Listen सम्बन्ध‒अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त क्यों
होती हैं‒इसका हेतु आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒४२—४४ श्लोकतक‒अव्यवसायी मनुष्योंकी व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेके हेतुका कथन । यामिमां
पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः
पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥ कामात्मानः
स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥ अर्थ‒हे पृथानन्दन ! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं,
स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं,
वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं,
(भोगोंके सिवाय) और कुछ है ही
नहीं‒ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त)
वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्म-फलको देनेवाली है तथा
भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन
करनेवाली है ।
व्याख्या‒‘कामात्मानः’‒वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं । उनको अपनेमें
और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती । उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी
जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी तरह जड हो जाता है,
उसको चेतना भी नहीं रहती । ऐसे भाववाले पुरुष ‘कामात्मानः’ हैं । स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है,
उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है । स्वयं परमात्माका
अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है । अतः स्वयं और कामना‒ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं । परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको
अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता । ‘स्वर्गपराः’‒स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं,
इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे
उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं । यहाँ ‘स्वर्गपराः’
पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है,
जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं
। ‘वेदवादरताः
पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः’‒वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात्
वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं,
इसलिये वे ‘वेदवादरताः’
हैं । उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और
कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा,
तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं । अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे
रहते हैं । भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है । ‘यामिमां
पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः’‒जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है,
ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन
है,
उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं । यहाँ ‘पुष्पिताम्’ कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन
करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है । तृप्ति फलसे ही होती है,
फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं । वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं
है । उस वाणीका जो फल‒स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है,
उसमें स्थायीपना नहीं है । ‘जन्मकर्मफलप्रदाम्’‒वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है;
क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्त्व दिया गया है । उन
भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता‒तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) ।
‘क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति’‒वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी
प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है,
उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें
अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं,
अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम
भी अधिक होता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका चौंबीसवाँ श्लोक) । രരരരരരരരരര |