Listen प्रधान विषय‒१२—१९ श्लोकतक‒दोनों पक्षोंकी सेनाओंके शंखवादनका वर्णन । सूक्ष्म विषय‒दुर्योधनकी प्रसन्नताके लिये भीष्मका गरजकर शंख बजाना । सम्बन्ध‒द्रोणाचार्यके द्वारा कुछ भी न बोलनेके कारण दुर्योधनका मानसिक
उत्साह भंग हुआ देखकर उसके प्रति भीष्मजीके किये हुए स्नेह-सौहार्दकी बात संजय आगेके
श्लोकमें प्रकट करते हैं । तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरूवृद्धः पितामहः । सिंहनादं
विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
व्याख्या‒‘तस्य सञ्जनयन् हर्षम्’‒यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और
शंखध्वनि कारण है, इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे
होना चाहिये अर्थात् यहाँ ‘शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया’‒ऐसा कहा जाना चाहिये । परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि
‘दुर्योधनको हर्षित करते हुए भीष्मजीने शंख बजाया’
। कारण कि ऐसा कहकर संजय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह
भीष्मकी शंखवादन क्रियामात्रसे दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा । भीष्मजीके
इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही संजय आगे ‘प्रतापवान्’
विशेषण देते हैं । ‘कुरूवृद्धः’‒यद्यपि कुरुवंशियोंमें आयुकी दृष्टिसे भीष्मजीसे भी अधिक वृद्ध
बाह्लीक थे (जो कि भीष्मजीके पिता शान्तनुके छोटे भाई थे) तथापि कुरुवंशियोंमें
जितने बड़े-बूढ़े थे, उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वरको विशेषतासे जाननेवाले थे ।
अतः ज्ञानवृद्ध होनेके कारण संजय भीष्मजीके लिये ‘कुरुवृद्धः’
विशेषण देते हैं । ‘प्रतापवान्’‒भीष्मजीके त्यागका बड़ा प्रभाव था । वे कनक-कामिनीके त्यागी थे
अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया । भीष्मजी अस्त्र-शस्त्रको
चलानेमें बड़े निपुण थे और शास्त्रके भी बड़े जानकार थे । उनके इन दोनों गुणोंका भी
लोगोंपर बड़ा प्रभाव था । जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्यके लिये काशिराजकी कन्याओंको
स्वयंवरसे हरकर ला रहे थे, तब वहाँ स्वयंवरके लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उनपर टूट पड़े
। परन्तु अकेले भीष्मजीने उन सबको हरा दिया । जिनसे भीष्म अस्त्र-शस्त्रकी विद्या
पढ़े थे,
उन गुरु परशुरामजीके सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं
की । इस प्रकार शस्त्रके विषयमें उनका क्षत्रियोंपर बड़ा प्रभाव था । जब भीष्म शर-शय्यापर सोये थे, तब भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराजसे कहा कि ‘आपको धर्मके विषयमें कोई शंका हो तो भीष्मजीसे पूछ लें;
क्योंकि शास्त्रज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात्
भीष्मजी इस लोकसे जा रहे हैं ।’१ इस प्रकार शास्त्रके विषयमें उनका दूसरोंपर बड़ा प्रभाव था । १. तस्मिन्तस्तमिते भीष्मे
कौरवाणां धुरंधरे । ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां
चोदयाम्यहम् ॥ (महाभारत, शान्ति॰ ४६ । २३) ‘पितामहः’‒इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे
कही गयी बातोंका द्रोणाचार्यने कोई उत्तर नहीं दिया । उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन
चालाकीसे मेरेको ठगना चाहता है, इसलिये वे चुप ही रहे । परन्तु पितामह (दादा) होनेके नाते भीष्मजीको
दुर्योधनकी चालाकीमें उसका बचपना दीखता है । अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्यके समान चुप
न रहकर वात्सल्यभावके कारण दुर्योधनको हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं । ‘सिंहनादं
विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ’‒जैसे सिंहके गर्जना करनेपर हाथी आदि बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो
