।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने जिस समताकी बात कही है, आगेके दो श्‍लोकोंमें उसीको सुननेके लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमाका वर्णन करते हैं ।

प्रधान विषय३९५३ श्‍लोकतककर्मयोगका वर्णन ।

सूक्ष्म विषयकर्मयोगकी दृष्‍टिसे समबुद्धिको सुननेकी आज्ञा ।

   एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।

  बुद्ध्या  युक्तो  यया  पार्थ  कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥

अर्थ‒हे पार्थ ! यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्ययोगमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्म-बन्धनका त्याग कर देगा ।

पार्थ = हे पार्थ !

योगे = कर्मयोगके विषयमें

एषा = यह

शृणु = सुन;

बुद्धिः = समबुद्धि

यया = जिस

ते = तेरे लिये (पहले)

बुद्ध्या = समबुद्धिसे

साङ्ख्ये = सांख्ययोगमें

युक्तः = युक्त हुआ (तू)

अभिहिता = कही गयी

कर्मबन्धम् = कर्म-बन्धनका

तु = और (अब तू)

प्रहास्यसि = त्याग कर देगा ।

इमाम् = इसको

 

व्याख्याएषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणुयहाँ तु पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं ।

यहाँ एषा पद पूर्वश्‍लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है । इस समबुद्धिका वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक) अच्छी तरह किया गया है । देह-देहीका ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है । कारण कि देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है । इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन हो चुका है । अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन ।

इमाम् कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्‍त होती है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसकी महिमा क्या है ? इन बातोंके लिये भगवान्‌ने इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है ।

बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसिअर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (पहले अध्यायका छत्तीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु भगवान्‌के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि (राग-द्वेष) होनेसे ही पाप लगता है । समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं । जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते । ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा, तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे ।

इसी अध्यायके सातवें श्‍लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी थी । इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं । पहले भगवान्‌ने सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (दूसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक) । फिर कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्‍लोक) । अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं ।

कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता हैलोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमहर्सि (गीतातीसरे अध्यायका बीसवाँ श्‍लोक) । लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे अर्थात् निःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्‍ति सुगमतासे हो जाती है । समताकी प्राप्‍ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता है ।

यह (उनतालीसवाँ) श्‍लोक तीसवें श्‍लोकके बाद ही ठीक बैठता है; और यह वहीं आना चाहिये था । कारण यह है कि इस श्‍लोकमें दो निष्‍ठाओंका वर्णन है । पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक सांख्ययोगसे निष्‍ठा (समता) बतायी और अब कर्मयोगसे निष्‍ठा (समता) बताते हैं । अतः यहाँ इकतीससे अड़तीसतकके आठ श्‍लोकोंको देना असंगत मालूम देता है । फिर भी इन आठ श्‍लोकोंको यहाँ देनेका कारण यह है कि कर्मयोगमें समता कहनेसे पहले कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है ? अर्जुनके लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य हैइस विषयका वर्णन होना आवश्यक है । अतः भगवान्‌ने कर्तव्य-अकर्तव्यका वर्णन करनेके लिये ही उपर्युक्त आठ श्‍लोक (दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे अड़तीसवेंतक) कहे हैं, और फिर समताकी बात कही है । तात्पर्य है कि पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक सत्‌-असत्‌के वर्णनसे समता बतायी कि सत्‌ सत्‌ ही है और असत्‌ असत्‌ ही है । इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता । फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्‍लोकतक कर्तव्य-अकर्तव्यकी बात कहकर उनतालीसवें श्‍लोकसे अकर्तव्यका त्याग और कर्तव्यका पालन करते हुए कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्‍ति-अप्राप्‍तिमें समताका वर्णन करते हैं ।

परिशिष्‍ट भावकर्मयोगके दो विभाग हैंकर्तव्यविज्ञान और योगविज्ञान । भगवान्‌ने इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्‍लोकतक कर्तव्यविज्ञानकी बात कही है, जिसमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभ और न करनेसे हानिका वर्णन किया । अब यहाँसे तिरपनवें श्‍लोकतक योग-विज्ञानकी बात कहते हैं ।

पूर्व श्‍लोकमें भगवान्‌ने जिस समताकी बात कही है, वह सांख्ययोग और कर्मयोगदोनों साधनोंसे प्राप्‍त हो सकती है । शरीर और शरीरीके विभागको जानकर शरीर-विभागसे सम्बन्ध-विच्छेद करना सांख्ययोगहै तथा कर्तव्य और अकर्तव्यके विभागको जानकर अकर्तव्य-विभागका त्याग और कर्तव्यका पालन करना कर्मयोगहै । मनुष्यको दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनका अनुष्‍ठान करके इस समताको प्राप्‍त कर लेना चाहिये । कारण कि समता आनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

एक धर्मशास्‍त्र (पूर्वमीमांसा) है और एक मोक्षशास्‍त्र (उत्तरमीमांसा) है । यहाँ इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्‍लोकतक धर्मशास्‍त्रकी और उनतालीसवेंसे तिरपनवें श्‍लोकतक मोक्षशास्‍त्रकी बात आयी है । धर्मसे लौकिक और पारमार्थिकदोनों तरहकी उन्‍नति होती है । धर्मशास्‍त्रमें कर्तव्य-पालन मुख्य है । धर्म कहो चाहे कर्तव्य कहो, एक ही बात है ।

.यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’ (वैशेषिक १ । ३)

जो करना चाहिये उसको न करना भी अकर्तव्य है और जो नहीं करना चाहिये, उसको करना भी अकर्तव्य है । जिसमें अपने सुखकी इच्छाका त्याग करके दूसरेको सुख पहुँचाया जाय और जिसमें अपना भी हित हो तथा दूसरेका भी हित हो, वह कर्तव्यकहलाता है । कर्तव्यका पालन करनेसे योगकी प्राप्‍ति अपने-आप हो जाती है । कर्तव्यका पालन किये बिना मनुष्य योगारूढ़ नहीं हो सकता (गीताछठे अध्यायका तीसरा श्‍लोक) । योगकी प्राप्‍ति होनेपर तत्त्वज्ञान स्वतः हो जाता है, जो कर्मयोग तथा ज्ञानयोगदोनोंका परिणाम है (गीतापाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्‍लोक) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभगवान्‌ने इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्‍लोकतक कर्तव्यविज्ञान (धर्मशास्‍त्र) अर्थात् ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें श्‍लोकसे तिरपनवें श्‍लोकतक योग-विज्ञान (मोक्षशास्‍त्र) अर्थात् ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं ।

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