Listen सम्बन्ध‒अर्जुनके मनमें कुटुम्बियोंके मरनेका शोक था
और गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था अर्थात् यहाँ कुटुम्बियोंका वियोग हो जायेगा तो
उनके अभावमें दुःख पाना पड़ेगा‒यह शोक था और परलोकमें पापके कारण नरक आदिका दुःख भोगना पड़ेगा‒यह भय था । अतः भगवान्ने अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये ग्यारहवेंसे
तीसवें श्लोकतकका प्रकरण कहा, और अब अर्जुनका भय दूर करनेके लिये क्षात्रधर्म-विषयक आगेका
प्रकरण आरम्भ करते हैं । प्रधान विषय‒३१—३८ श्लोकतक—क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन । सूक्ष्म विषय‒३१-३२ श्लोक‒स्वधर्मरूप
कर्तव्यका पालन करनेकी श्रेष्ठता और लाभका वर्णन । स्वधर्ममपि चावेक्ष्य
न विकम्पितुमर्हसि
। धर्म्याद्धि
युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥ अर्थ‒और अपने क्षात्रधर्मको देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्मसे
विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक
कर्म नहीं है ।
व्याख्या‒[ पहले दो श्लोकोंमें युद्धसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं
। ] ‘स्वधर्ममपि
चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’‒यह स्वयं परमात्माका अंश है । जब यह शरीरके साथ तादात्म्य कर
लेता है,
तब यह ‘स्व’ को अर्थात् अपने-आपको जो कुछ मानता है,
उसका कर्तव्य ‘स्वधर्म’ कहलाता है । जैसे, कोई अपने-आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र मानता है, तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है
। कोई अपनेको शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकरके कर्तव्योंका पालन करना उसका
स्वधर्म है । कोई अपनेको किसीका पिता या किसीका पुत्र मानता है,
तो पुत्र या पिताके प्रति किये जानेवाले कर्तव्योंका पालन करना
उसका स्वधर्म है । यहाँ क्षत्रियके कर्तव्य-कर्मको ‘धर्म’ नामसे कहा गया है१ । १.अठारहवें अध्यायमें जहाँ (१८ । ४२‒४८ में) चारों वर्णोंके कर्तव्य-कर्मोंका वर्णन आया है, वहाँ बीचमें ‘धर्म’ शब्द भी आया है‒‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः
परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ (१८ । ४७) । इससे ‘कर्म’ और ‘धर्म’ शब्द पर्यायवाची सिद्ध होते हैं । क्षत्रियका खास कर्तव्य-कर्म है‒युद्धसे विमुख न होना । अर्जुन क्षत्रिय हैं;
अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है । इसलिये भगवान् कहते हैं कि
अगर स्वधर्मको लेकर देखा जाय तो भी क्षात्रधर्मके अनुसार तुम्हारे लिये युद्ध करना
ही कर्तव्य है । अपने कर्तव्यसे तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिये । ‘धर्म्याद्धि
युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते’‒धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक
कर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रियके लिये क्षत्रियके कर्तव्यका अनुष्ठान करना ही खास
काम है (गीता‒अठारहवें अध्यायका तैंतालीसवाँ श्लोक) । [ ऐसे ही ब्राह्मण
,
वैश्य और शूद्रके लिये भी अपने-अपने कर्तव्यका अनुष्ठान करनेके
सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है । ] अर्जुनने सातवें श्लोकमें प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये
निश्चित श्रेयकी बात कहिये । उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि श्रेय (कल्याण) तो
अपने धर्मका पालन करनेसे ही होगा । किसी भी दृष्टिसे अपने धर्मका त्याग कल्याणकारक
नहीं है । अतः तुम्हें अपने युद्धरूप धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिये । परिशिष्ट भाव‒देह-देहीके विवेकका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यहाँसे अड़तीसवें
श्लोकतक देहीके स्वधर्मपालन (कर्तव्यपालन)-का वर्णन करते हैं । कारण कि देह-देहीके
विवेकसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व देहके सदुपयोगसे, स्वधर्मके पालनसे भी मिल सकता है । विवेकमें ‘जानना’ मुख्य है और स्वधर्मपालनमें ‘करना’ मुख्य है । यद्यपि मनुष्यके लिये विवेक मुख्य है,
