।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धयुद्ध न करनेसे क्या हानि होती हैइसका आगेके चार श्‍लोकोंमें वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय३३३६ श्‍लोकतकस्वधर्मरूप कर्तव्यका पालन न करनेसे होनेवाली हानियोंका कथन ।

       अथ  चेत्त्वमिमं  धर्म्‍यं सङ्ग्रामं  न करिष्यसि ।

       ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥

अर्थ‒अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्तिका त्याग करके पापको प्राप्‍त होगा ।

अथ = अब

ततः = तो

चेत् = अगर

स्वधर्मम् = अपने धर्म

त्वम् = तू

च = और

इमम् = यह

कीर्तिम् = कीर्तिका

धर्म्यम् = धर्ममय

हित्वा = त्याग करके

सङ्ग्रामम् = युद्ध

पापम् = पापको

न = नहीं

अवाप्स्यसि = प्राप्‍त होगा ।

करिष्यसि = करेगा

 

व्याख्याअथ चेत्त्वमिमं.......पापमवाप्स्यसियहाँ अथ अव्यय पक्षान्तरमें आया है और चेत् अव्यय सम्भावनाके अर्थमें आया है । इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्धके बिना रह नहीं सकेगा, अपने क्षात्र स्वभावके परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही (गीताअठारहवें अध्यायका साठवाँ श्‍लोक), तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा, तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्मका त्याग हो जायगा । क्षात्रधर्मका त्याग होनेसे तुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्तिका भी नाश होगा ।

आप-से-आप प्राप्‍त हुए धर्मरूप कर्तव्यका त्याग करके तू क्या करेगा ? अपने धर्मका त्याग करनेसे तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे तुझे पाप लगेगा । युद्धका त्याग करनेसे दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन-जैसा शूरवीर भी मरनेसे भयभीत हो गया ! इससे तेरी कीर्तिका नाश होगा ।

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     अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।

     सम्भावितस्य        चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥

अर्थ‒और सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिका कथन अर्थात् निन्दा करेंगे । वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायी होती है ।

च = और

कथयिष्यन्ति = कथन अर्थात् निन्दा करेंगे ।

भूतानि = सब प्राणी

अकीर्तिः = (वह) अपकीर्ति

अपि = भी

सम्भावितस्य = सम्मानित मनुष्यके लिये

ते = तेरी

मरणात् = मृत्युसे

अव्ययाम् = सदा रहनेवाली

च = भी

अकीर्तिम् = अपकीर्तिका

अतिरिच्यते = बढ़कर दुःखदायी होती है ।

व्याख्याअकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि जिन प्राणियोंका तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता, ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति, अपयशका कथन करेंगे कि देखो ! अर्जुन कैसा भीरु था, जो कि अपने क्षात्रधर्मसे विमुख हो गया । वह कितना शूरवीर था, पर युद्धके मौकेपर उसकी कायरता प्रकट हो गयी, जिसका कि दूसरोंको पता ही नहीं था; आदि-आदि ।

ते कहनेका भाव है कि स्वर्ग, मृत्यु और पाताललोकमें भी जिसकी धाक जमी हुई है, ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी । अव्ययाम् कहनेका तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्‍ठताको लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है, उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहनेवाली होती है ।

सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यतेइस श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने साधारण प्राणियोंद्वारा अर्जुनकी निन्दा किये जानेकी बात बतायी । अब श्‍लोकके उत्तरार्धमें सबके लिये लागू होनेवाली सामान्य बात बताते हैं ।

संसारकी दृष्‍टिमें जो श्रेष्‍ठ माना जाता है, जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्‍टिसे देखते हैं, ऐसे मनुष्यकी जब अपकीर्ति होती है, तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरणसे भी अधिक भयंकर दुःखदायी होती है । कारण कि मरनेमें तो आयु समाप्‍त हुई है, उसने कोई अपराध तो किया नहीं है, परन्तु अपकीर्ति होनेमें तो वह खुद धर्म-मर्यादासे, कर्तव्यसे च्युत हुआ है । तात्पर्य है कि लोगोंमें श्रेष्‍ठ माना जानेवाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्यसे च्युत होता है, तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है ।

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       भयाद्रणादुपरतं    मंस्यन्ते    त्वां   महारथाः ।

       येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥

अर्थ‒तथा महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे । जिनकी धारणामें तू बहुमान्य हो चुका है, उनकी दृष्‍टिमें तू लघुताको प्राप्‍त हो जायगा ।