जाते हैं,
ऐसे ही गर्जना करनेमात्रसे सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न
हो जाय‒इसी भावसे भीष्मजीने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया । परिशिष्ट भाव‒दुर्योधनके साथ द्रोणाचार्यका विद्याका सम्बन्ध था और भीष्मजीका
जन्मका अर्थात् कौटुम्बिक सम्बन्ध था । जहाँ विद्याका सम्बन्ध होता है,
वहाँ पक्षपात नहीं होता, पर जहाँ कौटुम्बिक सम्बन्ध होता है,
वहाँ स्नेहवश पक्षपात हो जाता है । अतः दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे
कहे गये वचन सुनकर द्रोणाचार्य चुप रहे, जिससे दुर्योधनका मानसिक उत्साह भंग हो गया । परन्तु दुर्योधनको
उदास देखकर कौटुम्बिक स्नेहके कारण भीष्मजी शंख बजाते हैं । രരരരരരരരരര सूक्ष्म विषय‒कौरवसेनाके अनेक बाजोंका बजना । सम्बन्ध‒पितामह भीष्मके द्वारा शंख बजानेका परिणाम क्या हुआ, इसको संजय
आगेके श्लोकमें कहते हैं । ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः
। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्
॥ १३ ॥
व्याख्या‒‘ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः’‒यद्यपि भीष्मजीने युद्धारम्भकी घोषणा करनेके लिये शंख नहीं
बजाया था,
प्रत्युत दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था,
तथापि कौरव-सेनाने भीष्मजीके शंखवादनको युद्धकी घोषणा ही समझा
। अतः भीष्मजीके शंख बजानेपर कौरव-सेनाके शंख आदि सब बाजे एक साथ बज उठे । ‘शंख’
समुद्रसे उत्पन्न होते हैं । ये ठाकुरजीकी सेवा-पूजामें रखे
जाते हैं और आरती उतारने आदिके काममें आते हैं । मांगलिक कार्योंमें तथा युद्धके आरम्भमें
ये मुखसे फूँक देकर बजाये जाते हैं । ‘भेरी’ नाम नगाड़ोंका है (जो बड़े नगाड़े होते हैं,
उनको नौबत कहते हैं) । ये नगाड़े लोहेके बने हुए और भैंसेके चमड़ेसे
मढ़े हुए होते हैं, तथा लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं । ये मन्दिरोंमें एवं राजाओंके
किलोंमें रखे जाते हैं । उत्सव और मांगलिक कार्योंमें ये विशेषतासे बजाये जाते हैं
। राजाओंके यहाँ ये रोज बजाये जाते हैं । ‘पणव’ नाम ढोलकका है । ये लोहेके अथवा लकड़ीके बने हुए और बकरेके चमड़ेसे
मढ़े हुए होते हैं तथा हाथसे या लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं । ये आकारमें ढोलकीकी
तरह होनेपर भी ढोलकीसे बड़े होते हैं । कार्यके आरम्भमें पणवोंको बजाना गणेशजीके पूजनके
समान मांगलिक माना जाता है । ‘आनक’ नाम मृदंगका है । इनको पखावज भी कहते हैं । आकारमें ये लकड़ीकी
बनायी हुई ढोलकीके समान होते हैं । ये मिट्टीके बने हुए और चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं
तथा हाथसे बजाये जाते हैं । ‘गोमुख’ नाम नरसिंघेका है । ये आकारमें साँपकी तरह टेढ़े होते हैं और
इनका मुख गायकी तरह होता है । ये मुखकी फूँकसे बजाये जाते हैं । ‘सहसैवाभ्यहन्यन्त’२ २. कर्मको अत्यन्त सुगमतापूर्वक द्योतन करनेके लिये
जहाँ कर्म आदिको ही कर्ता बना दिया जाता है, उसको ‘कर्मकर्तृ’ प्रयोग कहते हैं । जैसे कोई लकड़ीको चीर रहा है, तो
इस कर्मको सुगम बतानेके लिये ‘लकड़ी चीरी जा रही है’ ऐसा प्रयोग किया जाता है । ऐसे ही यहाँ ‘बाजे बजाये गये’ ऐसा प्रयोग होना चाहिये; परन्तु बाजे बजानेमें सुगमता बतानेके लिये, सेनाका उत्साह दिखानेके लिये ‘बाजे बज उठे’ ऐसा प्रयोग किया गया है । ‒कौरव-सेनामें उत्साह बहुत था । इसलिये पितामह भीष्मका शंख बजते
ही कौरव-सेनाके सब बाजे अनायास ही एक साथ बज उठे । उनके बजनेमें देरी नहीं हुई तथा
उनको बजानेमें परिश्रम भी नहीं हुआ । ‘स शब्दस्तुमुलोऽभवत्’‒अलग-अलग विभागोंमें, टुकड़ियोंमें खड़ी हुई कौरव-सेनाके शंख आदि बाजोंका शब्द बड़ा भयंकर
हुआ अर्थात् उनकी आवाज बड़ी जोरसे गूँजती रही ।
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