाता है । शास्त्रमें आता है कि देव होकर देवका भजन करना चाहिये‒‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्माका भजन करना चाहिये । शरीर
तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता है, पर साधक क्षण-प्रतिक्षण बदलनेवाला थोड़े ही है !
क्षण-प्रतिक्षण बदलनेवाला मुक्त कैसे होगा ? नित्य कैसे होगा ? स्वरूपका विनाश कोई
कर सकता ही नहीं‒‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’
(गीता २ । १७), पर शरीर नष्ट हुए बिना रहता
ही नहीं । जो अविनाशी होता है, वही मुक्त होता है । विनाशी मुक्त कैसे होगा
? बन्धनका वहम (मोह) मिट जाय‒इसको मुक्ति कहते हैं ।
इसलिये एक बार मोह मिटनेपर पुनः मोह नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा
न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५) । कारण कि मूलमें मोह है नहीं । जो वास्तवमें है नहीं, वही मिटता है । जो है, वह मिटता
ही नहीं । सत्का अभाव नहीं होता और जिसका अभाव होता है, वह सत् नहीं होता,
प्रत्युत असत् होता है‒ नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता २ । १६) शरीर तो भोगायतन है । जैसे रसोईघर भोजन करनेका स्थान है,
ऐसे ही शरीर सुख-दुःख भोगनेका स्थान है । सुख-दुःख भोगनेवाला शरीर नहीं होता । भोगनेका स्थान और होता है, भोगनेवाला और होता है । शरीर तो
ऊपरका चोला है । हम लाल, काला, सफेद आदि कैसा ही कपड़ा पहनें, वह स्वरूप
थोड़े ही होता है ! ऐसे ही स्त्री-पुरुष ऊपरका चोला है । स्वरूप
न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । परमात्मा, प्रकृति और जीव‒ये
तीनों ही अलिंग हैं । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार‒इन सबके अभावका
अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको
नहीं होता । जिसके अभावका अनुभव होता है, उससे हम अतीत हैं । हमारी भावरूप
सत्ता हरदम रहती है । सुषुप्तिमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार कुछ भी
नहीं रहता, सब लीन हो जाते हैं । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्तिमें
मैं मर गया था, अब जी गया हूँ । सुषुप्तिमें भी हम रहते हैं, तभी तो हम कहते हैं
कि मैं बड़े सुखसे सोया कि कुछ भी पता नहीं था । सुषुप्तिमें भी हमारा होनापन
ज्यों-का-त्यों था । कारण कि हमारी सत्ता (होनापन) अहंकारके अधीन नहीं है,
बुद्धिके अधीन नहीं है, मनके अधीन नहीं है, इन्द्रियाँके अधीन नहीं है, शरीरके
अधीन नहीं है । हमारी सत्ता स्वतन्त्र है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका
अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता । इसलिये हमारा स्वरूप निराकार है ।
साकाररूप शरीर पीछे बनता है और मिट जाता है । हम निराकाररूपसे हैं, पर शरीररूपसे अपनेको साकार
मानते हैं । यह मूल भूल है । इस भूलका हमें प्रायश्चित्त करना है । प्रायश्चित्त करनेमें तीन बातें हैं‒१-अपनी भूलको स्वीकार
करें कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की । २-अपनी भूलका पश्चात्ताप करें कि
मनुष्य (साधक) होकर मैंने ऐसी भूल की और ३-ऐसा निश्चय करें कि अब आगे मैं कभी भूल
नहीं करूँगा अर्थात् अपनेको कभी शरीर नहीं मानूँगा । ये तीन बातें होनेसे प्रायश्चित्त
हो जाता है और साधक अपने वास्तविक अव्यक्त स्वरूपमें स्थित हो जाता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |