।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒इस अध्यायके आरम्भमें ही धृतराष्‍ट्रने संजयसे पूछा था कि युद्धक्षेत्रमें मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? अतः संजयने दूसरे श्‍लोकसे तेरहवें श्‍लोकतक धृतराष्‍ट्रके पुत्रोंने क्या किया’‒इसका उत्तर दिया अब आगेके श्‍लोकसे संजय पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया’‒इसका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒श्‍लोक १४-१५श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनके द्वारा शंखोंका बजाया जाना ।

    तत्   श्‍वेतैर्हयैर्युक्ते   महति   स्यन्दने  स्थितौ ।

माधवः पाण्डवश्‍चैव    दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥

ततः = उसके बाद

माधवः = लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण

श्‍वेतैः = सफेद

च = और

हयैः = घोड़ोंसे

पाण्डवः = पाण्डुपुत्र अर्जुनने

युक्ते = युक्त

एव = भी

महति = महान्

दिव्यौ = दिव्य

स्यन्दने = रथपर

शङ्खौ = शंखोंको

स्थितौ = बैठे हुए

प्रदध्मतुः = बड़े जोरसे बजाया ।

व्याख्याततः श्‍वेतैर्हयैर्युक्ते’चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे । इन घोड़ोंमें यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे । ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे । इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे ।

महति स्यन्दने स्थितौ’यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्‍निको अजीर्ण हो गया था । इसीलिये अग्‍निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे । परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके कारण अग्‍निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे । वे जब-जब खाण्डववनको जलाते, तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्‍निको) बुझा देते । अन्तमें अर्जुनकी सहायतासे अग्‍निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्‍न होकर अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया । नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्‍त्र-शस्‍त्र आ सकते हैं, उतने अस्‍त्र-शस्‍त्र इस रथमें पड़े रहते थे । यह सोनेसे मढ़ा हुआ और तेजोमय था । इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे । इसकी ध्वजा बिजलीके समान चमकती थी । यह ध्वजा एक योजन (चार कोस) तक फहराया करती थी । इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी । इस ध्वजापर हनुमान्‌जी विराजमान थे ।

स्थितौ’ कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था ।

माधवः पाण्डवश्‍चैव’‒‘मा’ नाम लक्ष्मीका है और धव’ नाम पतिका है । अतः माधव’ नाम लक्ष्मीपतिका है । यहाँ पाण्डव’ नाम अर्जुनका है; क्योंकि अर्जुन सभी पाण्डवोंमें मुख्य हैं‒‘पाण्डवानां धनञ्‍जयः’ (गीता १० । ३७) ।

अर्जुन नर’ के और श्रीकृष्ण नारायण’ के अवतार थे । महाभारतके प्रत्येक पर्वके आरम्भमें नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान् श्रीकृष्ण)-को नमस्कार किया गया है‒नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।’ इस दृष्‍टिसे पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन‒ये दोनों मुख्य थे । संजयने भी गीताके अन्तमें कहा है कि जहाँ योगेश्‍वर भगवान् श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन रहेंगे, वहींपर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी’ (१८ । ७८) ।

दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः’भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके हाथोंमें जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे । उन शंखोंको उन्होंने बड़े जोरसे बजाया ।

यहाँ शंका हो सकती है कि कौरवपक्षमें मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है; परन्तु पाण्डव-सेनामें मुख्य सेनापति धृष्‍टद्युम्‍नके रहते हुए ही सारथि बने हुए भगवान् श्रीकृष्णने सबसे पहले शंख क्यों बजाया ? इसका समाधान है कि भगवान् सारथि बनें चाहे महारथी बनें, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती । वे जिस किसी भी पदपर रहें, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं । कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं । पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे । जब वे बाल्यावस्थामें थे, उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे । तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्णके कहनेसे परम्परासे चली आयी इन्द्र-पूजाको छोड़कर गोवर्धनकी पूजा करनी शुरू कर दी । तात्पर्य है कि भगवान् जिस किसी अवस्थामें, जिस किसी स्थानपर और जहाँ कहीं भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं । इसीलिये भगवान्‌ने पाण्डव-सेनामें सबसे पहले शंख बजाया ।

जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थानपर नियुक्त होनेसे बड़ा माना जाता है । अतः जो ऊँचे स्थानके कारण अपनेको बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तवमें छोटा ही होता है । परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है । जैसे भगवान् यहाँ सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथिका स्थान (पद) भी ऊँचा हो गया ।

