Listen भगवान् सत्ययुगमें सत्ययुगकी लीला करते हैं, कलियुगमें
कलियुगकी लीला करते हैं । कोई पाप, अन्याय करता हुआ दीखे
तो समझना चाहिये कि भगवान् कलियुगकी लीला कर रहे हैं । वे कोई भी रूप धारण करके
कैसी ही लीला करें, हमारी दृष्टि उनको छोड़कर कहीं जानी ही नहीं चाहिये ।
भगवान् कहते हैं‒ यो
मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं
न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (गीता ६ । ३०) ‘जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको
देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’ जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ?
बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी ! ऐसे ही जब
सब रूपोंमें भगवान् ही हों तो भगवान् कैसे छिपेंगे ? कहाँ छिपेंगे ? किसके पीछे
छिपेंगे ? तात्पर्य है कि एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं । उस
परमात्मामें न मैं है, न तू है, न यह है, न वह है । न भूत है, न भविष्य है, न
वर्तमान है । न सर्ग-महासर्ग है, न प्रलय-महाप्रलय है । न देवता है, न मनुष्य है,
न राक्षस है । न पशु है, न पक्षी है । न प्रेत है, न पिशाच है । न जड़ है, न चेतन
है । न स्थावर है, न जंगम है । एक परमात्माके सिवाय कुछ
भी नहीं है । वे एक ही अनेक रूपोंमें बने हुए हैं । वे एक ही अनन्त रूपोंमें भासित
हो रहे हैं । (४) सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह बात हमें दीखे चाहे न
दीखे, हमारे जाननेमें आये चाहे न आये, हमारे अनुभवमें आये चाहे न आये, पर हम
दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि वास्तवमें बात यही सच्ची है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है, वास्तविकतामें कमी नहीं
है । सब कुछ भगवान् ही हैं‒ऐसा अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता
नहीं है, प्रत्युत केवल भावकी आवश्यकता है । हमें केवल अपनी भावना बदलनी है । जब साधककी अन्तर्वृत्ति हो, तब एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है और जब साधककी बाह्यवृति हो, तब जो कुछ दीखे,
वह भगवान्की ही लीला है ! भगवान्की अपरा प्रकृतिके सम्मुख होनेसे ही हमारी भगवान्से
विमुखता हो गयी है । अगर हम अपरासे विमुख हो जायँ और जिसकी अपरा प्रकृति है, उसके
(भगवान्के) सम्मुख हो जायँ तो वास्तविकताका अनुभव हो जायगा‒‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७ । १४) । भगवान् कहते हैं‒ ये
चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त
एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु
ते मयि ॥ (गीता ७ । १२) ‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी
राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझमें ही रहते
हैं‒ऐसा समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं ।’ ‘न त्वहं तेषु ते मयि’ कहनेका तात्पर्य है कि तुम गुणोंमें उलझो मत । भगवान् तो सबमें ही हैं । वे गुणोंमें भी हैं । पर गुणोंमें
उलझनेसे हम उनसे दूर हो जाते हैं । यदि हम भगवान्को सत्ता और महत्ता न
देकर गुणोंको सत्ता और महत्ता देंगे तो हम जन्म-मरणमें चले जायँगे‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । जैसे, गेहूँके खेतमें गेहूँ ही मुख्य होता है, पत्ती-डंठल
नहीं । गेहूँके पौधेमें जड़ तामस है, डंठल राजस है, सिट्टा सात्त्विक है और गेहूँ
(दाना) गुणातीत है । किसानका उद्देश्य केवल गेहूँको प्राप्त करनेका ही होता है ।
गेहूँको प्राप्त करनेके लिये ही वह सारी मेहनत करता है, खेतीमें जल-खाद आदि डालता
है । गेहूँ प्राप्त होनेके बाद उसका पत्ती-डंठलसे कोई मतलब नहीं रहता; क्योंकि
उसकी दृष्टिमें पत्ती-डंठलका कोई महत्त्व नहीं है । इसी तरह साधकका उद्देश्य भी
केवल भगवान्का ही होता है, सात्त्विक-राजस-तामस तीनों गुणोंका नहीं । जैसे
गेहूँसे पैदा होनेपर भी पत्ती-डंठलसे किसानका कोई प्रयोजन नहीं होता, ऐसे ही
भगवान्से उत्पन्न होनेपर भी सात्त्विक-राजस-तामस भावोंसे साधकका कोई प्रयोजन
नहीं होता । जैसे बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च
करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं । ऐसे ही हम संसारको चाहते हैं
तो भगवान् संसाररूपमें हमारे सामने आ जाते हैं । हम शरीर बनते हैं तो भगवान् विश्व
बन जाते हैं । शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता‒यह
नियम है । सब कुछ भगवान् हैं‒इसका चिन्तन नहीं करना है,
प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है । स्वीकार करते ही हमारी दृष्टि बदल जायगी
। दृष्टिमें ही सृष्टि है । हमारी दृष्टि बदलेगी तो सारी सृष्टि बदल जायगी ! इसलिये अपनी दृष्टि ऐसी
बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान् ही दीखने लग जायँ । यही सच्ची
आस्तिकता है । भक्तराज ध्रुव कहते हैं‒ भूमिरापोऽनलो
वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य
रूपं नतोऽस्मि तम् ॥ (विष्णुपुराण १ । १२ । ५१) ‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन,
बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति‒ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान्को मैं नमस्कार
करता हूँ ।’ अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान्
हैं’‒यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है । बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार
करनेपर कल्याण होता है । जब सब कुछ भगवान् ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन
करे और किससे करे ? निज
प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥
(मानस, उत्तर॰ ११२ ख) |