।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपीछेके दो श्‍लोकोंमें पक्षान्तरकी बात कहकर अब भगवान्‌ आगेके श्‍लोकमें बिलकुल साधारण दृष्‍टिकी बात कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयशरीरोंकी अनित्यताका वर्णन ।

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।

         अव्यक्तनिधनान्येव   तत्र   का   परिदेवना ॥ २८ ॥

अर्थ‒हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं । अतः इसमें शोक करनेकी  बात ही क्या है ?

भारत = हे भारत !

व्यक्तमध्यानि, एव = केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं । (अतः)

भूतानि = सभी प्राणी

तत्र = इसमें

अव्यक्तादीनि = जन्मसे पहले अप्रकट थे (और)

परिदेवना = शोक करनेकी

अव्यक्तनिधनानि = मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे,

का = बात ही क्या है ?

व्याख्याअव्यक्तादीनि भूतानिदेखने, सुनने और समझनेमें आनेवाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब-के-सब जन्मसे पहले अप्रकट थे अर्थात् दीखते नहीं थे ।

अव्यक्तनिधनान्येवये सभी प्राणी मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होनेपर ये सभी नहींमें चले जायँगे, दीखेंगे नहीं ।

व्यक्तमध्यानिये सभी प्राणी बीचमें अर्थात् जन्मके बाद और मृत्युके पहले प्रकट दिखायी देते हैं । जैसे सोनेसे पहले भी स्वप्‍न नहीं था और जगनेपर भी स्वप्‍न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियोंके शरीरोंका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा । परन्तु बीचमें भावरूपसे दीखते हुए भी वास्तवमें इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है ।

तत्र का परिदेवनाजो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह बीचमें भी नहीं होतायह सिद्धान्त है

१.आदावन्ते च यन्‍नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा ।

(माण्डूक्यकारिका ४ । ३१)

सभी प्राणियोंके शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अतः वास्तवमें वे बीचमें भी नहीं हैं । परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अतः वह बीचमें भी रहेगा ही । निष्कर्ष यह निकला कि शरीरोंका सदा अभाव है और शरीरीका कभी भी अभाव नहीं है । इसलिये इन दोनोंके लिये शोक नहीं हो सकता ।

परिशिष्‍ट भावजो आदि और अन्तमें नहीं है, उसका नहीं-पना नित्य-निरन्तर है तथा जो आदि और अन्तमें है, उसका है-पना नित्य-निरन्तर है । जिसका नहीं-पना नित्य-निरन्तर है, वह असत्‌ (शरीर) है और जिसका है-पना नित्य-निरन्तर है, वह सत्‌ (शरीरी) है । असत्‌के साथ हमारा नित्यवियोग है और सत्‌के साथ हमारा नित्ययोग है ।

.() यस्तु यस्यादिरन्तश्‍च स वै मध्यं च तस्य सन् ।

(श्रीमद्भा ११ । २४ । १७)

जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वही सत्य है ।

() आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं कालश्‍च हेतुश्‍च तदेव मध्ये ॥

(श्रीमद्भा ११ । २८ । १८)

इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही परमात्मा बीचमें भी है ।

() न यत् पुरस्तादुत यन्‍न पश्‍चान्मध्ये च तन्‍न व्यपदेशमात्रम् ।

(श्रीमद्भा ११ । २८ । २१)

जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके बाद भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं, केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याशरीरी स्वयं अविनाशी है, शरीर विनाशी है । स्थूलदृष्‍टिसे केवल शरीरोंको ही देखें तो वे जन्मसे पहले भी हमारे साथ नहीं थे और मरनेके बाद भी वे हमारे साथ नहीं रहेंगे । वर्तमानमें वे हमारे साथ मिले हुए-से दीखते हैं, पर वास्तवमें हमारा उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । इस तरह मिले हुए और बिछुड़नेवाले प्राणियोंके लिये शोक करनेसे क्या लाभ ?

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