जो व्यवहार और परमार्थमें, लोक और परलोकमें सब जगह काम आता है । परन्तु जो मनुष्य देह-देहीके विवेकको न समझ सके, उसके
लिये भगवान् स्वधर्मपालनकी बात कहते हैं, जिससे वह कोरा वाचक ज्ञानी न बनकर वास्तविक तत्त्वका
अनुभव कर सके । तात्पर्य है कि जो मनुष्य परमात्मतत्त्वको जानना चाहता है,
पर तीक्ष्ण बुद्धि और तेजीका वैराग्य न होनेके कारण ज्ञानयोगसे
नहीं जान सका तो वह कर्मयोगसे परमात्मतत्त्वको जान सकता है;
क्योंकि ज्ञानयोगसे जो अनुभव होता है,
वही कर्मयोगसे भी हो सकता है (गीता‒पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) । अर्जुन क्षत्रिय थे, इसलिये भगवान्ने इस प्रकरणमें क्षात्रधर्मकी बात कही है । वास्तवमें
यहाँ क्षात्रधर्म चारों वर्णोंका उपलक्षण है । इसलिये ब्राह्मणादि अन्य वर्णोंको भी
यहाँ अपना-अपना धर्म (कर्तव्य) समझ लेना चाहिये । (गीता‒अठारहवें अध्यायका बयालीसवाँ, तैंतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्लोक) । [ ‘स्वधर्म’ को ही स्वभावज कर्म, सहज कर्म, स्वकर्म आदि नामोंसे कहा गया है (गीता‒अठारहवें अध्यायके इकतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक) । स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरेके हितके लिये
कर्म करना स्वधर्म है । स्वधर्मका पालन ही कर्मयोग है । ] गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यदि साधककी रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोगकी नहीं है तो उसे कर्मयोगका पालन करना चाहिये । कारण
कि ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनोंका फल एक ही है (गीता ५ । ४-५)
। तात्पर्य है कि शरीर-शरीरीके विवेकको महत्त्व देनेसे जो
तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीरद्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म)-का पालन करनेसे
भी मिल सकता है । अतः भगवान् कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म)-के
पालनका प्रकरण आरम्भ करते हैं । രരരരരരരരരര यदृच्छया
चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्
।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥ अर्थ‒अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्गका दरवाजा भी है
। हे पृथानन्दन ! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं,
जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है ।
व्याख्या‒‘यदृच्छया चोपपन्नं
स्वर्गद्वारमपावृतम्’‒पाण्डवोंसे जूआ खेलनेमें दुर्योधनने यह शर्त रखी थी कि अगर इसमें
आप हार जायँगे, तो आपको बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोगना होगा । तेरहवें वर्षके
बाद आपको अपना राज्य मिल जायगा । परन्तु अज्ञातवासमें अगर हमलोग आपलोगोंको खोज लेंगे,
तो आप-लोगोंको दुबारा बारह वर्षका वनवास भोगना पड़ेगा । जूएमें
हार जानेपर शर्तके अनुसार पाण्डवोंने बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोग
लिया । उसके बाद जब उन्होंने अपना राज्य माँगा, तब दुर्योधनने कहा कि मैं बिना युद्ध किये सूईकी तीखी नोक-जितनी
जमीन भी नहीं दूँगा । दुर्योधनके ऐसा कहनेपर भी पाण्डवोंकी ओरसे बार-बार सन्धिका प्रस्ताव
रखा गया,
पर दुर्योधनने पाण्डवोंसे सन्धि स्वीकार नहीं की । इसलिये भगवान्
अर्जुनसे कहते हैं कि यह युद्ध तुमलोगोंको अपने-आप प्राप्त हुआ है । अपने-आप प्राप्त
हुए धर्ममय युद्धमें जो क्षत्रिय शूरवीरतासे लड़ते हुए मरता है,
उसके लिये स्वर्गका दरवाजा खुला हुआ रहता है ।
‘सुखिनः
क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्’‒ऐसा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है,
वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं । यहाँ सुखी कहनेका तात्पर्य है कि
अपने कर्तव्यका पालन करनेमें जो सुख है, वह
सुख सांसारिक भोगोंको भोगनेमें नहीं है । सांसारिक भोगोंका सुख तो पशु-पक्षियोंको भी होता है । अतः जिनको कर्तव्य-पालनका अवसर प्राप्त हुआ है, उनको
बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिये । രരരരരരരരരര |