।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार
वैष्णव-एकादशी व्रत आज है ।

साधक कौन ?



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संसारमें हमें दो चीजें दीखती हैं‒पदार्थ और क्रिया । ये दोनों ही प्रकृतिका कार्य हैं । साधारण दृष्टिसे हम लोगोंको संसारमें पदार्थ प्रधान दीखता है, पर वास्तवमें क्रिया प्रधान है, पदार्थ प्रधान नहीं है । पदार्थमें हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ ? क्रियाका पुंज ही पदार्थरूपसे दीखता है । वह क्रिया भी बदलनेवाली है । ये क्रिया और पदार्थ प्रकृतिका स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप नहीं हैं । हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थसे रहित ‘अव्यक्त’ है । जैसे हम मकानमें बैठे हुए हैं तो मकान अलग है, हम अलग हैं । इसलिये हम मकानको छोड़कर चले जाते हैं । ऐसे ही हम शरीरमें बैठे हुए हैं । शरीर यहीं पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं । मकान पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही उससे अलग हैं । ऐसे ही हम शरीरसे अलग हो जाते हैं तो वास्तवमें हम पहलेसे ही शरीरसे अलग हैं । वास्तवमें हम शरीरमें रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते हैं । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒‘अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २ । १७) ‘अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है ।’ तात्पर्य है कि स्वरूप सर्वव्यापी है, एक शरीरमें सीमित नहीं है‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २ । २४) । जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह साधक है । शरीरका सम्बन्ध सर्वथा छूटनेपर वह सिद्ध हो जाता है ।

शास्‍त्रमें आता है कि देव होकर देवका भजन करना चाहिये‒‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । इसलिये अव्यक्त होकर ही अव्यक्त परमात्माका भजन करना चाहिये । शरीर तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता है, पर साधक क्षण-प्रतिक्षण बदलनेवाला थोड़े ही है ! क्षण-प्रतिक्षण बदलनेवाला मुक्त कैसे होगा ? नित्य कैसे होगा ? स्वरूपका विनाश कोई कर सकता ही नहीं‒‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्‍चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २ । १७), पर शरीर नष्ट हुए बिना रहता ही नहीं । जो अविनाशी होता है, वही मुक्त होता है । विनाशी मुक्त कैसे होगा ? बन्धनका वहम (मोह) मिट जाय‒इसको मुक्ति कहते हैं । इसलिये एक बार मोह मिटनेपर पुनः मोह नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५) । कारण कि मूलमें मोह है नहीं । जो वास्तवमें है नहीं, वही मिटता है । जो है, वह मिटता ही नहीं । सत्‌का अभाव नहीं होता और जिसका अभाव होता है, वह सत्‌ नहीं होता, प्रत्युत असत्‌ होता है‒

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

(गीता २ । १६)

शरीर तो भोगायतन है । जैसे रसोईघर भोजन करनेका स्थान है, ऐसे ही शरीर सुख-दुःख भोगनेका स्थान है । सुख-दुःख भोगनेवाला शरीर नहीं होता । भोगनेका स्थान और होता है, भोगनेवाला और होता है । शरीर तो ऊपरका चोला है । हम लाल, काला, सफेद आदि कैसा ही कपड़ा पहनें, वह स्वरूप थोड़े ही होता है ! ऐसे ही स्‍त्री-पुरुष ऊपरका चोला है । स्वरूप न स्‍त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । परमात्मा, प्रकृति और जीव‒ये तीनों ही अलिंग हैं ।

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार‒इन सबके अभावका अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । जिसके अभावका अनुभव होता है, उससे हम अतीत हैं । हमारी भावरूप सत्ता हरदम रहती है । सुषुप्‍तिमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार कुछ भी नहीं रहता, सब लीन हो जाते हैं । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्‍तिमें मैं मर गया था, अब जी गया हूँ । सुषुप्‍तिमें भी हम रहते हैं, तभी तो हम कहते हैं कि मैं बड़े सुखसे सोया कि कुछ भी पता नहीं था । सुषुप्‍तिमें भी हमारा होनापन ज्यों-का-त्यों था । कारण कि हमारी सत्ता (होनापन) अहंकारके अधीन नहीं है, बुद्धिके अधीन नहीं है, मनके अधीन नहीं है, इन्द्रियाँके अधीन नहीं है, शरीरके अधीन नहीं है । हमारी सत्ता स्वतन्त्र है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता । इसलिये हमारा स्वरूप निराकार है । साकाररूप शरीर पीछे बनता है और मिट जाता है । हम निराकाररूपसे हैं, पर शरीररूपसे अपनेको साकार मानते हैं । यह मूल भूल है । इस भूलका हमें प्रायश्‍चित्त करना है । प्रायश्‍चित्त करनेमें तीन बातें हैं‒१-अपनी भूलको स्वीकार करें कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की । २-अपनी भूलका पश्‍चात्ताप करें कि मनुष्य (साधक) होकर मैंने ऐसी भूल की और ३-ऐसा निश्‍चय करें कि अब आगे मैं कभी भूल नहीं करूँगा अर्थात्‌ अपनेको कभी शरीर नहीं मानूँगा । ये तीन बातें होनेसे प्रायश्‍चित्त हो जाता है और साधक अपने वास्तविक अव्यक्त स्वरूपमें स्थित हो जाता है ।

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !