Listen अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः
सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥ अर्थ‒यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता । कारण
कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।
व्याख्या‒[ शस्त्र आदि इस शरीरीमें विकार क्यों नहीं करते‒यह बात इस श्लोकमें कहते हैं । ] ‘अच्छेद्योऽयम्’‒शस्त्र इस शरीरीका छेदन नहीं कर सकते । इसका मतलब यह नहीं है
कि शस्त्रोंका अभाव है या शस्त्र चलानेवाला अयोग्य है,
प्रत्युत छेदनरूपी क्रिया शरीरीमें प्रविष्ट ही नहीं हो सकती,
यह छेदन होनेके योग्य ही नहीं है । शस्त्रके सिवाय मन्त्र, शाप आदिसे भी इस शरीरीका छेदन नहीं हो सकता । जैसे,
याज्ञवल्क्यके प्रश्नका उत्तर न दे सकनेके कारण उनके शापसे
शाकल्यका मस्तक कटकर गिर गया (बृहदारण्यक॰) । इस प्रकार देह तो मन्त्रोंसे,
वाणीसे कट सकता है, पर देही सर्वथा अछेद्य है । ‘अदाह्योऽयम्’‒यह शरीरी अदाह्य है; क्योंकि इसमें जलनेकी योग्यता ही नहीं है । अग्निके सिवाय मन्त्र,
शाप आदिसे भी यह देही जल नहीं सकता । जैसे,
दमयन्तीके शाप देनेसे व्याध बिना अग्निके जलकर भस्म हो गया
। इस प्रकार अग्नि, शाप आदिसे वही जल सकता है, जो जलनेयोग्य होता है । इस देहीमें तो दहन-क्रियाका प्रवेश ही
नहीं हो सकता । ‘अक्लेद्यः’‒यह देही गीला होनेयोग्य नहीं है अर्थात् इसमें गीला होनेकी योग्यता ही नहीं है
। जलसे एवं मन्त्र, शाप, ओषधि आदिसे यह गीला नहीं हो सकता । जैसे,
सुननेमें आता है कि ‘मालकोश’ रागके गाये जानेसे पत्थर भी गीला हो जाता है;
चन्द्रमाको देखनेसे चन्द्रकान्तमणि गीली हो जाती है । परन्तु
यह देही राग-रागिनी आदिसे गीली होनेवाली वस्तु नहीं है । ‘अशोष्यः’‒यह देही अशोष्य है । वायुसे इसका शोषण हो जाय, यह ऐसी वस्तु नहीं है; क्योंकि इसमें शोषण-क्रियाका प्रवेश ही नहीं होता । वायुसे तथा
मन्त्र,
शाप, ओषधि आदिसे यह देही सूख नहीं सकता । जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्रका
शोषण कर गये, ऐसे इस देहीका कोई अपनी शक्तिसे शोषण नहीं कर सकता । ‘एव च’‒अर्जुन नाशकी सम्भावनाको लेकर शोक कर रहे थे । इसलिये शरीरीको
अच्छेद्य,
अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान् ‘एव च’ पदोंसे विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है ।
इसमें किसी भी क्रियाका प्रवेश नहीं होता । अतः यह शरीरी शोक करनेयोग्य है ही नहीं
। ‘नित्यः’‒यह देही नित्य-निरन्तर रहनेवाला है । यह किसी कालमें नहीं था और किसी कालमें नहीं
रहेगा‒ऐसी बात नहीं है; किन्तु यह सब कालमें नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला
है । ‘सर्वगतः’‒यह देही सब कालमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है, तो यह किसी देशमें रहता होगा ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति,
वस्तु, शरीर आदिमें एकरूपसे विराजमान है । ‘अचलः’‒यह सर्वगत है, तो यह कहीं आता-जाता भी होगा ? इसपर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाववाला है अर्थात् इसमें
कभी यहाँ और कभी वहाँ‒इस प्रकार आने-जानेकी क्रिया नहीं है । ‘स्थाणुः’‒यह स्थिर स्वभाववाला है, कहीं आता-जाता नहीं‒यह बात ठीक है, पर इसमें कम्पन तो होता होगा ? जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है,
कहीं भी आता-जाता नहीं, पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है,
ऐसे ही इस देहीमें भी हिलनेकी क्रिया होती होगी
? इसके उत्तरमें कहते हैं कि
यह देही स्थाणु है अर्थात् इसमें हिलनेकी क्रिया नहीं है । ‘सनातनः’‒यह देही अचल है, स्थाणु है‒यह बात तो ठीक है, पर यह कभी पैदा भी होता होगा ? इसपर कहते हैं कि यह सनातन है,
अनादि है, सदासे है । यह किसी समय नहीं था,
ऐसा सम्भव ही नहीं है । विशेष बात यह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहनेवाला नहीं है । परन्तु जो सदा रहनेवाला
है,
जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता,
उस देहीकी तरफ लक्ष्य करानेमें ‘नित्यः’ पदका तात्पर्य है । देखने, सुनने, पढ़ने, समझनेमें जो कुछ प्राकृत संसार आता है,
उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है,
उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें ‘सर्वगतः’
पदका तात्पर्य है । संसारमात्रमें जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब-के-सब चलायमान हैं । उन चलायमान वस्तु,
व्यक्ति, पदार्थ आदिमें जो अपने स्वरूपसे कभी चलायमान (विचलित) नहीं होता,
उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ‘अचलः’ पदका तात्पर्य है । प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें प्रतिक्षण क्रिया होती
रहती है,
परिवर्तन होता रहता है । ऐसे परिवर्तनशील संसारमें जो क्रियारहित,
परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाववाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें ‘स्थाणुः’
पदका तात्पर्य है । मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा ये
पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे । परन्तु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट
ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा‒उस तत्त्व (देही)-की तरफ लक्ष्य करानेमें ‘सनातनः’
पदका तात्पर्य है । उपर्युक्त पाँचों विशेषणोंका तात्पर्य है कि शरीर-संसारके साथ
तादात्म्य होनेपर भी और शरीर-शरीरीभावका अलग-अलग अनुभव न होनेपर भी शरीरी नित्य-निरन्तर
एकरस,
एकरूप रहता है । परिशिष्ट भाव‒‘सर्वगतः’
स्वयं देहगत नहीं है, प्रत्युत सर्वगत है‒ऐसा अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है । जैसे शरीर संसारमें बैठा
हुआ है,
ऐसे हम शरीरमें बैठे हुए नहीं हैं । शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है
ही नहीं, होगा
ही नहीं, हो
सकता ही नहीं । शरीर हमारेसे बहुत दूर है । परन्तु कामना-ममता-तादात्म्यके कारण हमें
शरीरके साथ एकता प्रतीत होती है । वास्तवमें शरीरीको शरीरकी जरूरत ही नहीं है । शरीरके बिना भी
शरीरी मौजसे रहता है । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जड़ वस्तु शरीरीमें कोई भी विकार उत्पन्न
नहीं कर सकती; क्योंकि
शरीरी स्वतः-स्वाभाविक निर्विकार है । निर्विकारता इसका स्वरूप है । शरीरी सर्वगत है, शरीरगत नहीं । जो चौरासी लाख योनियोंसे
होकर आया, वह
शरीरगत कैसे हो सकता है ? जो सर्वगत है, वह शरीरगत (एकदेशीय) नहीं हो सकता और
जो शरीरगत है, वह
सर्वगत नहीं हो सकता । രരരരരരരരരര अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि
॥ २५ ॥ अर्थ‒यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता,
यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है । अतः
इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये ।
व्याख्या‒‘अव्यक्तोऽयम्’‒जैसे शरीर-संसार स्थूलरूपसे देखनेमें आता है,
वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है;
क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है । ‘अचिन्त्योऽयम्’‒मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते,
पर चिन्तनमें आते ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं ।
परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है । ‘अविकार्योऽयमुच्यते’‒यह देही विकाररहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किंचिन्मात्र
भी परिवर्तन नहीं होता । सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है । परन्तु इस देहीमें
किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है । यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य,
अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य‒इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य,
सर्वगत, स्थाणु और सनातन‒इन चार विशेषणोंके द्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया
है । परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है । जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते
हैं,
उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं
? अतः इस देहीका ऐसा अनुभव करना
ही इसका वर्णन करना है । ‘तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमहर्सि’‒इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो
ही नहीं सकता । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒साधकका स्वरूप अव्यक्त है; परन्तु शरीररूपसे वह
अपनेको व्यक्त मानता है‒यह साधककी मूल भूल है । इस भूलका प्रायश्चित्त करनेके
लिये तीन बातें हैं‒(१) साधक अपनी भूलको स्वीकार करे कि अपनेको शरीर मानकर मैंने
भूल की, (२) साधक अपनी भूलका पश्चात्ताप करे
कि साधक होकर मैंने ऐसी भूल की और (३) साधक यह निश्चय करे कि अब आगे मैं कभी ऐसी भूल
नहीं करूँगा । शरीरी (सत्-तत्त्व)-का अनुभव तो किया जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता । उसका जो भी वर्णन या चिन्तन किया जाता है, वह वास्तवमें प्रकृतिका ही होता है । एक बार शरीरीका अनुभव होनेपर फिर मनुष्य सदाके लिये शोकरहित हो जाता है । രരരരരരരരരര |