।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒समबुद्धिके अनुष्‍ठानकी महिमा ।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।

         स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥

अर्थ‒मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता तथा इसके अनुष्‍ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्‍ठान जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है ।

इह = मनुष्यलोकमें

न = नहीं

अस्य = इस समबुद्धिरूप

विद्यते = होता (और इसका)

धर्मस्य = धर्मके

स्वल्पम् = थोड़ा-सा

अभिक्रमनाशः = आरम्भका नाश

अपि = भी (अनुष्‍ठान)

न = नहीं

महतः = (जन्म-मरणरूप) महान्

अस्ति = होता (तथा इसके अनुष्‍ठानका)

भयात् = भयसे

प्रत्यवायः = उलटा फल (भी)

त्रायते = रक्षा कर लेता है ।

व्याख्यानेहाभिक्रमनाशोऽस्तिइस समबुद्धि (समता)-का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता । मनमें समता प्राप्‍त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है । इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है ।

यहाँ इह कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्‍त करनेका अधिकारी है । मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ हैं । अतः उन योनियोंमें विषमता (राग-द्वेष)-का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं । यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा ।

प्रत्यवायो न विद्यतेसकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्‍चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है । जैसे, कोई पुत्र-प्राप्‍तिके लिये पुत्रेष्‍टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अंगोंके साथ नहीं जन्मता ! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्‍ठानमें लानेका प्रयत्‍न करता है, उसके प्रयत्‍नका, अनुष्‍ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता । कारण कि उसके अनुष्‍ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती । जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती । अतः उसके अनुष्‍ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं ।

विपरीत फल क्या है ? संसारमें विषमताका होना ही विपरीत फल है । सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है । परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है ।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्‍ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय, तो यह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है । जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्‍ट हो जाता है, ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्‍ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिकी प्राप्‍ति नहीं होता ।

साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अटल हो जाती है । इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता । जैसे, योगभ्रष्‍टकी साधन-अवस्थामें जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन-सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोकमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीताछठे अध्यायका इकतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्‍लोक) । यह समता, साधन-सामग्री कभी किंचिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत्‌ है, सदा रहनेवाली है ।

धर्मनाम दो बातोंका है(१) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्‍नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (२) वर्ण-आश्रमके अनुसार शास्‍त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना । इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है । इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है ।

समता-सम्बन्धी विशेष बात

लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ ? परन्तु गीताकी दृष्‍टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है । गीताकी दृष्‍टिमें ऊँची चीज हैसमता । दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है । जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती ।

समता दो तरहकी होती हैअन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता । समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है । उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्रपर विजय प्राप्‍त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया । परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीतापाँचवें अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक) । अन्तःकरणकी समता हैसिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीतादूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ श्‍लोक) । प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय, कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रुपये आ जायँ या लाखों रुपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीतापाँचवें अध्यायका बीसवाँ श्‍लोक) । इस समताका कभी नाश नहीं होता । कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं ।

मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्‍ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्‍ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है । इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है । मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्‍त हो जाती हैं, पर कल्याण नहीं होता । परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीतापाँचवें अध्यायका तीसरा श्‍लोक) ।

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