।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् शरीरीकी अलौकिकताका वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषयशरीरीकी अलौकिकताका वर्णन ।

आश्‍चर्यवत्पश्यति कश्‍चिदेन

                माश्‍चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।

 आश्‍चर्यवच्‍चैनमन्यः शृणोति

                         श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्‍चित् ॥ २९ ॥

अर्थ‒कोई इस शरीरीको आश्‍चर्यकी तरह देखता (अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्‍चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्‍चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय है ।

कश्‍चित् = कोई

अन्यः = अन्य (कोई)

एनम् = इस शरीरीको

एनम् = इसको

आश्‍चर्यवत् = आश्‍चर्यकी तरह

आश्‍चर्यवत् = आश्‍चर्यकी तरह

पश्यति = देखता (अनुभव करता) है

शृणोति = सुनता है

च = और

च = और

तथा = वैसे

एनम् = इसको

एव = ही

श्रुत्वा = सुनकर

अन्यः = दूसरा (कोई)

अपि = भी

आश्‍चर्यवत् = (इसका) आश्‍चर्यकी तरह

कश्‍चित्, एव = कोई

वदति = वर्णन करता है

न = नहीं

च = तथा

वेद = जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय है ।

व्याख्याआश्‍चर्यवत्पश्यति कश्‍चिदेनम्इस देहीको कोई आश्‍चर्यकी तरह जानता है । तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जाननेमें आती हैं, वैसे इस देहीका जानना नहीं होता । कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे (यहकरके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं, पर यह देही इन्द्रिय-मन-बुद्धिका विषय नहीं है । इसको तो स्वयंसे, अपने-आपसे ही जाना जाता है । अपने-आपसे जो जानना होता है, वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता, प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है ।

पश्यति पदके दो अर्थ होते हैंनेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना । यहाँ पश्यति पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीतादूसरे अध्यायका पचपनवाँ, छठे अध्यायका बीसवाँ आदि) ।

जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है, वहाँ द्रष्‍टा (देखनेवाला), दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति)यह त्रिपुटी होती है । इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखनाजानना होता है । परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती अर्थात् स्वयंका ज्ञान करण-सापेक्ष नहीं है । स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करण-निरपेक्ष है । जैसे, ‘मैं हूँ’‒ऐसा जो अपने होनेपनका ज्ञान है, इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है । इस अपने होनेपनको इदंतासे अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते । इसका ज्ञान अपने-आपको ही होता है । यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है । इसलिये स्वयंको (अपने-आपको) जानना आश्‍चर्यकी तरह होता है ।

जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं, तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे, तब उसको लायेंगे । परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे, तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी; क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है । वह अपने-आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है । ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है । अतः यह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानता है ।

स्थूल, सूक्ष्म और कारणये तीन शरीर हैं । अन्‍न-जलसे बना हुआ स्थूलशरीरहै । यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है । इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धिइन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ सूक्ष्मशरीरहै । यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है, प्रत्युत बुद्धिका विषय है । जो बुद्धिका भी विषय नहीं है, जिसमें प्रकृतिस्वभाव रहता है, वह कारणशरीरहै । इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है; क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है । सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है; अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है । कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है, पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है, अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है । यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब यह अपने-आपसे अपने-आपको जान लेता है । यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है, इसलिये इसको आश्‍चर्यवत् पश्यति कहा गया है ।

यहाँ भगवान्‌ने कहा है कि अपने-आपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता हैकश्‍चित् और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता हैकश्‍चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः । इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है, दुर्लभ है । परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है; प्रत्युत इस तत्त्वको सच्‍चे हृदयसे जाननेवालेकी, इस तरफ लगनेवालेकी कमी है । यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है ।

आश्‍चर्यवद्वदति तथैव चान्यःऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्‍चर्यकी तरह वर्णन करता है; क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है । जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है, वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है ? जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है, वह तो शाखा-चन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है, जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय । अतः इसका वर्णन आश्‍चर्यकी तरह ही होता है ।

यहाँ जो अन्यः पद आया है, उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है, उससे यह कहनेवाला अन्य है; क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं, वह वर्णन क्या करेगा ? अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं, उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है । कारण कि सब-के-सब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते । उसकी शंकाओंका, तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते । अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है ।

आश्‍चर्यवच्‍चैनमन्यः शृणोतिदूसरा कोई इस देहीको आश्‍चर्यकी तरह सुनता है । तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्‍त्रोंकी, लोक-लोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है, उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है । कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है, वह सब-का-सब इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिका विषय है; परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है, प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है । अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्‍चर्यकी तरह सुनता है ।

