।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒दुर्योधनके मनमें अपनी सेनाकी न्यूनताका और पाण्डवसेनाकी महत्ताका चिन्तन ।

सम्बन्ध‒दुर्योधनकी बातें सुनकर जब द्रोणाचार्य कुछ भी नहीं बोले, तब अपनी चालाकी न चल सकनेसे दुर्योधनके मनमें क्या विचार आता है‒इसको संजय आगेके श्‍लोकमें कहते हैं

संजय व्यासप्रदत्त दिव्य दृष्‍टिसे सैनिकोंके मनमें आयी बातको भी जान लेनेमें समर्थ थे‒

प्रकाशं वाप्रकाशं वा दिवा वा यदि वा निशि ।

 मनसा  चिन्तितमपि  सर्वं  वेत्स्यति सञ्‍जयः ॥

(महाभारत, भीष्म २ । ११)

अपर्याप्‍तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।

         पर्याप्‍तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥

द्रोणाचार्यको चुप देखकर दुर्योधनके मनमें विचार हुआ कि वास्तवमें‒

अस्माकम् = हमारी

एतेषाम् = इन पाण्डवोंकी

तत् = वह

इदम् = यह

बलम् = सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें)

बलम् = सेना (हमपर विजय करनेमें)

अपर्याप्‍तम् = अपर्याप्‍त है, असमर्थ है; (क्योंकि)

पर्याप्‍तम् = पर्याप्‍त है, समर्थ है (क्योंकि)

भीष्माभिरक्षितम् = उसके संरक्षक (उभयपक्षपाती) भीष्म हैं ।

भीमाभिरक्षितम् = इसके संरक्षक (निजसेनापक्षपाती) भीमसेन हैं ।

तु = परन्तु

 

व्याख्या‘अपर्याप्‍तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्’अधर्म‒अन्यायके कारण दुर्योधनके मनमें भय होनेसे वह अपनी सेनाके विषयमें सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होनेपर भी अर्थात् पाण्डवोंकी अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक होनेपर भी पाण्डवोंपर विजय प्राप्‍त करनेमें है तो असमर्थ ही ! कारण कि हमारी सेनामें मतभेद है । उसमें इतनी एकता (संगठन), निर्भयता, निःसंकोचता नहीं है, जितनी कि पाण्डवोंकी सेनामें है । हमारी सेनाके मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म उभयपक्षपाती हैं अर्थात् उनके भीतर कौरव और पाण्डव‒दोनों सेनाओंका पक्ष है । वे कृष्णके बड़े भक्त हैं । उनके हृदयमें युधिष्‍ठिरका बड़ा आदर है । अर्जुनपर भी उनका बड़ा स्‍नेह है । इसलिये वे हमारे पक्षमें रहते हुए भी भीतरसे पाण्डवोंका भला चाहते हैं । वे ही भीष्म हमारी सेनाके मुख्य सेनापति हैं । ऐसी दशामें हमारी सेना पाण्डवोंके मुकाबलेमें कैसे समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती ।

पर्याप्‍तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्’परन्तु यह जो पाण्डवोंकी सेना है, यह हमारेपर विजय करनेमें समर्थ है । कारण कि इनकी सेनामें मतभेद नहीं है, प्रत्युत सभी एकमत होकर संगठित हैं । इनकी सेनाका संरक्षक बलवान् भीमसेन है, जो कि बचपनसे ही मेरेको हराता आया है । यह अकेला ही मेरेसहित सौ भाइयोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर चुका है अर्थात् यह हमारा नाश करनेपर तुला हुआ है ! इसका शरीर वज्रके समान मजबूत है । इसको मैंने जहर पिलाया था, तो भी यह मरा नहीं । ऐसा यह भीमसेन पाण्डवोंकी सेनाका संरक्षक है, इसलिये यह सेना वास्तवमें समर्थ है, पूर्ण है ।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि दुर्योधनने अपनी सेनाके संरक्षकके लिये भीष्मजीका नाम लिया, जो कि सेनापतिके पदपर नियुक्त हैं । परन्तु पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका नाम लिया, जो कि सेनापति नहीं हैं । इसका समाधान यह है कि दुर्योधन इस समय सेनापतियोंकी बात नहीं सोच रहा है; किन्तु दोनों सेनाओंकी शक्तिके विषयमें सोच रहा है कि किस सेनाकी शक्ति अधिक है ? दुर्योधनपर आरम्भसे ही भीमसेनकी शक्तिका, बलवत्ताका अधिक प्रभाव पड़ा हुआ है । अतः वह पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका ही नाम लेता है ।

