।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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परिशिष्‍ट भावसमताकी महिमा भगवान्‌ने उनतालीसवें-चालीसवें श्‍लोकोंमें चार प्रकारसे कही है

(१) कर्मबन्धं प्रहास्यसिसमताके द्वारा मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

(२) नेहाभिक्रमनाशोऽस्तिइसके आरम्भका भी नाश नहीं होता ।

(३) प्रत्यवायो न विद्यतेइसके अनुष्‍ठानका उलटा फल भी नहीं होता ।

(४) स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्इसका थोड़ा-सा भी अनुष्‍ठान जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ।

यद्यपि पहली बातके अन्तर्गत ही शेष तीनों बातें आ जाती हैं, तथापि सबमें थोड़ा अन्तर है; जैसे

(१) भगवान् पहले सामान्य रीतिसे कहते हैं कि समतासे युक्त मनुष्य कर्मबन्धनसे छूट जाता है । बन्धनका कारण गुणोंका संग अर्थात् प्रकृति और उसके कार्यसे माना हुआ सम्बन्ध है (गीतातेरहवें अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । समता आनेसे प्रकृति और उसके कार्यसे सम्बन्ध नहीं रहता; अतः मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाता है । जैसे संसारमें अनेक शुभाशुभ कर्म होते रहते हैं, पर वे कर्म हमें बाँधते नहीं; क्योंकि उन कर्मोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त मनुष्यका इस शरीरसे होनेवाले कर्मोंसे भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता ।

(२) समताका केवल आरम्भ हो जाय अर्थात् समताको प्राप्‍त करनेका उद्‌देश्य, जिज्ञासा हो जाय तो इस आरम्भका कभी नाश नहीं होता । कारण कि अविनाशीका उद्‌देश्य भी अविनाशी ही होता है, जबकि नाशवान्‌का उद्‌देश्य भी नाशवान् ही होता है । नाशवान्‌का उद्‌देश्य तो नाश (पतन) करता है, पर समताका उद्‌देश्य कल्याण ही करता हैजिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते (गीता ६ । ४४) ।

(३) समताके अनुष्‍ठानका उलटा फल नहीं होता । सकामभावसे किये जानेवाले कर्ममें अगर मन्त्रोच्‍चारण, अनुष्‍ठान-विधि आदिकी कोई त्रुटि हो जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है

.ऐसी कथा आती है कि त्वष्‍टाने इन्द्रका वध करनेवाले पुत्रकी इच्छासे एक यज्ञ किया । उस यज्ञमें ऋषियोंने इन्द्रशत्रुं विवर्धस्व इस मन्त्रके साथ हवन किया । इन्द्रशत्रु शब्दमें यदि षष्‍ठीतत्पुरुष समास हो तो इसका अर्थ होगाइन्द्रस्य शत्रुः (इन्द्रका शत्रु) और यदि बहुव्रीहि समास हो तो इसका अर्थ होगाइन्द्रः शत्रुर्यस्य (जिसका शत्रु इन्द्र है) । समासमें भेद होनेसे स्वरमें भी भेद हो जाता है । अतः षष्‍ठीतत्पुरूष समासवाले इन्द्रशत्रु शब्दका उच्‍चारण अन्त्योदात्त होगा अर्थात् अन्तिम अक्षरत्रुका उच्‍चारण उदात्त स्वरसे होगा; और बहुव्रीहि समासवालेइन्द्रशत्रुशब्दका उच्‍चारण आद्योदात्त होगा अर्थात् प्रथम अक्षरका उच्‍चारण उदात्त स्वरसे होगा । ऋषियोंका उद्‌देश्य तो षष्‍ठीतत्पुरुष समासवाले इन्द्रशत्रु शब्दका अन्त्योदात्त उच्‍चारण करना था, पर उन्होंने उसका आद्योदात्त उच्‍चारण कर दिया । इस प्रकार स्वरभेद हो जानेसे मन्त्रोच्‍चारणका फल उलटा हो गया, जिससे इन्द्र ही त्वष्‍टाके पुत्र (वृत्रासुर)-का वध करनेवाला हो गया । इसलिये कहा गया है

मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो  वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।

स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥

(पाणिनीयशिक्षा)

परन्तु जितनी समता अनुष्‍ठानमें, जीवनमें आ गयी है, उसमें अगर व्यवहार आदिकी कोई भूल हो जाय, सावधानीमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल (बन्धन) नहीं होता । जैसे, कोई हमारे यहाँ नौकरी करता हो और अँधेरेमें लालटेन जलाते समय कभी उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज होते हैं । परन्तु उस समय जो हमारा मित्र हो, जो हमारेसे कभी कुछ चाहता नहीं, उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज नहीं होते, प्रत्युत कहते हैं कि हमारे हाथसे भी तो वस्तु टूट जाती है, तुम्हारे हाथसे टूट गयी तो क्या हुआ ? कोई बात नहीं । अतः जो सकामभावसे कर्म करता है, उसके कर्मका तो उलटा फल हो सकता है, पर जो किसी प्रकारका फल चाहता ही नहीं, उसके अनुष्‍ठानका उलटा फल कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता ।

