Listen भोगैश्वर्यप्रसक्तानां
तयापहृतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका
बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥ अर्थ‒उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी
तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती
।
व्याख्या‒‘तयापहृतचेतसाम्’‒पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है,
उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा
भारी सुख है, दिव्य नन्दनवन है, अप्सराएँ हैं, अमृत है‒ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है । ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’‒शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध‒ये पाँच विषय, शरीरका आराम, मान और नामकी बड़ाई‒इनके द्वारा सुख लेनेका नाम ‘भोग’ है । भोगोंके लिये पदार्थ, रुपये-पैसे, मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है,
उसका नाम ‘ऐश्वर्य’ है । इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है,
प्रियता है, खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है,
उनको ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’ कहा गया है । जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं,
वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं । कारण कि ‘असु’ नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं,
उन प्राणपोषण-परायण लोगोंका नाम ‘असुर’ है । वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना
चाहते हैं१ । १.यहाँ जिन राजसी मनुष्योंका वर्णन हो रहा है, उनको भगवान्ने सोलहवें अध्यायमें आसुरी
सम्पत्तिवालोंके प्रकरणमें ‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः’ (१६ । ११ ), ‘प्रसक्ताः कामभोगेषु’ (१६ । १६) आदि पदोंसे कहा है । अतः जो केवल भोग भोगना चाहते हैं, वे आसुरी सम्पत्तिवाले ही हैं । ‘व्यवसायात्मिका
बुद्धिः समाधौ न विधीयते’‒जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है,
जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है,
उस परमात्माको ही प्राप्त करना है‒ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती । तात्पर्य
यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं, जो भोग भोगे जा सकते हैं, जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते
हैं, उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है,
उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी
तरफ चलना है‒ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता । ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं,
कलाओं आदिका जो संग्रह है, उससे ‘मैं विद्वान् हूँ’,
‘मैं जानकार हूँ’‒ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है,
उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं
होता । विशेष बात परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक
ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है, जिससे वह सुख-दुःखसे ऊँचा उठ जाय, अपना
उद्धार कर ले, सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले ! इसीमें
मनुष्य-शरीरकी सार्थकता है । परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त
हो जाना पशुबुद्धि है । कारण कि पशु-पक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं,
ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशु-पक्षियोंमें और
मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहा ? पशु-पक्षी तो भोगयोनि है; अतः उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है । परन्तु मनुष्यजन्म
तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है,
भोग भोगनेके लिये नहीं । इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थिति आती है, वह सब साधन-सामग्री है, भोग-सामग्री नहीं । जो उसको भोग-सामग्री मान लेते हैं,
उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती । वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं
देते,
प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्त्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ
है,
वही बाधा देता है । भोग उतना नहीं
अटकाते, जितना भोगोंका महत्त्व अटकाता है । अटकानेमें अपनी
रुचि, नीयतकी
प्रधानता है । भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे, तो
परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही, उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता । कारण
कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है, वहीं भोगोंकी रुचि भी है । जबतक भोग और संग्रहमें, मान-बड़ाई-आराममें रुचि है, तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं
लग सकता; क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया;
उसकी जो शक्ति थी, वह भोग और संग्रहमें लग गयी । परिशिष्ट भाव‒अपने कल्याणमें अगर कोई बाधा है तो वह है‒भोग और ऐश्वर्य (संग्रह)-की इच्छा । जैसे जालमें फँसी हुई मछली
आगे नहीं बढ़ सकती, ऐसे ही भोग और संग्रहमें फँसे हुए मनुष्यकी दृष्टि परमात्माकी
तरफ बढ़ ही नहीं सकती । इतना ही नहीं, भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिका निश्चय
भी नहीं कर सकता । जो संसारको सच्चा मानता है, उसके लिये कर्मयोग शीघ्र सिद्धि देनेवाला है । कर्मयोगी अपने
कर्तव्य कर्मोंके द्वारा संसारकी सेवा करता है अर्थात् प्रत्येक कर्म निष्कामभावसे
केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है । वह दूसरोंके सुखसे प्रसन्न (सुखी) और दूसरोंके
दुःखसे करुणित (दुःखी) होता है । दूसरोंको सुखी देखकर प्रसन्न
होनेसे उसमें ‘भोग’
की इच्छा नहीं रहती और दूसरोंको दुःखी देखकर करुणित
होनेसे उसमें ‘संग्रह’ की
इच्छा नहीं रहती२ । २.वास्तवमें असली
सेवा त्यागीके द्वारा ही होती है अर्थात् भोग और संग्रहकी इच्छा सर्वथा मिटनेसे ही
असली सेवा होती है, अन्यथा नकली सेवा होती है । परन्तु उद्देश्य असली (सबके हितका) होनेसे नकली सेवा भी असलीमें बदल जाती है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भोग और ऐश्वर्य (संग्रह)-की
आसक्ति कल्याणमें मुख्य बाधक है । सांसारिक भोगोंको भोगने तथा रुपयों
आदिका संग्रह करनेवाला मनुष्य अपने कल्याणका निश्चय भी नहीं कर सकता, फिर कल्याण करना तो
दूर रहा ! इसलिये भगवान् निष्कामभाव (योग)-का अन्वय-व्यतिरेकसे वर्णन करते हैं । രരരരരരരരരര |