Listen सूक्ष्म विषय‒समबुद्धिके अनुष्ठानकी महिमा । नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥ अर्थ‒मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता तथा
इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप
महान् भयसे रक्षा कर लेता है ।
व्याख्या‒‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’‒इस समबुद्धि (समता)-का केवल आरम्भ ही हो जाय,
तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता । मनमें समता प्राप्त करनेकी
जो लालसा,
उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है । इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता;
क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है । यहाँ ‘इह’
कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको
प्राप्त करनेका अधिकारी है । मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ हैं । अतः उन योनियोंमें
विषमता (राग-द्वेष)-का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं । यदि राग-द्वेष न
हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा । ‘प्रत्यवायो
न विद्यते’‒सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण,
यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है
। जैसे,
कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें
विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना
उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अंगोंके साथ नहीं जन्मता ! परन्तु जो मनुष्य
इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है,
उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता । कारण कि उसके अनुष्ठानमें
फलकी इच्छा नहीं होती । जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक
समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती । अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं,
होना सम्भव ही नहीं । विपरीत फल क्या है ? संसारमें विषमताका होना ही विपरीत फल है । सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही
विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है । परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है,
तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं
रहती,
तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है । ‘स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’‒इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय,
थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय, तो यह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है । जैसे सकाम
कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है, ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात्
इसका फल नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होता । साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु,
व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है,
उतनी समता अटल हो जाती है । इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं
हो सकता । जैसे, योगभ्रष्टकी साधन-अवस्थामें जितनी समता आ जाती है,
जितनी साधन-सामग्री हो जाती है,
उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और
मृत्युलोकमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीता‒छठे अध्यायका इकतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्लोक) । यह समता,
साधन-सामग्री कभी किंचिन्मात्र भी खर्च नहीं होती,
प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है;
क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है । ‘धर्म’ नाम दो बातोंका
है‒(१) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (२) वर्ण-आश्रमके
अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना । इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक
पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है । इसी
बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है । समता-सम्बन्धी विशेष बात लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण
होता है,
मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ
? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है । गीताकी दृष्टिमें
ऊँची चीज है‒समता । दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें
समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है । जिसमें दूसरे सब लक्षण
आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती । समता दो तरहकी होती है‒अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता । समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण
है । उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्रपर विजय प्राप्त कर ली,
वह जीवन्मुक्त हो गया । परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे
होती है (गीता‒पाँचवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) । अन्तःकरणकी समता है‒सिद्धि-असिद्धिमें
सम रहना (गीता‒दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ श्लोक) । प्रशंसा हो जाय या निन्दा
हो जाय,
कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय,
लाखों रुपये आ जायँ या लाखों रुपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें
कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता‒पाँचवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक) । इस समताका कभी नाश नहीं होता
। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं ।
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे,
वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता)
आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है । इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी
एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है । मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती
हैं, पर
कल्याण नहीं होता । परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता
है (गीता‒पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक) । രരരരരരരരരര |