Listen सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना प्रत्यक्ष दीखता है, लोहेसे
बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा प्रत्यक्ष दीखता है और मिट्टीसे बने हुए
बर्तनोंमें मिट्टी प्रत्यक्ष दीखती है; परन्तु परमात्मासे
बने हुए संसारमें परमात्मा प्रत्यक्ष नहीं दीखते । इसलिये सब कुछ परमात्मा
ही हैं‒इस बातको समझनेके लिये गेहूँके खेतका दृष्टान्त दिया जाता है । किसानलोग गेहूँकी हरी-भरी खेतीको भी गेहूँ ही कहते हैं ।
खेतीको गाय खा जाती है तो वे कहते हैं कि तुम्हारी गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि
गायने गेहूँका एक दाना भी नहीं खाया ! खेतमें भले ही गेहूँका एक दाना भी दिखायी न
दे, पर यह गेहूँ है‒इसमें किसानको किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता । कोई शहरमें
रहनेवाला व्यापारी हो तो वह उसको गेहूँ नहीं मानेगा, प्रत्युत कहेगा कि यह तो घास
है, गेहूँ कैसे हुआ ? मैंने बोरे-के-बोरे गेहूँ खरीदे और बेचे हैं, मैं जानता हूँ
कि गेहूँ कैसा होता है । परन्तु किसान यही कहेगा कि यह वह घास नहीं है, जिसको पशु
खाया करते हैं । यह तो गेहूँ है । कारण कि आरम्भमें बीजके रूपमें गेहूँ ही था और
अन्तमें भी इसमेंसे गेहूँ ही निकलेगा । अतः बीचमें खेतीरूपसे यह गेहूँ ही है । जो आरम्भ और अन्तमें होता है, वह बीचमें भी होता है‒यह
सिद्धान्त है‒यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च
तस्य सन् । (श्रीमद्भा॰ ११ । २४ । १७) भगवान् सम्पूर्ण सृष्टिके आदि बीज हैं‒ यच्चापि
सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न
तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ (गीता १० । ३९) ‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज
(मूल कारण) है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे
बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’ सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है और फिर वृक्षको पैदा
करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर भगवान् पैदा नहीं होते और अनन्त सृष्टियोंको
पैदा करके भी स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हैं । इसलिये भगवान्ने अपनेको ‘सनातन’ और
‘अव्यय’ बीज कहा है‒ बीजं
मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । (गीता ७ । १०) प्रभवः
प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (गीता ९ । १८) आमके बगीचेमें आमका एक फल भी न हो तो भी वह बगीचा आमका ही
कहलाता है । कारण कि पहले भी आमके बीज थे, फिर उनसे वृक्ष उत्पन्न हुए और अन्तमें
उनमें आम ही निकलेंगे, इसलिये बीचमें भी वह आमका ही बगीचा कहलाता है । लौकिक बीजसे
तो एक ही प्रकारकी खेती होती है; जैसे‒गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है,
बाजरेसे बाजरा ही पैदा होता है, ज्वारसे ज्वार ही पैदा होता है, मक्केसे मक्का
ही पैदा होता है, आमसे आम ही पैदा होता है, आदि-आदि । सबके बीज अलग-अलग होते हैं ।
परन्तु भगवान्रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही
बीजसे अनन्त भेदोंवाली सृष्टि पैदा हो जाती है‒ सर्वयोनिषु
कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । तासां
ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (गीता १४ । ४) ‘हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियोंमें
प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं
बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ ।’ सृष्टिसे पहले भी परमात्मा थे‒‘सदेव
सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य॰ ६ । २ । १) और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे‒‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा॰ १० । ३ । २५), फिर बीचमें दूसरा कहाँसे आया ? सोनेके गहनोंमें सोना
दीखता है और गेहूँकी खेतीमें गेहूँ नहीं दीखता‒इसका
तात्पर्य दीखने या न दीखनेमें नहीं है, प्रत्युत तत्त्वको एक बतानेमें है । सभी दृष्टान्तोंका
तात्पर्य है कि तत्त्व एक ही है, चाहे दीखे या न दीखे । भगवान् कहते हैं‒ अमृतं
चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ (गीता ९ । १९) अमृत भी भगवान्का स्वरूप है, मृत्यु भी भगवान्का स्वरूप
है । सत् भी भगवान्का स्वरूप है, असत् भी भगवान्का स्वरूप है । सुन्दर पुष्प
खिले हों, सुगन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्का स्वरूप है और मांस, हड्डियाँ, मैला
पड़ा हो, दुर्गन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्का स्वरूप है । भगवान्ने राम, कृष्ण
आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये । वे कोई भी
रूप धारण करें, हैं तो भगवान् ही ! वे चाहे किसी भी रूपमें आयें, उनकी मरजी है ।
वे जैसा रूप धारण करते हैं, वैसी ही लीला करते हैं । वराह (सूअर)-का रूप धारण करके
वे वराहकी तरह लीला करते हैं, मनुष्यका रूप धारण करके वे मनुष्यकी तरह लीला करते
हैं । नरसिंहरूपसे वे प्रह्लादजीको चाटते हैं ! भगवान् उत्तंक ऋषिसे कहते हैं‒ धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च । तैस्तैर्वेषैश्च
रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव ॥ (महाभारत,
आश्व॰ ५४ । १३-१४)
‘मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों
लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप
बर्ताव करता हूँ ।’ |