।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार
वैष्णव-एकादशी व्रत कल है ।

साधक कौन ?



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गोस्वामीजी महाराजने कहा है‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर॰ ४९ । ३)

भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म मल (अहम्‌) मिटता नहीं । वह मल मुक्तिमें तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनोंमें मतभेद पैदा करता है । जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता । इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है ।

शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । शरीर पृथ्वीपर ही (माँके पेटमें) बनता है, पृथ्वीपर ही घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वीमें ही लीन हो जाता है । इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं‒या तो इसकी भस्म हो जायगी, या मिट्टी हो जायगी, या विष्ठा हो जायगी । इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वीमें गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी । इसलिये शरीरकी मुख्यता नहीं है, प्रत्युत अव्यक्त स्वरूपकी मुख्यता है‒

भूमा अचल शाश्‍वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा ।

यह देह है पोला घड़ा    बनता बिगड़ता है सदा ॥

इसलिये वास्तवमें साधक अव्यक्त होकर ही भगवान्‌का भजन करते हैं । एक पांचभौतिक शरीर होता है और एक अव्यक्त भावशरीर होता है । भजन-ध्यान वास्तवमें भावशरीरसे ही होता है । भजन नाम प्रेमका है‒‘पन्‍नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’ (मानस, अरण्य १०में पाठभेद) प्रेम भाव-शरीरसे ही होता है । अतः वास्तवमें अव्यक्तमूर्ति ही भगवान्‌में प्रेम करता है, भगवान्‌का भजन करता है, भगवान्‌में तल्लीन होता है । उसीको भगवान्‌ मीठे लगते हैं, भगवान्‌की बात अच्छी लगती है, भगवान्‌की लीला अच्छी लगती है, भगवान्‌का नाम अच्छा लगता है ।

भगवान्‌ने कहा है कि यह जीव अनादिकालसे मेरा ही अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५ । ७) । यहाँ ‘मम एव अंशः’ कहनेका तात्पर्य है कि जैसे शरीरमें माता-पिता दोनोंका अंश है, ऐसे जीवमें प्रकृतिका अंश नहीं है, प्रत्युत केवल मेरा ही अंश है । प्रकृतिका अंश शरीर तो प्रकृतिमें ही स्थित रहता है, पर जीव परमात्माका अंश होते हुए भी परमात्मामें स्थित नहीं रहता । वह अपने-आपको संसारमें स्थित मानता है, भगवान्‌में स्थित नहीं मानता । वह प्रकृतिमें स्थित शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना स्वरूप मान लेता है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ । इसलिये ‘मैं शरीरसे रहित हूँ’‒यह बात उसकी समझमें नहीं आती । मनुष्यकी सबसे बड़ी कोई भूल है तो यही है कि वह प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरको अपना स्थायी रूप मान लेता है ।

भगवान्‌ने गीताके आरम्भमें शरीर और शरीरी (शरीरवाले)-का वर्णन किया है, जिसका तात्पर्य साधकमात्रको यह बताना है कि तुम शरीर नहीं हो । वास्तवमें साधक न शरीर है और न शरीरी ही है । साधकका स्वरूप सत्तामात्र है, पर समझानेकी दृष्टिसे भगवान्‌ने स्वरूपको ‘शरीरी’ नामसे कहा है । कारण कि संसारमें जैसे धनके सम्बन्धसे मनुष्य ‘धनी’ कहलाता है, ऐसे ही शरीरके सम्बन्धसे स्वरूप ‘शरीरी’ कहलाता है । जैसे धनका सम्बन्ध न रहनेपर धनी (मनुष्य) तो रहता है, पर उसका नाम ‘धनी’ नहीं रहता, ऐसे ही शरीरका सम्बन्ध न रहनेपर शरीरी (स्वरूप) तो रहता है, पर उसका नाम ‘शरीरी’ नहीं रहता । इसी तरह एक ही स्वरूप क्षेत्रके सम्बन्धसे ‘क्षेत्रज्ञ’, दृश्यके सम्बन्धसे ‘दृष्टा’ और साक्ष्यके सम्बन्धसे ‘साक्षी’ कहलाता है । पर वास्तवमें स्वरूप न शरीर है, न शरीरी है; न क्षेत्र है, न क्षेत्रज्ञ है; न दृश्य है, न दृष्टा है; न साक्ष्य है, न साक्षी है, प्रत्युत चिन्मय सत्तामात्र है ।

यहाँ एक बात विशेष समझनेकी है कि जैसे धनके कारण धनी है, ऐसे शरीरके कारण शरीरी नहीं है । कारण कि जैसे धन और धनी‒दोनों एक जातिके हैं, ऐसे शरीर और शरीरी‒दोनों एक जातिके नहीं हैं । जैसे धनीका धनमें आकर्षण होता है, ऐसे शरीरीका शरीरमें कभी आकर्षण नहीं होता, प्रत्युत आकर्षणकी मान्यता होती है । धनीमें तो धनकी मुख्यता है, पर शरीरीमें शरीरकी मुख्यता है ही नहीं । धनके विकार तो धनीमें आते हैं, पर शरीरके विकार शरीरीमें कभी नहीं आते । इसलिये धनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धनी रोता है; पर शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शरीरी अखण्ड, अपार, असीम आनन्दका अनुभव करता है । धन और धनीके विवेकसे मुक्ति नहीं होती, पर शरीर और शरीरीके विवेकसे मुक्ति हो जाती है । इसलिये धनके सम्बन्ध-विच्छेदसे धनी मुक्त नहीं होता, प्रत्युत निर्धन अथवा विरक्त हो जाता है, पर शरीरके सम्बन्ध-विच्छेदसे शरीरी सदाके लिये मुक्त हो जाता है । कारण कि शरीर संसारका बीज है । अतः जिसका शरीरके साथ सम्बन्ध है, उसका संसारमात्रके साथ सम्बन्ध है । शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।