രരരരരരരരരര

सम्बन्ध‒अब संजय आगेके चार श्‍लोकोंमें पूर्वश्‍लोकका खुलासा करते हुए दूसरोंके शंखवादनका वर्णन करते हैं ।

     पाञ्‍चजन्यं  हृषीकेशो   देवदत्तं   धनञ्‍जयः ।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं     भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥

हृषीकेशः = अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने

वृकोदरः = वृकोदर भीमने

पाञ्‍चजन्यम् = पांचजन्य नामक (तथा),

पौण्ड्रम् = पौण्ड्र नामक

धनञ्‍जयः = धनंजय अर्जुनने

महाशङ्खम् = महाशंख

देवदत्तम् = देवदत्त नामक (शंख बजाया और)

दध्मौ = बजाया ।

भीमकर्मा = भयानक कर्म करनेवाले

 

व्याख्या‘पाञ्‍चजन्यं हृषीकेशः’सबके अन्तर्यामी अर्थात् सबके भीतरकी बात जाननेवाले साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके पक्षमें खड़े होकर पांचजन्य’ नामक शंख बजाया । भगवान्‌ने पंचजन नामक शंखरूपधारी दैत्यको मारकर उसको शंखरूपसे ग्रहण किया था, इसलिये इस शंखका नाम पांचजन्य’ हो गया ।

देवदत्तं धनञ्‍जयः’राजसूय यज्ञके समय अर्जुनने बहुत-से राजाओंको जीतकर बहुत धन इकट्ठा किया था । इस कारण अर्जुनका नाम धनंजय’ पड़ गया निवातकवचादि दैत्योंके साथ युद्ध करते

१.सर्वाञ्‍जनपदाञ्‍जित्वा  वित्तमादाय केवलम् ।

   मध्ये धनस्य तिष्‍ठामि तेनाहुर्मां धनञ्‍जयम् ॥

                  (महाभारत, विराट ४४ । १३)

समय इन्द्रने अर्जुनको देवदत्त’ नामक शंख दिया था । इस शंखकी ध्वनि बड़े जोरसे होती थी, जिससे शत्रुओंकी सेना घबरा जाती थी । इस शंखको अर्जुनने बजाया ।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः’हिडिम्बासुर, बकासुर, जटासुर आदि असुरों तथा कीचक, जरासन्ध आदि बलवान् वीरोंको मारनेके कारण भीमसेनका नाम भीमकर्मा’ पड़ गया । उनके पेटमें जठराग्‍निके सिवाय वृक’ नामकी एक विशेष अग्‍नि थी, जिससे बहुत अधिक भोजन पचता था । इस कारण उनका नाम वृकोदर’ पड़ गया । ऐसे भीमकर्मा वृकोदर भीमसेनने बहुत बड़े आकारवाला पौण्ड्र’ नामक शंख बजाया ।

രരരരരരരരരര

सूक्ष्म विषय‒युधिष्‍ठिर, नकुल और सहदेवके द्वारा शंख-वादन ।

      अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्‍ठिरः ।

नकुलः    सहदेवश्‍च   सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥

कुन्तीपुत्रः = कुन्तीपुत्र

नकुलः = नकुल

राजा = राजा

= और

युधिष्‍ठिरः =  युधिष्‍ठिरने

सहदेवः = सहदेवने

अनन्तविजयम् = अनन्तविजय नामक (शंख बजाया तथा)

सुघोषमणिपुष्पकौ = सुघोष और मणिपुष्पक नामक (शंख बजाये) ।

व्याख्याअनन्तविजयं राजा’..........सुघोषमणिपुष्पकौ’अर्जुन, भीम और युधिष्‍ठिर‒ये तीनों कुन्तीके पुत्र हैं तथा नकुल और सहदेव‒ये दोनों माद्रीके पुत्र हैं, यह विभाग दिखानेके लिये ही यहाँ युधिष्‍ठिरके लिये कुन्तीपुत्र’ विशेषण दिया गया है ।

युधिष्‍ठिरको राजा’ कहनेका तात्पर्य है कि युधिष्‍ठिरजी वनवासके पहले अपने आधे राज्य (इन्द्रप्रस्थ)-के राजा थे, और नियमके अनुसार बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवासके बाद वे राजा होने चाहिये थे । राजा’ विशेषण देकर संजय यह भी संकेत करना चाहते हैं कि आगे चलकर धर्मराज युधिष्‍ठिर ही सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलके राजा होंगे ।

രരരരരരരരരര