Listen सम्बन्ध‒इस अध्यायके आरम्भमें ही धृतराष्ट्रने संजयसे पूछा था कि युद्धक्षेत्रमें
मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? अतः संजयने दूसरे श्लोकसे तेरहवें श्लोकतक ‘धृतराष्ट्रके पुत्रोंने क्या किया’‒इसका उत्तर दिया अब आगेके
श्लोकसे संजय ‘पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया’‒इसका उत्तर देते हैं । सूक्ष्म विषय‒श्लोक १४-१५—श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनके द्वारा शंखोंका बजाया जाना । तत् श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४
॥
व्याख्या‒‘ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते’‒चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे । इन घोड़ोंमें
यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ,
पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे,
कम नहीं होते थे । ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे । इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे
सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे । ‘महति
स्यन्दने स्थितौ’‒यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्निको अजीर्ण
हो गया था । इसीलिये अग्निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी-बूटियाँ खाकर (जलाकर)
अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे । परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके
कारण अग्निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे । वे जब-जब खाण्डववनको जलाते,
तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्निको) बुझा देते । अन्तमें
अर्जुनकी सहायतासे अग्निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर
अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया । नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं,
उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथमें पड़े रहते थे । यह सोनेसे मढ़ा
हुआ और तेजोमय था । इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे । इसकी ध्वजा बिजलीके समान
चमकती थी । यह ध्वजा एक योजन (चार कोस) तक फहराया करती थी । इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें
न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी । इस ध्वजापर हनुमान्जी
विराजमान थे । ‘स्थितौ’
कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत
ज्यादा बढ़ गया था । ‘माधवः
पाण्डवश्चैव’‒‘मा’ नाम लक्ष्मीका है और ‘धव’ नाम पतिका है । अतः ‘माधव’ नाम लक्ष्मीपतिका है । यहाँ ‘पाण्डव’ नाम अर्जुनका है; क्योंकि अर्जुन सभी पाण्डवोंमें मुख्य हैं‒‘पाण्डवानां धनञ्जयः’ (गीता १० । ३७) । अर्जुन ‘नर’ के और श्रीकृष्ण ‘नारायण’ के अवतार थे । महाभारतके प्रत्येक पर्वके आरम्भमें नर (अर्जुन)
और नारायण (भगवान् श्रीकृष्ण)-को नमस्कार किया गया है‒‘नारायणं
नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।’ इस दृष्टिसे पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन‒ये दोनों मुख्य थे ।
संजयने भी गीताके अन्तमें कहा है कि ‘जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन
रहेंगे,
वहींपर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी’ (१८ । ७८) । ‘दिव्यौ
शङ्खौ प्रदध्मतुः’‒भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके हाथोंमें जो शंख थे,
वे तेजोमय और अलौकिक थे । उन शंखोंको उन्होंने बड़े जोरसे बजाया
। यहाँ शंका हो सकती है कि कौरवपक्षमें मुख्य सेनापति पितामह भीष्म
हैं,
इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है;
परन्तु पाण्डव-सेनामें मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्नके रहते
हुए ही सारथि बने हुए भगवान् श्रीकृष्णने सबसे पहले शंख क्यों बजाया ?
इसका समाधान है कि भगवान् सारथि बनें चाहे महारथी बनें,
उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती । वे जिस किसी भी पदपर रहें,
सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं । कारण कि वे अच्युत हैं,
कभी च्युत होते ही नहीं । पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण ही
मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे । जब वे बाल्यावस्थामें थे,
उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे । तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्णके
कहनेसे परम्परासे चली आयी इन्द्र-पूजाको छोड़कर गोवर्धनकी पूजा करनी शुरू कर दी । तात्पर्य
है कि भगवान् जिस किसी अवस्थामें, जिस किसी स्थानपर और जहाँ कहीं भी रहते हैं,
वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं । इसीलिये भगवान्ने पाण्डव-सेनामें
सबसे पहले शंख बजाया । जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थानपर नियुक्त होनेसे बड़ा
माना जाता है । अतः जो ऊँचे स्थानके कारण अपनेको बड़ा मानता
है, वह स्वयं वास्तवमें छोटा ही होता है । परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है । जैसे भगवान् यहाँ
सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथिका स्थान (पद) भी ऊँचा हो गया । രരരരരരരരരര सम्बन्ध‒अब संजय आगेके चार श्लोकोंमें पूर्वश्लोकका खुलासा करते हुए
दूसरोंके शंखवादनका वर्णन करते हैं । पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं
धनञ्जयः । पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा
वृकोदरः ॥ १५ ॥
व्याख्या‒‘पाञ्चजन्यं हृषीकेशः’‒सबके अन्तर्यामी अर्थात् सबके भीतरकी बात जाननेवाले साक्षात्
भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके पक्षमें खड़े होकर ‘पांचजन्य’ नामक शंख बजाया । भगवान्ने पंचजन नामक शंखरूपधारी दैत्यको मारकर
उसको शंखरूपसे ग्रहण किया था, इसलिये इस शंखका नाम ‘पांचजन्य’ हो गया । ‘देवदत्तं
धनञ्जयः’‒राजसूय यज्ञके समय अर्जुनने बहुत-से राजाओंको जीतकर बहुत धन इकट्ठा किया था । इस
कारण अर्जुनका नाम ‘धनंजय’ पड़ गया ।१ निवातकवचादि दैत्योंके साथ युद्ध करते १.सर्वाञ्जनपदाञ्जित्वा वित्तमादाय केवलम् । मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुर्मां धनञ्जयम्
॥ (महाभारत, विराट॰ ४४ । १३) समय इन्द्रने अर्जुनको ‘देवदत्त’ नामक शंख दिया था । इस शंखकी ध्वनि बड़े जोरसे होती थी,
जिससे शत्रुओंकी सेना घबरा जाती थी । इस शंखको अर्जुनने बजाया
। ‘पौण्ड्रं
दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः’‒हिडिम्बासुर, बकासुर, जटासुर आदि असुरों तथा कीचक, जरासन्ध आदि बलवान् वीरोंको मारनेके कारण भीमसेनका नाम ‘भीमकर्मा’ पड़ गया । उनके पेटमें जठराग्निके सिवाय ‘वृक’ नामकी एक विशेष अग्नि थी, जिससे बहुत अधिक भोजन पचता था । इस कारण उनका नाम ‘वृकोदर’ पड़ गया । ऐसे भीमकर्मा वृकोदर भीमसेनने बहुत बड़े आकारवाला ‘पौण्ड्र’ नामक शंख बजाया । രരരരരരരരരര सूक्ष्म विषय‒युधिष्ठिर, नकुल और सहदेवके द्वारा शंख-वादन । अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च
सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥
व्याख्या‒‘अनन्तविजयं राजा’..........सुघोषमणिपुष्पकौ’‒अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर‒ये तीनों कुन्तीके पुत्र हैं तथा नकुल और
सहदेव‒ये दोनों माद्रीके पुत्र हैं, यह विभाग दिखानेके लिये ही यहाँ युधिष्ठिरके लिये
‘कुन्तीपुत्र’ विशेषण दिया गया है । युधिष्ठिरको ‘राजा’ कहनेका तात्पर्य है कि युधिष्ठिरजी वनवासके पहले अपने आधे राज्य
(इन्द्रप्रस्थ)-के राजा थे, और नियमके अनुसार बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवासके बाद
वे राजा होने चाहिये थे । ‘राजा’ विशेषण देकर संजय यह भी संकेत करना चाहते हैं कि आगे चलकर धर्मराज
युधिष्ठिर ही सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलके राजा होंगे ।
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