।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, रविवार
तू-ही-तू



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तू-ही-तू

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उपनिषद्‌में आता है कि आरम्भमें एकमात्र अद्वितीय सत्‌ ही विद्यमान था‒‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य ६ । २ । १) । वह एक ही सत्स्वरूप परमात्मतत्त्व एकसे अनेकरूप हो गया‒

(१)   सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति । (छान्दोग्य ६ । २ । ३)

(२)   सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति । (तैत्तेरीय २ । ६)

(३)   एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति । (कठ २ । २ । १२)

एकसे अनेक होनेपर भी वह एक ही रहा, उसमें नानात्व नहीं आया

(१)    ‘नेह नानास्ति किञ्‍चन’ (बृहदारण्यक ४ । ४ । १९, कठ २ । १ । ११)

(२)    ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति’ (गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्)

(३)   ‘यत्सक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म’ (बृहदारण्यक ३ । ४ । १)

(४)   ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य ३ । १४ । १)

(५)   ‘ब्रह्मैवेदं विश्‍वमिदम्’ (मुण्डक २ । २ । ११)

इसलिये श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ने ब्रह्माजीसे कहा है‒

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्   यत्  सदसत्‌ परम् ।

पश्‍चादहं यदेतच्‍च योऽवशिष्येत योऽसम्यहम् ॥

(२ । ९ । ३२)

‘सृष्‍टिके पहले भी मैं ही था, मुझसे भिन्‍न कुछ भी नहीं था । सृष्‍टिके उत्पन्‍न होनेके बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ । जो सत्‌, असत्‌ और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ । सृष्‍टिके बाद भी मैं ही हूँ और इन सबका नाश हो जानेपर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ ।’

गीतामें भी भगवान्‌ने कहा है‒

(१)  अहमादिश्‍च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ (१० । २०)

‘सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ ।’

(२) सर्गाणामादिरन्तश्‍च मध्यं चैवाहमर्जुन । (१० । ३२)

‘सम्पूर्ण सृष्‍टियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ ।’

(३)   ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्‍चिदस्ति’ (७ । ७)

‘मेरे सिवाय इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है ।’

(४) ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९)

‘सब कुछ परमात्मा ही हैं ।’

(५) ‘सदसच्‍चाहमर्जुन’ (९ । १९)

‘सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।’

(६) न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥

(१० । ३९)

‘वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात्‌ चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’

सन्तोंने भी अपना अनुभव बताते हुए कहा है‒

(१) तू तू करता तू भया,   मुझमें रही न हूँ ।

 वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥

(२) सब जग ईश्‍वर-रूप है, भलो बुरो नहिं कोय ।

जैसी जाकी भावना,   तैसो  ही  फल  होय ॥

(३) सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।

मैं सेवक सचराचर   रूप   स्वामी भगवंत ॥

(मानस, किष्किन्धा ३)

(४)  निज प्रभुमय देखहिं जगत्‌ केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर ११२ ख)

(५) जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।

(मानस, बाल ७ ग)

(२)

गीतामें भगवान्‌ने कहा है कि मेरी दो प्रकृतियाँ हैं‒अपरा और परा । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके भेदोंवाली भगवान्‌की ‘अपरा प्रकृति’ है और जीवरूप बनी हुई आत्मा ‘परा प्रकृति’ है[*] । अपरा और परा‒ये दोनों भगवान्‌की प्रकृतियाँ अर्थात्‌ शक्तियाँ हैं । शक्तिमान्‌के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । इसलिये भगवान्‌की शक्ति होनेसे ये दोनों (अपरा और परा) भगवान्‌से अभिन्‍न हैं । जैसे मनुष्य अपनी शक्ति (ताकत)-को अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, ऐसे ही अपरा और पराको भगवान्‌से अलग करके नहीं देखा जा सकता । तात्पर्य यह निकला कि अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्‌से अभिन्‍न होनेके कारण भगवान्‌का स्वरूप ही हैं ।



[*] भूमिरापोऽनलो वायुः  खं  मनो बुद्धिरेव च ।

   अहंकार  इतीयं  मे   भिन्‍ना  प्रकृतिरष्‍टधा ॥

   अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।

   जीवभूतां महाबाहो   ययेदं  धार्यते  जगत् ॥

(गीता ७ । ४-५)