।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒वर्णसंकरसे कुल और कुलघातियोंका नरकोंमें जाना और पितरोंका पतन होना ।

सङ्करो  नरकायैव    कुलघ्‍नानां  कुलस्य च ।

         पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्‍तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥

सङ्करः = वर्णसंकर

लुप्‍तपिण्डोदकक्रियाः = श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे

कुलघ्‍नानाम् = कुलघातियोंको

एषाम् = इन (कुलघातियों)-के

च = और

पितरः = पितर

कुलस्य = कुलको

हि = भी (अपने स्थानसे)

नरकाय = नरकमें ले जानेवाला

पतन्ति = गिर जाते हैं ।

एव = ही (होता है) ।

 

व्याख्यासङ्करो नरकायैव कुलघ्‍नानां कुलस्य च’वर्ण-मिश्रणसे पैदा हुए वर्णसंकर (सन्तान)-में धार्मिक बुद्धि नहीं होती । वह मर्यादाओंका पालन नहीं करता; क्योंकि वह खुद बिना मर्यादासे पैदा हुआ है । इसलिये उसके खुदके कुलधर्म न होनेसे वह उनका पालन नहीं करता, प्रत्युत कुलधर्म अर्थात् कुलमर्यादासे विरुद्ध आचरण करता है ।

जिन्होंने युद्धमें अपने कुलका संहार कर दिया है, उनको कुलघाती’ कहते हैं । वर्णसंकर ऐसे कुलघातियोंको नरकोंमें ले जाता है । केवल कुलघातियोंको ही नहीं, प्रत्युत कुल-परम्परा नष्‍ट होनेसे सम्पूर्ण कुलको भी वह नरकोंमें ले जाता है ।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्‍तपिण्डोदकक्रियाः’‒जिन्होंने अपने कुलका नाश कर दिया है, ऐसे इन कुलघातियोंके पितरोंको वर्णसंकरके द्वारा पिण्ड और पानी (श्राद्ध और तर्पण) न मिलनेसे उन पितरोंका पतन हो जाता है । कारण कि जब पितरोंको पिण्ड-पानी मिलता रहता है, तब वे उस पुण्यके प्रभावसे ऊँचे लोकोंमें रहते हैं । परन्तु जब उनको पिण्ड-पानी मिलना बन्द हो जाता है, तब उनका वहाँसे पतन हो जाता है अर्थात् उनकी स्थिति उन लोकोंमें नहीं रहती ।

पितरोंको पिण्ड-पानी न मिलनेमें कारण यह है कि वर्णसंकरकी पूर्वजोंके प्रति आदर-बुद्धि नहीं होती । इस कारण उनमें पितरोंके लिये श्राद्ध-तर्पण करनेकी भावना ही नहीं होती । अगर लोक-लिहाजमें आकर वे श्राद्ध-तर्पण करते भी हैं, तो भी शास्‍त्रविधिके अनुसार उनका श्राद्ध-तर्पणमें अधिकार न होनेसे वह पिण्ड-पानी पितरोंको मिलता ही नहीं । इस तरह जब पितरोंको आदरबुद्धिसे और शास्‍त्रविधिके अनुसार पिण्ड-जल नहीं मिलता, तब उनका अपने स्थानसे पतन हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒पितरोंमें एक आजान’ पितर होते हैं और एक मर्त्य’ पितर । पितरलोकमें रहनेवाले पितर आजान’ हैं और मनुष्यलोकसे मरकर गये पितर मर्त्य’ हैं । श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे मर्त्य पितरोंका पतन होता है । पतन उन्हीं मर्त्य पितरोंका होता है, जो कुटुम्बसे, सन्तानसे सम्बन्ध रखते हैं और उनसे श्राद्ध-तर्पणकी आशा रखते हैं ।

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सूक्ष्म विषय‒वर्णसंकरकारक दोषोंसे कुलधर्मों और जातिधर्मोंका नाश होनेका कथन ।