विशेष बात

अर्जुन कौरव-सेनाको देखकर किसीके पास न जाकर हाथमें धनुष उठाते हैं (गीता‒पहले अध्यायका बीसवाँ श्‍लोक), पर दुर्योधन पाण्डवसेनाको देखकर द्रोणाचार्यके पास जाता है और उनसे पाण्डवोंकी व्यूहरचनायुक्त सेनाको देखनेके लिये कहता है । इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधनके हृदयमें भय बैठा हुआ है

२. जब कौरवोंकी सेनाके शंख आदि बाजे बजे, तब उनके शब्दका पाण्डव-सेनापर कुछ भी असर नहीं पड़ा । परन्तु जब पाण्डवोंकी सेनाके शंख बजे, तब उनके शब्दसे दुर्योधन आदिके हृदय विदीर्ण हो गये (१ । १३, १९) । इससे सिद्ध होता है कि अधर्म‒अन्यायका पक्ष लेनेके कारण दुर्योधन आदिके हृदय कमजोर हो गये थे और उनमें भय बैठा हुआ था ।

भीतरमें भय होनेपर भी वह चालाकीसे द्रोणाचार्यको प्रसन्‍न करना चाहता है, उनको पाण्डवोंके विरुद्ध उकसाना चाहता है । कारण कि दुर्योधनके हृदयमें अधर्म है, अन्याय है, पाप है । अन्यायी, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शान्तिसे नहीं रह सकता‒यह नियम है । परन्तु अर्जुनके भीतर धर्म है, न्याय है । इसलिये अर्जुनके भीतर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये चालाकी नहीं है, भय नहीं है; किन्तु उत्साह है, वीरता है । तभी तो वे वीरतामें आकर सेना-निरीक्षण करनेके लिये भगवान्‌को आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये’ (पहले अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । इसका तात्पर्य है कि जिसके भीतर नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता । वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता । परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान्‌का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता । उसका बल सच्‍चा होता है । वह सदा निश्‍चिन्त और निर्भय रहता है । अतः अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंको अधर्म, अन्याय आदिका सर्वथा त्याग करके और एकमात्र भगवान्‌का आश्रय लेकर भगवत्प्रीत्यर्थ अपने धर्मका अनुष्‍ठान करना चाहिये । भौतिक सम्पत्तिको महत्त्व देकर और संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें फँसकर कभी अधर्मका आश्रय नहीं लेना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंसे मनुष्यका कभी हित नहीं होता, प्रत्युत अहित ही होता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒अर्जुनने अस्‍त्र-शस्‍त्रोंसे सुसज्‍जित नारायणी सेनाको छोड़कर निःशस्‍त्र भगवान् श्रीकृष्णको स्वीकार किया था

३. एवमुक्तस्तु कृष्णेन कुन्तीपुत्रो धनञ्‍जयः ।

    अयुध्यमानं  संग्रामे वरयामास केशवम् ॥

(महा, उद्योग ७। २१)

श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर कुन्तीपुत्र धनंजयने संग्रामभूमिमें (अस्‍त्र-शस्‍त्रोंसे सुसज्‍जित एक अक्षौहिणी नारायणी सेनाको छोड़कर) युद्ध न करनेवाले निःशस्‍त्र उन भगवान्‌ श्रीकृष्णाको ही (अपना सहायक) चुना ।

 और दुर्योधनने भगवान्‌को छोड़कर उनकी नारायणी सेनाको स्वीकार किया था । तात्पर्य है कि अर्जुनकी दृष्‍टि भगवान्‌पर थी और दुर्योधनकी दृष्‍टि वैभवपर थी । जिसकी दृष्‍टि भगवान्‌पर होती है, उसका हृदय बलवान् होता है; क्योंकि भगवान्‌का बल सच्‍चा है । परन्तु जिसकी दृष्‍टि सांसारिक वैभवपर होती है, उसका हृदय कमजोर होता है; क्योंकि संसारका बल कच्‍चा है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याइस श्‍लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्योधन पाण्डवोंसे सन्धि करना चाहता है । परन्तु वास्तवमें ऐसी बात है नहीं । दुर्योधनने कहा है

