Listen सम्बन्ध‒पीछेके चार श्लोकोंमें युद्ध न करनेसे हानि
बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें युद्ध करनेसे लाभ बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒३७-३८‒युद्धरूप
कर्तव्यका पालन करनेसे लाभ बताते हुए युद्धके लिये आज्ञा देना । हतो
वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय
कृतनिश्चयः
॥ ३७ ॥ अर्थ‒अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी
और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा । अतः हे कुन्तीनन्दन ! तू
युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।
व्याख्या‒‘हतो वा प्राप्स्यसि
स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’‒इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका
भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे । अर्जुनके इस सन्देहको
लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी
जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहाँ पृथ्वीका
राज्य भोगोगे । इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं । तात्पर्य है कि युद्ध
करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफसे लाभ-ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि
है । अतः तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये । ‘तस्मादुत्तिष्ठ
कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः’‒यहाँ ‘कौन्तेय’ सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि जब मैं सन्धिका प्रस्ताव लेकर
कौरवोंके पास गया था, तब माता कुन्तीने तुम्हारे लिये यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध
करो । अतः तुम्हें युद्धसे निवृत्त नहीं होना चाहिये,
प्रत्युत युद्धका निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये । अर्जुनका युद्ध न करनेका निश्चय था और भगवान्ने इसी अध्यायके
तीसरे श्लोकमें युद्ध करनेकी आज्ञा दे दी । इससे अर्जुनके मनमें सन्देह हुआ कि युद्ध
करना ठीक है या न करना ठीक है । अतः यहाँ भगवान् उस सन्देहको दूर करनेके लिये कहते
हैं कि तुम युद्ध करनेका एक निश्चय कर लो, उसमें सन्देह मत रखो । यहाँ भगवान्का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्यको किसी भी हालतमें प्राप्त कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत
उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये । कर्तव्यका पालन करनेमें
ही मनुष्यकी मनुष्यता है । परिशिष्ट भाव‒धर्मका पालन करनेसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं । तात्पर्य
है कि कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे लोककी भी सिद्धि हो जाती है और परलोककी
भी । രരരരരരരരരര सुखदुःखे
समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो
युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८
॥ अर्थ‒जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार
युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।
व्याख्या‒[ अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको
पाप लग जायगा, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत
अपनी कामना है । अतः कामनाका त्याग
करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा । ] ‘सुखदुःखे
समे....ततो युद्धाय युज्यस्व’‒युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है,
जय-पराजयका परिणाम होता है‒लाभ और हानि तथा लाभ-हानिका परिणाम होता है‒सुख और दुःख । जय-पराजयमें और लाभ-हानिमें सुखी-दुःखी होना तेरा
उद्देश्य नहीं है । तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना
है । युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही । अतः तू पहलेसे यह विचार
कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है, जय-पराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है । फिर युद्ध करनेसे
पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा । सकाम और निष्काम‒दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करना आवश्यक है ।
जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य,
प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये,
प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये । जिसका
निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये । सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता है तथा दुःख
आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है । अतः इनमें कौन अच्छा है,
कौन बुरा ? अर्थात् दोनों ही समान हैं, बराबर हैं । इस प्रकार सुख-दुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने
कर्तव्यका पालन करना चाहिये । तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके
भयसे निवृत्ति न हो । कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही हो
(गीता‒सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक) ।
‘नैवं
पापमवाप्स्यसि’‒यहाँ ‘पाप’ शब्द पाप और पुण्य‒दोनोंका वाचक है, जिसका फल है‒स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन,
जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वंचित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता
रहता है । भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म
करनेसे तुझे पाप और पुण्य‒दोनों ही नहीं बाँधेंगे । രരരരരരരരരര |