।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धउनतालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने जिस समबुद्धिको योगमें सुननेके लिये कहा था, उसी समबुद्धिको प्राप्‍त करनेका साधन आगेके श्‍लोकमें बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयव्यवसायात्मिका बुद्धिकी एकताका और अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धिकी अनेकताका निरूपण ।

       व्यवसायात्मिका     बुद्धिरेकेह      कुरुनन्दन ।

       बहुशाखा ह्यनन्ताश्‍च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ ४१ ॥

अर्थ‒हे कुरुनन्दन ! इस (समबुद्धिकी प्राप्‍ति)-के विषयमें निश्‍चयवाली बुद्धि एक ही होती है । जिनका एक निश्‍चय नहीं है, ऐसे मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुत शाखाओंवाली ही होती हैं ।

कुरुनन्दन = हे कुरुनन्दन !

बुद्धयः = बुद्धियाँ

इह = इस (समबुद्धिकी प्राप्‍ति)-के विषयमें

अनन्ताः = अनन्त

व्यवसायात्मिका = निश्‍चयवाली

च = और

बुद्धिः = बुद्धि

बहुशाखा = बहुत शाखाओंवाली

एका = एक ही (होती है) ।

हि = ही (होती हैं) ।

अव्यवसायिनाम् = जिनका एक निश्‍चय नहीं है, ऐसे मनुष्योंकी

 

व्याख्याव्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दनकर्मयोगी साधकका ध्येय (लक्ष्य) जिस समताको प्राप्‍त करना रहता है, वह समता परमात्माका स्वरूप है । उस परमात्मस्वरूप समताकी प्राप्‍तिके लिये अन्तःकरणकी समता साधन है, अन्तःकरणकी समतामें संसारका राग बाधक है । उस रागको हटानेका अथवा परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त करनेका जो एक निश्‍चय है, उसका नाम हैव्यवसायात्मिका बुद्धि । व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों होती है ? कारण कि इसमें सांसारिक वस्तु, पदार्थ आदिकी कामनाका त्याग होता है । यह त्याग एक ही होता है, चाहे धनकी कामनाका त्याग करें, चाहे मान-बड़ाईकी कामनाका त्याग करें । परन्तु ग्रहण करनेमें अनेक चीजें होती हैं; क्योंकि एक-एक चीज अनेक तरहकी होती है; जैसेएक ही मिठाई अनेक तरहकी होती है । अतः इन चीजोंकी कामनाएँ भी अनेक, अनन्त होती हैं ।

गीतामें कर्मयोग (प्रस्तुत श्‍लोक) और भक्तियोग (नवें अध्यायका तीसवाँ श्‍लोक)-के प्रकरणमें तो व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन आया है, पर ज्ञानयोगके प्रकरणमें व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन नहीं आया । इसका कारण यह है कि ज्ञानयोगमें पहले स्वरूपका बोध होता है, फिर उसके परिणामस्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्‍चयवाली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें पहले बुद्धिका एक निश्‍चय होता है, फिर स्वरूपका बोध होता है । अतः ज्ञानयोगमें ज्ञानकी मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें एक निश्‍चयकी मुख्यता है ।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्‍च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्अव्यवसायी वे होते हैं, जिनके भीतर सकामभाव होता है, जो भोग और संग्रहमें आसक्त होते हैं । कामनाके कारण ऐसे मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और वे बुद्धियाँ भी अनन्त शाखाओंवाली होती हैं अर्थात् एक-एक बुद्धिकी भी अनन्त शाखाएँ होती हैं । जैसे, पुत्र-प्राप्‍ति करनी हैयह एक बुद्धि हुई और पुत्र-प्राप्‍तिके लिये किसी औषधका सेवन करें, किसी मन्त्रका जप करें, कोई अनुष्‍ठान करें, किसी सन्तका आशीर्वाद लें आदि उपाय उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईं । ऐसे ही धन-प्राप्‍ति करनी हैयह एक बुद्धि हुई और धन-प्राप्‍तिके लिये व्यापार करें, नौकरी करें, चोरी करें, डाका डालें, धोखा दें, ठगाई करें आदि उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईं । ऐसे मनुष्योंकी बुद्धिमें परमात्मप्राप्‍तिका निश्‍चय नहीं होता ।

परिशिष्‍ट भाववास्तविक उद्‌देश्य एक ही होता है । जबतक मनुष्यका एक उद्‌देश्य नहीं होता, तबतक उसके अनन्त उद्‌देश्य रहते हैं और एक-एक उद्‌देश्यकी अनेक शाखाएँ होती हैं । उसकी अनन्त कामनाएँ होती हैं और एक-एक कामनाकी पूर्तिके लिये उपाय भी अनेक होते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒समताकी प्राप्‍ति उसीको होती है, जिसका उद्देश्य एक होता है । अनेक उद्देश्य कामनाके कारण होते हैं ।

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