(४) समताका थोड़ा-सा भी अनुष्‍ठान हो जाय, थोड़ा-सा भी समताका भाव बन जाय तो वह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है । जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्‍ट हो जाता है, ऐसे यह थोड़ी-सी भी समता फल देकर नष्‍ट नहीं होती, प्रत्युत इसका उपयोग केवल कल्याणमें ही होता है । यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म यदि सकामभावसे किये जायँ तो उनका नाशवान् फल (धन-सम्पत्ति एवं स्वर्गादिकी प्राप्‍ति) होता है और यदि निष्कामभावसे किये जायँ तो उनका अविनाशी फल (मोक्ष) होता है । इस प्रकार यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंके तो दो-दो फल हो सकते हैं, पर समताका एक ही फलकल्याण होता है । जैसे कोई मुसाफिर चलते-चलते रास्तेमें रुक जाय अथवा सो जाय तो वह जहाँसे चला था, वहाँ पुनः लौटकर नहीं चला जाता, प्रत्युत जहाँतक वह पहुँच गया, वहाँतकका रास्ता तो कट ही गया । ऐसे ही जितनी समता जीवनमें आ गयी, उसका नाश कभी नहीं होता ।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्निष्कामभाव थोड़ा होते हुए भी सत्य है और भय महान् होते हुए भी असत्य है । जैसे मनभर रुई हो तो उसको जलानेके लिये मनभर अग्‍निकी जरूरत नहीं है । रुई एक मन हो या सौ मन, उसको जलानेके लिये एक दियासलाई पर्याप्‍त है । एक दियासलाई लगाते ही वह रुई खुद दियासलाई अर्थात् अग्‍नि बन जायगी । रुई खुद दियासलाईकी मदद करेगी । अग्‍नि रुईके साथ नहीं होगी, प्रत्युत रुई खुद ज्वलनशील होनेके कारण अग्‍निके साथ हो जायगी । इसी तरह असंगता आग है और संसार रुई है । संसारसे असंग होते ही संसार अपने-आप नष्‍ट हो जायगा; क्योंकि मूलमें संसारकी सत्ता न होनेसे उससे कभी संग हुआ ही नहीं ।

थोड़े-से-थोड़ा त्याग भी सत्‌ है और बड़ी-से-बड़ी क्रिया भी असत्‌ है । क्रियाका तो अन्त होता है, पर त्याग अनन्त होता है । इसलिये यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाएँ तो फल देकर नष्‍ट हो जाती हैं (गीताआठवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्‍लोक), पर त्याग कभी नष्‍ट नहीं होतात्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता १२ । १२) । एक अहम्‌के त्यागसे अनन्त सृष्‍टिका त्याग हो जाता है; क्योंकि अहम्‌ने ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण कर रखा है (गीतासातवें अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) ।

जैसे, कितनी ही घास हो, क्या अग्‍निके सामने टिक सकती है ? कितना ही अँधेरा हो, क्या प्रकाशके सामने टिक सकता है ? अँधेरे और प्रकाशमें लड़ाई हो जाय तो क्या अँधेरा जीत जायगा ? ऐसे ही अज्ञान और ज्ञानकी लड़ाई हो जाय तो क्या अज्ञान जीत जायगा ? महान्-से-महान् भय क्या अभयके सामने टिक सकता है ? समता थोड़ी हो तो भी पूरी है और भय महान् हो तो भी अधूरा है । स्वल्प समता भी महान् है; क्योंकि वह सच्‍ची है और महान् भय भी स्वल्प (सत्ताहीन) है; क्योंकि वह कच्‍चा है ।

समताको, निष्कामभावको स्वल्पकहनेका क्या तात्पर्य है ? निष्कामभाव तो महान् है, पर हमारी समझमें, हमारे अनुभवमें थोड़ा आनेसे उसको स्वल्प कह दिया है । वास्तवमें समझ थोड़ी हुई, समता थोड़ी नहीं हुई । उधर हमारी दृष्‍टि कम गयी है तो हमारी दृष्‍टिमें कमी है, तत्त्वमें कमी नहीं है । इसी तरह हमने असत्‌को ज्यादा आदर दे दिया तो असत्‌ महान् नहीं हुआ, प्रत्युत हमारा आदर महान् हुआ । इसलिये अगर हम सत्‌का अधिक आदर करें तो सत्‌ महान् हो जायगा अर्थात् उसकी महत्ताका अनुभव हो जायगा, और असत्‌का आदर न करें तो असत्‌ स्वल्प हो जायगा । वास्तवमें असत्‌ महान् हो या स्वल्प, उसकी सत्ता ही नहीं हैनासतो विद्यते भावः और सत्‌ महान् हो या स्वल्प, उसकी सत्ता नित्य-निरन्तर विद्यमान हैनाभावो विद्यते सतः इसलिये उपनिषदोंमें परमात्मतत्त्वको अणुसे भी अणु और महान्‌से भी महान् कहा गया हैअणोरणीयान् महतो महीयान् (कठ १ । २ । २०; श्‍वेताश्‍वतर ३ । २०) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभगवानने चार प्रकारमे समताकी महिमा कही है(१) समतासे मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाता है (२) समताके आरम्भ अर्थात् उद्देश्यका भी कभी नाश नहीं होता (३) समताके अनुष्ठानमें यदि कोई भूल हो जाय तो उसका उल्टा फल नहीं होता, और (४) समताका थोड़ा-सा भी भाव हो जाय तो वह कल्याण कर देता है । जीवनमें थोड़ी भी समता आ जाय तो उसका नाश नहीं होता । भय कितना ही महान् हो, उसका नाश हो जाता है ।

असत्‌को सत्ता तथा महत्ता देनेसे महान् समता भी स्वल्प हो जाती है और स्वल्प भय भी महान् हो जाता है । यदि हम असत्‌को सत्ता तथा महत्ता न दें तो समता महान् और भय स्वल्प (नष्ट) हो जाता है ।

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