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥

(गर्गसंहिता, अश्वमेध ५० । ३६)

‘मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती । मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ ।’

दुर्योधन हृदयमें स्थित जिस देवकी बात कहता है, वह वास्तवमें ‘कामना’ ही है । जब वह कामनाके वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवोंसे सन्धि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मनके अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्मके तथा भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार चलते थे । इसलिये जब गन्धर्वोंने दुर्योधनको बन्दी बना लिया था, तब युधिष्‍ठिरने ही उसे छुड़वाया । वहाँ युधिष्‍ठिरके वचन है

परैः परिभवे प्राप्‍ते वयं पञ्चोत्तरं शतम् ।

परस्परविरोधे तु  वयं  पञ्च  शत तु ते

(महाभारत, वन २४३)

‘दूसरोंके द्वारा पराभव प्राप्‍त होनेपर उसका सामना करनेके लिये हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं । आपसमें विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं ।’

कामना मनुष्यको पापोंमें लगाती है (गीता ३ । ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्योंको पुण्यकर्मोंमें लगाता है ।

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सूक्ष्म विषय‒अपने शूरवीरोंसे भीष्मकी रक्षा करनेके लिये दुर्योधनकी प्रेरणा ।

सम्बन्ध‒अब दुर्योधन पितामह भीष्मको प्रसन्‍न करनेके लिये अपनी सेनाके सभी महारथियोंसे कहता है‒

       अयनेषु  च  सर्वेषु  यथाभागमवस्थिताः ।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥

च = दुर्योधन बाह्यदृष्‍टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला‒

अवस्थिताः = दृढ़तासे स्थित रहते हुए

भवन्तः = आप

हि = निश्‍चितरूपसे

सर्वे, एव = सब-के-सब लोग

भीष्मम् = पितामह भीष्मकी

सर्वेषु = सभी

एव = ही

अयनेषु = मोर्चोंपर

अभिरक्षन्तु = चारों ओरसे रक्षा करें ।

यथाभागम् = अपनी-अपनी जगह

 

व्याख्या‘अयनेषु च सर्वेषु……….भवन्तः सर्व एव हि’जिन-जिन मोर्चोंपर आपकी नियुक्ति कर दी गयी है, आप सभी योद्धालोग उन्हीं मोर्चोंपर दृढ़तासे स्थित रहते हुए सब तरफसे, सब प्रकारसे भीष्मजीकी रक्षा करें ।

भीष्मजीकी सब ओरसे रक्षा करें‒यह कहकर दुर्योधन भीष्मजीको भीतरसे अपने पक्षमें लाना चाहता है । ऐसा कहनेका दूसरा भाव यह है कि जब भीष्मजी युद्ध करें, तब किसी भी व्यूहद्वारसे शिखण्डी उनके सामने न आ जाय‒इसका आपलोग खयाल रखें । अगर शिखण्डी उनके सामने आ जायगा, तो भीष्मजी उसपर शस्‍त्रास्‍त्र नहीं चलायेंगे । कारण कि शिखण्डी पहले जन्ममें भी स्‍त्री था और इस जन्ममें भी पहले स्‍त्री था, पीछे पुरुष बना है । इसलिये भीष्मजी इसको स्‍त्री ही समझते हैं और उन्होंने शिखण्डीसे युद्ध न करनेकी प्रतिज्ञा कर रखी है । यह शिखण्डी शंकरके वरदानसे भीष्मजीको मारनेके लिये ही पैदा हुआ है । अतः जब शिखण्डीसे भीष्मजीकी रक्षा हो जायगी, तो फिर वे सबको मार देंगे, जिससे निश्‍चित ही हमारी विजय होगी । इस बातको लेकर दुर्योधन सभी महारथियोंसे भीष्मजीकी रक्षा करनेके लिये कह रहा है ।

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