        दोषैरेतैः     कुलघ्‍नानां      वर्णसङ्करकारकैः ।

    उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्‍च शाश्‍वताः ॥ ४३ ॥

एतैः = इन

कुलधर्माः = कुलधर्म

वर्णसङ्करकारकैः = वर्णसंकर पैदा करनेवाले

च = और

दोषैः = दोषोंसे

जातिधर्माः = जातिधर्म

कुलघ्‍नानाम् = कुलघातियोंके

उत्साद्यन्ते = नष्‍ट हो जाते हैं ।

 

शाश्‍वताः = सदासे चलते आये

 

व्याख्यादोषैरेतैः कुलघ्‍नानाम्‌..........कुलधर्माश्‍च शाश्‍वताः’युद्धमें कुलका क्षय होनेसे कुलके साथ चलते आये कुलधर्मोंका भी नाश हो जाता है । कुलधर्मोंके नाशसे कुलमें अधर्मकी वृद्धि हो जाती है । अधर्मकी वृद्धिसे स्‍त्रियाँ दूषित हो जाती हैं । स्‍त्रियोंके दूषित होनेसे वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं । इस तरह इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलका नाश करनेवालोंके जातिधर्म (वर्णधर्म) नष्‍ट हो जाते हैं ।

कुलधर्म और जातिधर्म क्या हैं ? एक ही जातिमें एक कुलकी जो अपनी अलग-अलग परम्पराएँ हैं, अलग-अलग मर्यादाएँ हैं, अलग-अलग आचरण हैं, वे सभी उस कुलके कुलधर्म’ कहलाते हैं । एक ही जातिके सम्पूर्ण कुलोंके समुदायको लेकर जो धर्म कहे जाते हैं, वे सभी जातिधर्म’ अर्थात् वर्णधर्म’ कहलाते हैं, जो कि सामान्य धर्म हैं और शास्‍त्रविधिसे नियत हैं । इन कुलधर्मोंका और जातिधर्मोंका आचरण न होनेसे ये धर्म नष्‍ट हो जाते हैं ।

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सूक्ष्म विषय‒नष्‍ट हुए कुलधर्मोंवाले मनुष्योंका नरकोंमें वास होनेका कथन ।

       उत्सन्‍नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।

       नरकेऽनियतं   वासो  भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४४ ॥

जनार्दन = हे जनार्दन !

वासः = वास

उत्सन्‍नकुलधर्माणाम् = जिनके कुलधर्म नष्‍ट हो जाते हैं,

भवति = होता है,

मनुष्याणाम् = (उन) मनुष्योंका

इति = ऐसा (हम)

अनियतम् = बहुत कालतक

अनुशुश्रुम = सुनते आये हैं ।

नरके = नरकोंमें

 

व्याख्याउत्सन्‍नकुलधर्माणाम्..........अनुशुश्रुम

१.शोकाविष्‍ट होनेके कारण ही अर्जुनने यहाँ अनुशुश्रुम’ परोक्ष लिट्की क्रियाका प्रयोग किया है ।

भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक दिया है, नया कर्म करनेका अधिकार दिया है । अतः यह कर्म करनेमें अथवा न करनेमें, अच्छा करनेमें अथवा मन्दा करनेमें स्वतन्त्र है । इसलिये इसको सदा विवेक-विचारपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने चाहिये । परन्तु मनुष्य सुखभोग आदिके लोभमें आकर अपने विवेकका निरादर कर देते हैं और राग-द्वेषके वशीभूत हो जाते हैं, जिससे उनके आचरण शास्‍त्र और कुलमर्यादाके विरुद्ध होने लगते हैं । परिणामस्वरूप इस लोकमें उनकी निन्दा, अपमान, तिरस्कार होता है और परलोकमें दुर्गति, नरकोंकी प्राप्‍ति होती है । अपने पापोंके कारण उनको बहुत समयतक नरकोंका कष्‍ट भोगना पड़ता है । ऐसा हम परम्परासे बड़े-बूढ़े गुरुजनोंसे सुनते आये हैं ।

मनुष्याणाम्'पदमें कुलघाती और उनके कुलके सभी मनुष्योंका समावेश किया गया है अर्थात् कुलघातियोंके पहले जो हो चुके हैं‒उन (पितरों)-का, अपना और आगे होनेवाले (वंश)-का समावेश किया गया है ।

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