।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धकिसी बातको पुष्‍ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्‍ट किया जाता है । यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्‍ट करना चाहते हैं; अतः पीछेके तीन श्‍लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्‍लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं ।

सूक्ष्म विषयअर्जुनको निष्काम होनेके लिये आज्ञा देना ।

      त्रैगुण्यविषया   वेदा    निस्‍त्रैगुण्यो   भवार्जुन ।

      निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥

अर्थ‒वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन ! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जा, निरन्तर नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा ।

वेदाः = वेद

निर्द्वन्द्वः = राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित (हो जा),

त्रैगुण्यविषयाः = तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं;

नित्यसत्त्वस्थः = (निरन्तर) नित्य वस्तु परमात्मामें स्थित (हो जा),

अर्जुन = हे अर्जुन ! (तू)

निर्योगक्षेमः = योगक्षेमकी चाहना भी मत रख (और)

निस्‍त्रैगुण्यः = तीनों गुणोंसे रहित

आत्मवान् = परमात्मपरायण (हो जा) ।

भव = हो जा,

 

व्याख्यात्रैगुण्यविषया वेदाःयहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोंके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है ।

यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है । जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है । ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं । वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है । वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्‍तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है ।

निस्‍त्रैगुण्यो भवार्जुनहे अर्जुन ! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा ।

निर्द्वन्द्वःसंसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीतातीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा ।

१.एक ही विषयमें, एक ही वस्तुमें दो भाव कर लेनाद्वन्द्वहै । परन्तु जहाँ विषय, वस्तु अलग-अलग होते हैं, वहाँ द्वन्द्व नहीं होता; जैसे‒‘प्रकृतिऔरपुरुष’, ‘जडऔरचेतन’‒इन दोनोंको अलग-अलग समझना द्वन्द्व नहीं है । ऐसे ही संसारसे विमुख होकर भगवान्‌के सम्मुख हो जाना द्वन्द्व नहीं है । परन्तु केवल संसारमें ही दो भाव (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि) हो जायँ, तो यह द्वन्द्व हो जाता है और इसी द्वन्द्वमें मनुष्य फँसता है ।

यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं ? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है (गीतासातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) । जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीतासातवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्‍लोक) । निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीतापाँचवें अध्यायका तीसरा श्‍लोक) । निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीतापन्द्रहवें अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) । निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीताचौथे अध्यायका बाईसवाँ श्‍लोक) । तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है । इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं ।

दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा, तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगायह नियम है । ऐसा होनेपर भगवान्‌की उपेक्षा हो जायगीयह भी एक प्रकारका द्वेष है । परन्तु जब साधकका भगवान्‌में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी । उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी । उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी । उपरतिमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं । इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं, उदासीनतामें राग-द्वेषकी सत्ता रहती है, और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है ।

नित्यसत्त्वस्थःद्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह ।

निर्योगक्षेमःतू योग और क्षेमकी इच्छा भी मत रख; क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीतानवें अध्यायका बाईसवाँ श्‍लोक) ।

२.अप्राप्‍त वस्तुकी प्राप्‍तिका नाम योग है और प्राप्‍त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है ।

३.यद्यपि यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है, तथापि यहाँ निर्योगक्षेमः पद भक्तियोगका वाचक मानना ठीक मालूम देता है । कारण कि भगवान्‌ने अर्जुनको जगह-जगह भक्त होनेके लिये आज्ञा दी है और अर्जुनको भक्तरूपसे स्वीकार भी किया है (४ । ३) । भगवान्‌ने अपनेको भक्तोंका योग-क्षेम वहन करनेवाला भी बताया है (९ । २२)

आत्मवान्तू केवल परमात्माके परायण हो जा । एक परमात्मप्राप्‍तिका ही लक्ष्य रख ।

परिशिष्‍ट भावनिर्द्वन्द्वःवास्तवमें जड़-चेतन, सत्‌-असत्‌, नित्य-अनित्य, नाशवान्-अविनाशी आदिका भेद भी द्वन्द्व है । योग और क्षेमकी चाहना भी द्वन्द्व है । द्वन्द्व होनेसे सब कुछ भगवान् ही हैं’‒इस वास्तविकताका अनुभव नहीं होता । कारण कि जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर जड़-चेतन आदिका द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? इसलिये भगवान्‌ने अमृत और मृत्यु, सत्‌ और असत्‌ दोनोंको अपना स्वरूप बताया हैअमृतं चैव मृत्युश्‍च सदसच्‍चाहमर्जुन (गीता ९ । १९) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभगवान् अर्जुनको आज्ञा देते हैं कि वेदोंके जिस अंशमें सकामभावका वर्णन है, उसका त्याग करके तू निष्कामभावको ग्रहण कर । निष्कामभावसे तू तीनों गुणोंसे अतीत (जन्म-मरणसे रहित) हो जायगा । मिलने और बिछुड़नेवाले संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके तू नित्य रहनेवाली चिन्मय सत्तामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव कर । योग (अप्राप्त वस्तुकी प्राप्‍ति) और क्षेम (प्राप्‍त वस्तुकी रक्षा)-की कामनाका भी त्याग कर दे; क्योंकि कामनामात्र बन्धनकारक है ।

पहले बयालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि जो मनुष्य ‘वेदवादरताः’ (वेदोक्त सकाम कर्मोंमें रुचि रखनेवाले) होते हैं, उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती, कारण कि व्यवसायात्मिका बुद्धिके लिये निष्काम होना आवश्यक है । वेद तीनों गुणोंके कार्यका वर्णन करनेवाले हैं, इसलिये भगवान् अर्जुनको तीनों गुणोंसे रहित होनेकी आज्ञा देते हैं‘निस्त्‍त्रैगुण्यो भवार्जुन’

वेदोक्‍त सकाम अनुष्ठानोंको करनेवाले मनुष्योंको योगक्षेमकी प्राप्‍ति नहीं होती और वे संसार-चक्रमें पड़े रहते हैंएवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्‍ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९ । २१) । संसार-चक्रमें पड़नेका कारण वेद नहीं हैं, प्रत्युत कामना है ।

भगवत्परायण साधकको भोग व संग्रहकी कामना तो दूर रही, योगक्षेमकी भी कामना नहीं करनी चाहिये । इसलिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू मेरे परायण होकर योगक्षेमकी भी कामनाका त्याग कर दे अर्थात् सांसारिक अथवा पारमार्थिक कोई भी कामना न रखकर सर्वथा निष्काम हो जा ।

भगवान्‌के समान दयालु कोई नहीं है । वे कहते हैं कि भक्तोंका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९ । २२) मैं उनके साधनकी सम्पूर्ण विघ्‍न-बाधाओंको भी दूर कर देता हूँ‘मच्‍चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (१८ । ५८) और उनका उद्धार भी कर देता हूँ‘तेषामहं समुद्धर्ता (१२ । ७) अतः भगवान्‌के भजनमें लगे हुए साधकको अपने साधन तथा उद्धारके विषयमें कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।

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