यहाँ अन्यः पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवालाइन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है ।

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्‍चित्इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया, तो अब वह जानेगा ही नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता । सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानेगा

१.अपने-आपसे ही अपनेको जाननेकी बात गीतामें कई जगह आयी है; जैसे

() आत्मन्येवात्मना तुष्‍टः स्थितप्रज्ञस्तदोव्यते ।  (२ । ५५)

() यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्‍तश्‍च मानवः ।

      आत्मन्येव च संतुष्‍टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥  (३ । १७)

() यत्र चैवात्मनात्मान पश्यन्‍नात्मनि तुष्यति ॥ (६ । २०)

() यतन्तो योगिनश्‍चैन पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । (१५ । ११)

यहाँ कोई कहे कि शास्‍त्रों और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है, फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता’‒ऐसा कैसे कहा गया है ? इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्‍त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्‍त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते; किन्तु साधक स्वयं ही शास्‍त्र और गुरुपर श्रद्धा-विश्‍वास करता है, स्वयं ही उनके सम्मुख होता है । अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता, तो आजतक भगवान्‌के बहुत अवतार हुए हैं, बड़े-बड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं, उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था । अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था ! पर ऐसा देखनेमें नहीं आता । श्रद्धा-विश्‍वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है, पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है । अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं, प्रत्युत उसे करण-निरपेक्ष बतानेमें है । मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्‍न क्यों न करे, पर अन्तमें अपने-आपसे ही अपने-आपको जानेगा । श्रवण, मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष (अपने-आपसे) ही होता है ।

अपने-आपसे अपने-आपको जानना क्या होता है ? एक होता है करना, एक होता है देखना और एक होता है जानना । करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी, देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है ।

ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता, प्रत्युत देखना होता है, जो कि व्यवहारमें उपयोगी है । स्वयंके द्वारा जो जानना होता है, वह दो तरहका होता हैएक तो शरीर-संसारके साथ मेरी सदा भिन्‍नता है और दूसरा, परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्‍नता है । दूसरे शब्दोंमें, परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है । ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है । उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता । वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है ।

परिशिष्‍ट भावशरीरीको सुननेमात्रसे अर्थात् अभ्यासके द्वारा नहीं जान सकते, पर जिज्ञासापूर्वक तत्त्वज्ञ, अनुभवी महापुरुषोंसे सुनकर जान सकते हैंयततामपि सिद्धानां कश्‍चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः’ (गीता ७ । ३) । आश्‍चर्यवद्वदति तथैव चान्यः कहनेका तात्पर्य है कि तत्त्वका अनुभव करनेवालोंमें भी वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है । सब-के-सब अनुभव करनेवाले उसका वर्णन नहीं कर सकते ।

जैसे संसारमें सुननेमात्रसे विवाह नहीं होता, प्रत्युत स्‍त्री और पुरुष एक-दूसरेको पति-पत्‍नीरूपसे स्वीकार करते हैं, तब विवाह होता है, ऐसे ही सुननेमात्रसे परमात्मतत्त्वको कोई भी नहीं जान सकता, प्रत्युत सुननेके बाद जब स्वयं उसको स्वीकार करेगा अथवा उसमें स्थित होगा, तब स्वयंसे उसको जानेगा । अतः सुननेमात्रसे मनुष्य ज्ञानकी बातें सीख सकता है, दूसरोंको सुना सकता है, लिख सकता है, व्याख्यान दे सकता है, विवेचन कर सकता है, पर अनुभव नहीं कर सकता ।

परमात्मतत्त्वको केवल सुननेमात्रसे नहीं जान सकते, प्रत्युत सुनकर उपासना करनेसे जान सकते हैंश्रुत्वान्येभ्य उपासते...... (गीता १३ । २५) । अगर परमात्मतत्त्वका वर्णन करनेवाला अनुभवी हो और सुननेवाला श्रद्धालु तथा जिज्ञासु हो तो तत्काल भी ज्ञान हो सकता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यायह शरीरी इतना विलक्षण है कि इसका अनुभव भी आश्‍चर्यजनक होता है, वर्णन भी आश्‍चर्यजनक होता है और इसका वर्णन सुनना भी आश्‍चर्यजनक होता है । परन्तु शरीरीका अनुभव सुननेमात्रसे अर्थात् अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत स्वीकार करनेसे होता है । इसका उपाय हैचुप होना, शान्त होना, कुछ न करना ।

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