च = तथा

येषाम् = जिनकी (धारणामें)

महारथाः = महारथीलोग

त्वम् = तू

त्वाम् = तुझे

बहुमतः = बहुमान्य

भयात् = भयके कारण

भूत्वा = हो चुका है, (उनकी दृष्‍टिमें)

रणात् = युद्धसे

लाघवम् = (तू) लघुताको

उपरतम् = हटा हुआ

यास्यसि = प्राप्‍त हो जायगा ।

मंस्यन्ते = मानेंगे ।

 

व्याख्याभयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाःतू ऐसा समझता है कि मैं तो केवल अपना कल्याण करनेके लिये युद्धसे उपरत हुआ हूँ; परन्तु अगर ऐसी ही बात होती और युद्धको तू पाप समझता, तो पहले ही एकान्तमें रहकर भजन-स्मरण करता और तेरी युद्धके लिये प्रवृत्ति भी नहीं होती । परन्तु तू एकान्तमें न रहकर युद्धमें प्रवृत्त हुआ है । अब अगर तू युद्धसे निवृत्त होगा तो बड़े-बड़े महारथीलोग ऐसा ही मानेंगे कि युद्धमें मारे जानेके भयसे ही अर्जुन युद्धसे निवृत्त हुआ है । अगर वह धर्मका विचार करता तो युद्धसे निवृत्त नहीं होता; क्योंकि युद्ध करना क्षत्रियका धर्म है । अतः वह मरनेके भयसे ही युद्धसे निवृत्त हो रहा है ।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि जो बड़े-बड़े महारथी हैं, उनकी दृष्‍टिमें तू बहुमान्य हो चुका है अर्थात् उनके मनमें यह एक विश्‍वास है कि युद्ध करनेमें नामी शूरवीर तो अर्जुन ही है । वह युद्धमें अनेक दैत्यों, देवताओं, गन्धर्वों आदिको हरा चुका है । अगर अब तू युद्धसे निवृत्त हो जायगा, तो उन महारथियोंके सामने तू लघुता (तुच्छता)-को प्राप्‍त हो जायगा अर्थात् उनकी दृष्‍टिमें तू गिर जायगा ।

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अवाच्यवादांश्‍च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

         निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥

अर्थ‒तेरे शत्रुलोग तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए बहुत-से न कहनेयोग्य वचन भी कहेंगे । उससे बढ़कर और दुःखकी बात क्या होगी ?

तव = तेरे

अवाच्यवादान् = न कहनेयोग्य वचन

अहिताः = शत्रुलोग

च = भी

तव = तेरी

वदिष्यन्ति = कहेंगे ।

सामर्थ्यम् = सामर्थ्यकी

ततः = उससे

निन्दन्तः = निन्दा करते हुए

दुःखतरम् = बढ़कर और दुःखकी बात

बहून् = बहुत-से

नु, किम् = क्या होगी ?

व्याख्याअवाच्यवादांश्‍च................निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम्अहितनाम शत्रुका है, अहित करनेवालेका है । तेरे जो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखनेपर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करनेवाले हैं । वे तेरी सामर्थ्यको जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है । ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करेंगे कि यह तो हिजड़ा है । देखो ! यह युद्धके मौकेपर हो गया न अलग ! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है ? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है ? इस प्रकार तुझे दुःखी करनेके लिये, तेरे भीतर जलन पैदा करनेके लिये न जाने कितने न कहनेलायक वचन कहेंगे । उनके वचनोंको तू कैसे सहेगा ?

ततो दुःखतरं नु किम्इससे बढ़कर अत्यन्त भयंकर दुःख क्या होगा ? क्योंकि यह देखा जाता है कि जैसे मनुष्य तुच्छ आदमियोंके द्वारा तिरस्कृत होनेपर अपना तिरस्कार सह नहीं सकता और अपनी योग्यतासे, अपनी शूरवीरतासे अधिक काम करके मर मिटता है । ऐसे ही जब शत्रुओंके द्वारा तेरा सर्वथा अनुचित तिरस्कार हो जायगा, तब उसको तू सह नहीं सकेगा और तेजीमें आकर युद्धके लिये कूद पड़ेगा । तेरेसे युद्ध किये बिना रहा नहीं जायगा । अभी तो तू युद्धसे उपरत हो रहा है, पर जब तू समयपर युद्धके लिये कूद पड़ेगा, तब तेरी कितनी निन्दा होगी । उस निन्दाको तू कैसे सह सकेगा ?

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