Listen (५) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस
भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान् ही हैं । मनकी
स्फुरणामात्र भगवान् ही हैं । संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र,
दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने,
समझने आदिमें आता है, वह सब-का-सब केवल भगवान् ही हैं । शरीर-शरीरी,
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, अपरा-परा, क्षर-अक्षर आदि सब केवल भगवान् ही हैं । जब सब कुछ
भगवान् ही हैं तो फिर उसमें ‘मैं’ कहाँसे आये ? ‘मैं’ है
ही नहीं, केवल तू-ही-तू है‒ तू
तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ । वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥ अब भगवान्की प्राप्तिमें देरी किस बातकी है ?
भगवत्प्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । मान लो कि हम एक नदीको देख रहे हैं । किसी जानकार व्यक्तिने हमारेसे कहा कि
यह नदी गंगाजी हैं । यह सुनते ही हमारी भावना बदल गयी, दृष्टि बदल गयी । इसमें
देरी क्या लगी ? परिश्रम (अभ्यास) क्या करना पड़ा ? किस क्रिया और पदार्थकी
आवश्यकता पड़ी ? सब कुछ भगवान् ही हैं‒इस वास्तविक बातको
स्वीकार करनेके लिये न कोई ग्रन्थ पढ़ना है, न कोई ध्यान करना है, न कोई चिन्तन
करना है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना है, न आँख मीचनी है, न कान मूँदने हैं, न
नाक दबानी है, न जंगलमें जाना है, न गुफामें जाना है, न हिमालयमें जाना है !
अपनी सत्ताको भी अलग न रखकर भगवान्में मिला देना है । ‘मैं’ और ‘मेरा’ को छोड़कर
‘तू’ और ‘तेरा’ को स्वीकार करना है । फिर ‘तेरा’ भी न रहे, प्रत्युत तू-ही-तू रह
जाय । ‘मैं’ की
जगह भी केवल भगवान् ही रह जायँ ! यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु सब समयमें मौजूद
होती है, उसकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं होती और जो वस्तु सब जगह
मौजूद होती है, उसकी प्राप्ति किसी क्रिया तथा पदार्थसे नहीं होती । कहीं जानेसे जो परमात्मा मिलेंगे, वे ही परमात्मा जहाँ हम
हैं, वहाँ पूरे-के-पूरे हैं । कहीं जानेकी, कुछ बदलनेकी जरूरत नहीं है । केवल मन
बदलनेकी जरूरत है । उनकी प्राप्तिकी सच्ची चाहना होनी चाहिये । उनकी प्राप्ति केवल
इच्छामात्रसे होती है । जो केवल परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको तत्काल
प्राप्ति होती है । देरी उसको लगती है, जिसको इच्छाकी कमीके कारण देरी सह्य है । जो वस्तु दूर हो, उसकी प्राप्तिके
लिये मार्ग होता है । जो
वस्तु सर्वव्यापक हो, सब जगह परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग नहीं होता
। उसकी प्राप्ति केवल चाहनासे होती है । चाहनामात्रसे
केवल परमात्मा ही मिलते हैं, और कोई वस्तु नहीं मिलती । परमात्मा अद्वितीय
हैं तो उनकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये । संसारकी प्राप्ति चाहनेमात्रसे नहीं
होती । संसारकी प्राप्ति ‘करने’ से होती है, परमात्माकी प्राप्ति ‘न करने’ से होती है । मूलमें साधकके भीतर परमात्माकी लालसा होनी चाहिये । अगर भीतरसे संसार अच्छा लगता है, संसारकी लालसा है तो
परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती । जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसीको जल
दीखता है, ऐसे ही जिसके भीतर संसारकी प्यास (लालसा) है, उसको संसार दीखता है और
जिसके भीतर परमात्माकी प्यास है, उसको परमात्मा दीखते हैं । प्यास न हो तो वस्तु
सामने रहते हुए भी नहीं दीखती । परमात्माकी प्यास हो तो
जगत् लुप्त हो जाता है और जगत्की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं ।
जिसके भीतर जगत्की प्यास है, वह जगत्का निर्माण कर लेता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) और जिसके भीतर
परमात्माकी प्यास है, वह परमात्माकी खोज कर लेता है‒‘ततः
पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता १५ । ४) । जगत्की प्यास होनेसे जगत् न
होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे
परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाता है । परमात्माकी
प्यास जाग्रत् होनेपर साधकको भूतकालका चिन्तन नहीं होता, भविष्यकी आशा नहीं रहती
और वर्तमानमें उसको प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता । (६) अपरा, परा और परमात्मा‒इन तीनोंमें अपरा और परा तो जाननेका
विषय है, पर परमात्मा जाननेका विषय नहीं हैं, प्रत्युत माननेका विषय हैं । उनको
माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता । रचना अपने रचयिताको कैसे जान सकती है ?
कार्य अपने कारणको कैसे जान सकता है ? इसलिये गीतामें भगवान्ने कहा है‒ वेदाहं
समतीतानि वर्तमानानि
चार्जुन । भविष्याणि
च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ (७ । २६) ‘हे अर्जुन ! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके
हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता
हूँ, पर मुझे कोई भी नहीं जानता ।’ न
मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि
देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ (१० । २) ‘मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न
महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और
महर्षियोंका आदि हूँ ।’ जैसे अपने माता-पिताको हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही
सकते हैं; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उनको देखा ही नहीं; देखना सम्भव ही नहीं ।
ऐसे ही परमात्माको भी हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं । माताकी
अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा
शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी !
भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं‒‘अहं बीजप्रदः पिता’
(गीता १४ । ४), ‘पिताहमस्य जगतः’ (गीता ९ । १७),
पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११ । ४३), ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) ।
इसलिये परमात्माको माना ही जा सकता है । उनको जानना
सर्वथा असम्भव है । जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर
हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । ऐसे ही
परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं । अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं
तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी । कारणके बिना कार्य कहाँसे आया ? परमात्माके
बिना हम स्वयं कहाँसे आये ? जैसे ‘हम नहीं हैं’‒इस तरह अपने होनेपनका कोई निषेध या
खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’‒इस तरह परमात्माके होनेपनका भी
कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता ।
सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह मान ही सकते हैं, जान
नहीं सकते; क्योंकि यह समझके अन्तर्गत नहीं आता, प्रत्युत समझ (बुद्धि) इसके
अन्तर्गत आती है । |