।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार
तू-ही-तू





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भगवान्‌ सत्ययुगमें सत्ययुगकी लीला करते हैं, कलियुगमें कलियुगकी लीला करते हैं । कोई पाप, अन्याय करता हुआ दीखे तो समझना चाहिये कि भगवान्‌ कलियुगकी लीला कर रहे हैं । वे कोई भी रूप धारण करके कैसी ही लीला करें, हमारी दृष्‍टि उनको छोड़कर कहीं जानी ही नहीं चाहिये । भगवान्‌ कहते हैं‒

यो मां पश्यति सर्वत्र  सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

(गीता ६ । ३०)

‘जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’

जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ? बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी ! ऐसे ही जब सब रूपोंमें भगवान्‌ ही हों तो भगवान्‌ कैसे छिपेंगे ? कहाँ छिपेंगे ? किसके पीछे छिपेंगे ? तात्पर्य है कि एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं । उस परमात्मामें न मैं है, न तू है, न यह है, न वह है । न भूत है, न भविष्य है, न वर्तमान है । न सर्ग-महासर्ग है, न प्रलय-महाप्रलय है । न देवता है, न मनुष्य है, न राक्षस है । न पशु है, न पक्षी है । न प्रेत है, न पिशाच है । न जड़ है, न चेतन है । न स्थावर है, न जंगम है । एक परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है । वे एक ही अनेक रूपोंमें बने हुए हैं । वे एक ही अनन्त रूपोंमें भासित हो रहे हैं ।

(४)

सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यह बात हमें दीखे चाहे न दीखे, हमारे जाननेमें आये चाहे न आये, हमारे अनुभवमें आये चाहे न आये, पर हम दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि वास्तवमें बात यही सच्‍ची है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है, वास्तविकतामें कमी नहीं है । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत केवल भावकी आवश्यकता है । हमें केवल अपनी भावना बदलनी है । जब साधककी अन्तर्वृत्ति हो, तब एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है और जब साधककी बाह्यवृति हो, तब जो कुछ दीखे, वह भगवान्‌की ही लीला है !

भगवान्‌की अपरा प्रकृतिके सम्मुख होनेसे ही हमारी भगवान्‌से विमुखता हो गयी है । अगर हम अपरासे विमुख हो जायँ और जिसकी अपरा प्रकृति है, उसके (भगवान्‌के) सम्मुख हो जायँ तो वास्तविकताका अनुभव हो जायगा‒‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७ । १४) ।

भगवान्‌ कहते हैं‒

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्‍च ये ।

मत्त एवेति तान्विद्धि   न  त्वहं  तेषु  ते मयि ॥

(गीता ७ । १२)

‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझमें ही रहते हैं‒ऐसा समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं ।

‘न त्वहं तेषु ते मयि’ कहनेका तात्पर्य है कि तुम गुणोंमें उलझो मत । भगवान्‌ तो सबमें ही हैं । वे गुणोंमें भी हैं । पर गुणोंमें उलझनेसे हम उनसे दूर हो जाते हैं । यदि हम भगवान्‌को सत्ता और महत्ता न देकर गुणोंको सत्ता और महत्ता देंगे तो हम जन्म-मरणमें चले जायँगे‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) जैसे, गेहूँके खेतमें गेहूँ ही मुख्य होता है, पत्ती-डंठल नहीं । गेहूँके पौधेमें जड़ तामस है, डंठल राजस है, सिट्टा सात्त्विक है और गेहूँ (दाना) गुणातीत है । किसानका उद्देश्य केवल गेहूँको प्राप्‍त करनेका ही होता है । गेहूँको प्राप्‍त करनेके लिये ही वह सारी मेहनत करता है, खेतीमें जल-खाद आदि डालता है । गेहूँ प्राप्‍त होनेके बाद उसका पत्ती-डंठलसे कोई मतलब नहीं रहता; क्योंकि उसकी दृष्‍टिमें पत्ती-डंठलका कोई महत्त्व नहीं है । इसी तरह साधकका उद्देश्य भी केवल भगवान्‌का ही होता है, सात्त्विक-राजस-तामस तीनों गुणोंका नहीं । जैसे गेहूँसे पैदा होनेपर भी पत्ती-डंठलसे किसानका कोई प्रयोजन नहीं होता, ऐसे ही भगवान्‌से उत्पन्‍न होनेपर भी सात्त्विक-राजस-तामस भावोंसे साधकका कोई प्रयोजन नहीं होता ।

जैसे बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं । ऐसे ही हम संसारको चाहते हैं तो भगवान्‌ संसाररूपमें हमारे सामने आ जाते हैं । हम शरीर बनते हैं तो भगवान्‌ विश्‍व बन जाते हैं । शरीर बननेके बाद फिर विश्‍वसे भिन्‍न कुछ भी जाननेमें नहीं आता‒यह नियम है ।

सब कुछ भगवान्‌ हैं‒इसका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है । स्वीकार करते ही हमारी दृष्‍टि बदल जायगी । दृष्‍टिमें ही सृष्‍टि है । हमारी दृष्‍टि बदलेगी तो सारी सृष्‍टि बदल जायगी ! इसलिये अपनी दृष्‍टि ऐसी बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान्‌ ही दीखने लग जायँ । यही सच्‍ची आस्तिकता है ।

भक्तराज ध्रुव कहते हैं‒

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

(विष्णुपुराण १ । १२ । ५१)

‘पृथ्वी, जल, अग्‍नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति‒ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ।’

अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान्‌ हैं’‒यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है । बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार करनेपर कल्याण होता है । जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ?

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर ११२ ख)