।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात

भगवान्‌ने इकतीसवें श्‍लोकसे अड़तीसवें श्‍लोकतकके आठ श्‍लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं; जैसे

(१) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्‍लोकोंमें उसकी कला बताते हैं । जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करनाऐसे विधि-निषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका, बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्‍त करना चाहिये । भगवान्‌ने भी यहाँ पहले इकतीसवें-बत्तीसवें दो श्‍लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन किया, फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्‍लोकोंमें कर्तव्य-कर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्‍लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी ।

(२) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्‍टिसे जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान्‌ने इन आठ श्‍लोकोंमें समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैंमैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (पहले अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक), तो भगवान् कहते हैंक्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (दूसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक) । अर्जुन कहते हैंयुद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे ? (पहले अध्यायका सैंतीसवाँ श्‍लोक), तो भगवान् कहते हैंजिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है, वे ही क्षत्रिय सुखी हैं (दूसरे अध्यायका बत्तीसवाँ श्‍लोक) । अर्जुन कहते हैंयुद्धके परिणाममें नरककी प्राप्‍ति होगी (पहले अध्यायका चौवालीसवाँ श्‍लोक), तो भगवान् कहते हैंयुद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्‍ति होगी (दूसरे अध्यायका बत्तीसवाँ और सैंतीसवाँ श्‍लोक) । अर्जुन कहते हैंयुद्ध करनेसे पाप लगेगा (पहले अध्यायका छत्तीसवाँ श्‍लोक), तो भगवान् कहते हैंयुद्ध न करनेसे पाप लगेगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक) । अर्जुन कहते हैंयुद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (पहले अध्यायका चालीसवाँ श्‍लोक), तो भगवान् कहते हैंयुद्ध न करनेसे धर्मका नाश होगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक) ।

(३) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक), तो उनको भगवान्‌ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्‍लोक); और उद्धवजीके मनमें भगवान्‌के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान्‌ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा ग्यारहवाँ स्कन्ध, उनतीसवाँ अध्याय, इकतालीसवाँ श्‍लोक) । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता । वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता ।

(४) भगवान्‌ने इस अध्यायके दूसरे-तीसरे श्‍लोकोंमें जो बातें संक्षेपसे कही थीं, उन्हींको यहाँ विस्तारसे कहा है, जैसेवहाँ अनार्यजुष्‍टम् कहा तो यहाँ धर्म्‍याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् कहा । वहाँ अस्वर्ग्यम् कहा तो यहाँ स्वर्गद्वारमपावृतम् कहा । वहाँ अकीर्तिकरम् कहा, तो यहाँ अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् कहा । वहाँ युद्धके लिये आज्ञा दीत्यक्त्वोत्तिष्‍ठ परन्तप, तो वही आज्ञा यहाँ देते हैंततो युद्धाय युज्यस्व

परिशिष्‍ट भावगीता व्यवहारमें परमार्थकी विलक्षण कला बताती है, जिससे मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें रहते हुए तथा शास्‍त्रविहित सब तरहका व्यवहार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके । अन्य ग्रन्थ तो प्रायः यह कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधु हो जाओ, एकान्तमें चले जाओ; क्योंकि व्यवहार और परमार्थदोनों एक साथ नहीं चल सकते । परन्तु गीता कहती है कि आप जहाँ हैं, जिस मतको मानते हैं, जिस सिद्धान्तको मानते हैं, जिस धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, आश्रम आदिको मानते हैं, उसीको मानते हुए गीताके अनुसार चलो तो कल्याण हो जायगा । एकान्तमें रहकर वर्षोंतक साधना करनेपर ऋषि-मुनियोंको जिस तत्त्वकी प्राप्‍ति होती थी, उसी तत्त्वकी प्राप्‍ति गीताके अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायगी । सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करना ही गीताके अनुसार व्यवहार करना है ।

युद्धसे बढ़कर घोर परिस्थिति तथा प्रवृत्ति और क्या होगी ? जब युद्ध-जैसी घोर परिस्थिति और प्रवृत्तिमें भी मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, तो फिर ऐसी कौन-सी परिस्थिति तथा प्रवृत्ति होगी, जिसमें रहते हुए मनुष्य अपना कल्याण न कर सके ? गीताके अनुसार एकान्तमें आसन लगाकर ध्यान करनेसे भी कल्याण हो सकता है (गीताछठे अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्‍लोकतक) और युद्ध करनेसे भी कल्याण हो सकता है !

अर्जुन न तो स्वर्ग चाहते थे और न राज्य चाहते थे (गीतापहले अध्यायका बत्तीसवाँ, पैंतीसवाँ और दूसरे अध्यायका आठवाँ श्‍लोक) । वे केवल युद्धसे होनेवाले पापसे बचना चाहते थे (गीतापहले अध्यायका छत्तीसवाँ, उनतालीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता, पर पापसे बचना चाहता है तो युद्धरूप कर्तव्यको समतापूर्वक कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगानैवं पापमवाप्स्यसि । कारण कि पाप लगनेमें हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत विषमता (पक्षपात), कामना, स्वार्थ, अहंकार है । युद्ध तो तेरा कर्तव्य (धर्म) है । कर्तव्य न करनेसे और अकर्तव्य करनेसे ही पाप लगता है ।

पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने अर्जुनसे मानो यह कहा कि अगर तू राज्य तथा स्वर्गकी प्राप्‍ति चाहे तो भी तेरे लिये कर्तव्यका पालन करना ही उचित है, और इस श्‍लोकमें मानो यह कहते हैं कि अगर तू राज्य तथा स्वर्गकी प्राप्‍ति न चाहे तो भी तेरे लिये समतापूर्वक कर्तव्यका पालन करना ही उचित है । तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका त्याग किसी भी स्थितिमें उचित नहीं है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभगवान् व्यवहारमें परमार्थकी कला बताते हैंसिद्धि-असिद्धिमें सम (तटस्थ) रहकर निष्कामभावसे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करना । ऐसा करनेसे मनुष्य युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है । इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें अपना कल्याण करनेमें समर्थ तथा स्वतन्त्र है ।

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