Listen सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जिस समताकी बात कही
है, आगेके दो श्लोकोंमें उसीको सुननेके लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमाका वर्णन करते
हैं । प्रधान विषय‒३९—५३ श्लोकतक‒कर्मयोगका वर्णन । सूक्ष्म विषय‒कर्मयोगकी दृष्टिसे समबुद्धिको सुननेकी
आज्ञा । एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । बुद्ध्या
युक्तो यया पार्थ
कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥ अर्थ‒हे पार्थ ! यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्ययोगमें कही गयी
और अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्म-बन्धनका त्याग कर देगा ।
व्याख्या‒‘एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये
बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु’‒यहाँ ‘तु’
पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले
सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं । यहाँ ‘एषा’
पद पूर्वश्लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है । इस समबुद्धिका
वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) अच्छी तरह किया गया है । देह-देहीका
ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है । कारण कि
देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है । इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन
हो चुका है । अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन । ‘इमाम्’ कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें
कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्त होती है
? इसका स्वरूप क्या है
? इसकी महिमा क्या है
? इन बातोंके लिये भगवान्ने
इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है । ‘बुद्ध्या
युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि’‒अर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (पहले अध्यायका
छत्तीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्लोक) । परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि
(राग-द्वेष) होनेसे ही पाप लगता है । समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं । जैसे,
संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं,
पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते;
क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई
पक्षपात,
आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते । ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा,
तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे । इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी
थी । इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं । पहले भगवान्ने
सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप
युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (दूसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक) । फिर
कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)
। अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं । कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता है‒‘लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमहर्सि’
(गीता‒तीसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक) । लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे
अर्थात् निःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको
उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्ति सुगमतासे
हो जाती है । समताकी प्राप्ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता
है । यह (उनतालीसवाँ) श्लोक तीसवें श्लोकके बाद ही ठीक बैठता है;
और यह वहीं आना चाहिये था । कारण यह है कि इस श्लोकमें दो निष्ठाओंका
वर्णन है । पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सांख्ययोगसे निष्ठा (समता) बतायी और
अब कर्मयोगसे निष्ठा (समता) बताते हैं । अतः यहाँ इकतीससे अड़तीसतकके आठ श्लोकोंको
देना असंगत मालूम देता है । फिर भी इन आठ श्लोकोंको यहाँ देनेका कारण यह है कि कर्मयोगमें
समता कहनेसे पहले कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है ? अर्जुनके लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य
है‒इस विषयका वर्णन होना आवश्यक है । अतः भगवान्ने कर्तव्य-अकर्तव्यका वर्णन करनेके
लिये ही उपर्युक्त आठ श्लोक (दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे अड़तीसवेंतक) कहे हैं,
और फिर समताकी बात कही है । तात्पर्य है कि पहले ग्यारहवेंसे
तीसवें श्लोकतक सत्-असत्के वर्णनसे समता बतायी कि सत् सत् ही है और असत् असत्
ही है । इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता । फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक
कर्तव्य-अकर्तव्यकी बात कहकर उनतालीसवें श्लोकसे अकर्तव्यका त्याग और कर्तव्यका पालन
करते हुए कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें समताका वर्णन करते
हैं । परिशिष्ट भाव‒कर्मयोगके दो विभाग हैं‒कर्तव्यविज्ञान और योगविज्ञान । भगवान्ने इकतीसवेंसे सैंतीसवें
श्लोकतक कर्तव्यविज्ञानकी बात कही है, जिसमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभ और न करनेसे हानिका वर्णन किया
। अब यहाँसे तिरपनवें श्लोकतक योग-विज्ञानकी बात कहते हैं । पूर्व श्लोकमें भगवान्ने जिस समताकी बात कही है,
वह सांख्ययोग और कर्मयोग‒दोनों साधनोंसे प्राप्त हो सकती है । शरीर और शरीरीके विभागको
जानकर शरीर-विभागसे सम्बन्ध-विच्छेद करना ‘सांख्ययोग’ है तथा कर्तव्य और अकर्तव्यके विभागको जानकर अकर्तव्य-विभागका
त्याग और कर्तव्यका पालन करना ‘कर्मयोग’ है । मनुष्यको दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनका अनुष्ठान करके
इस समताको प्राप्त कर लेना चाहिये । कारण कि समता आनेसे
मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । एक धर्मशास्त्र (पूर्वमीमांसा) है और एक मोक्षशास्त्र (उत्तरमीमांसा)
है । यहाँ इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक धर्मशास्त्रकी और उनतालीसवेंसे तिरपनवें
श्लोकतक मोक्षशास्त्रकी बात आयी है । धर्मसे लौकिक और पारमार्थिक‒दोनों तरहकी उन्नति होती है१ । धर्मशास्त्रमें कर्तव्य-पालन मुख्य है । धर्म कहो चाहे कर्तव्य
कहो,
एक ही बात है । १ .‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः
स धर्मः’ (वैशेषिक॰ १ । ३) जो करना चाहिये उसको न करना भी अकर्तव्य है और जो
नहीं करना चाहिये, उसको करना भी अकर्तव्य है । जिसमें अपने सुखकी इच्छाका
त्याग करके दूसरेको सुख पहुँचाया जाय और जिसमें अपना भी हित हो तथा दूसरेका भी हित
हो, वह
‘कर्तव्य’ कहलाता
है । कर्तव्यका पालन करनेसे ‘योग’ की प्राप्ति
अपने-आप हो जाती है । कर्तव्यका
पालन किये बिना मनुष्य योगारूढ़ नहीं हो सकता (गीता‒छठे अध्यायका तीसरा श्लोक) । योगकी प्राप्ति होनेपर तत्त्वज्ञान
स्वतः हो जाता है, जो कर्मयोग तथा ज्ञानयोग‒दोनोंका परिणाम है (गीता‒पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भगवान्ने इकतीसवेंसे
सैंतीसवें श्लोकतक कर्तव्यविज्ञान (धर्मशास्त्र) अर्थात् ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें
श्लोकसे तिरपनवें श्लोकतक योग-विज्ञान (मोक्षशास्त्र) अर्थात् ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं
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