।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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परिशिष्‍ट भावभगवान्‌ने ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक देह-देहीके विवेकका वर्णन किया है । इस प्रकरणमें भगवान्‌ने ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड़-चेतन, माया-अविद्या, आत्मा-अनात्मा आदि किसी दार्शनिक शब्दका प्रयोग नहीं किया है । इसका कारण यह है कि भगवान् इसको पढ़ाईका अर्थात् सीखनेका विषय न बनाकर अनुभवका विषय बनाना चाहते हैं और यह सिद्ध करना चाहते हैं कि देह-देहीके अलगावका अनुभव मनुष्यमात्र कर सकता है । इसमें कोई पढ़ाई करनेकी, अधिकारी बननेकी जरूरत नहीं है ।

सत्‌-असत्‌का विवेक मनुष्य अगर अपने शरीरपर करता है तो वह साधक होता है और संसारपर करता है तो विद्वान् होता है । अपनेको अलग रखते हुए संसारमें सत्‌-असत्‌का विवेक करनेवाला मनुष्य वाचक (सीखा हुआ) ज्ञानी तो बन जाता है, पर उसको अनुभव नहीं हो सकता । परन्तु अपनी देहमें सत्‌-असत्‌का विवेक करनेसे मनुष्य वास्तविक (अनुभवी) ज्ञानी हो सकता है । तात्पर्य है कि संसारमें सत्‌-असत्‌का विवेक केवल पण्डिताईके लिये है, जबकि गीता पण्डिताईके लिये नहीं है । इसलिये भगवान्‌ने दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही, शरीर-शरीरी जैसे सामान्य शब्दोंका प्रयोग किया है । जो संसारमें सत्‌-असत्‌का विचार करते हैं, वे अपनेको अलग रखते हुए अपनेको ज्ञानका अधिकारी बनाते हैं । परन्तु अपनेमें देह-देहीका विचार करनेमें मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्‍तिका अधिकारी है । अनुभव करनेके लिये देह-देहीका विवेचन उपयोगी है और सीखनेके लिये तत्त्वका विवेचन उपयोगी है । इसलिये साधक अनुभव करना चाहता है तो सबसे पहले उसको शरीरसे अपने अलगावका अनुभव करना चाहिये कि शरीर शरीरीके सम्बन्धसे रहित है और शरीरी शरीरके सम्बन्धसे रहित है अर्थात् मैं शरीर नहीं हूँ ।उसने जितनी सच्‍चाईसे, दृढ़तासे, विश्‍वाससे और निःसन्देहतासे शरीरकी सत्ता-महत्ता मानी है, उतनी ही सच्‍चाईसे, दृढ़तासे, विश्‍वाससे और निःसन्देहतासे स्वयं (स्वरूप)-की सत्ता-महत्ता मान ले और अनुभव कर ले ।

शरीर केवल कर्म करनेका साधन है और कर्म केवल संसारके लिये ही होता है । जैसे कोई लेखक जब लिखने बैठता है, तब वह लेखनीको ग्रहण करता है और जब लिखना बन्द करता है, तब लेखनीको यथास्थान रख देता है, ऐसे ही साधकको कर्म करते समय शरीरको स्वीकार करना चाहिये और कर्म समाप्‍त होते ही शरीरको ज्यों-का-त्यों रख देना चाहियेउससे असंग हो जाना चाहिये । कारण कि अगर हम कुछ भी न करें तो शरीरकी क्या जरूरत है ?

साधकके लिये खास बात हैजाने हुए असत्‌का त्याग । साधक जिसको असत्‌ जानता है, उसका वह त्याग कर दे तो उसका साधन सहज, सुगम हो जायगा और जल्दी सिद्ध हो जायगा । साधककी अपने साध्यमें जो प्रियता है, वही साधन कहलाती है । वह प्रियता किसी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य आदिके द्वारा अथवा किसी अभ्यासके द्वारा प्राप्‍त नहीं होती, प्रत्युत साध्यमें अपनापन होनेसे प्राप्‍त होती है । साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वतः हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुसे होता है, जिसमें ये चार बातें हों

जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो ।

जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो ।

जिससे हम कभी कुछ न चाहें ।

हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें ।

ये चारों बातें भगवान्‌में ही लग सकती हैं । कारण कि शरीर और संसारसे हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला नहीं है और उनसे हमारी स्वरूपगत एकता भी नहीं है । प्रतिक्षण बदलनेवालेके साथ कभी न बदलनेवालेकी एकता कैसे हो सकती है ? शरीरके साथ हमारी जो एकता दीखती है, वह वास्तविक नहीं है, प्रत्युत मानी हुई है । मानी हुई एकता कर्तव्यका पालन करनेके लिये है । तात्पर्य है कि जिसके साथ हमारी मानी हुई एकता है, उसकी सेवा तो हो सकती है, पर उसके साथ अपनापन नहीं हो सकता ।

जाने हुए असत्‌का त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग करे । जिसके साथ हमारा न तो नित्य सम्बन्ध है और न स्वरूपगत एकता ही है, उसको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी सम्बन्ध है । इस दृष्‍टिसे शरीरको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है । विवेकविरोधी सम्बन्धके रहते हुए कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता । शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितना ही तप कर ले, समाधि लगा ले, लोक-लोकान्तरमें घूम आये, तो भी उसके मोहका नाश तथा सत्य तत्त्वकी प्राप्‍ति नहीं हो सकती । विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग होते ही मोहका नाश हो जाता है तथा सत्य तत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है । इसलिये विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग किये बिना साधकको चैनसे नहीं बैठना चाहिये । अगर हम शरीरसे माने हुए विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग न करें तो भी शरीर हमारा त्याग कर ही देगा ! जो हमारा त्याग अवश्य करेगा, उसका त्याग करनेमें क्या कठिनाई है ? इसलिये किसी भी मार्गका कोई भी साधक क्यों न हो, उसे इस सत्यको स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है, क्योंकि मैं अशरीरी हूँ, मेरा स्वरूप अव्यक्त है ।

जबतक साधकका शरीरके साथ मैं-मेरेपनका सम्बन्ध रहता है, तबतक साधन करते हुए भी सिद्धि नहीं होती और वह शुभ कर्मोंसे, सार्थक चिन्तनसे और स्थितिकी आसक्तिसे बँधा रहता है । वह यज्ञ, तप, दान आदि बड़े-बड़े शुभ कर्म करे, आत्माका अथवा परमात्माका चिन्तन करे अथवा समाधिमें भी स्थित हो जाय तो भी उसका बन्धन सर्वथा मिटता नहीं । कारण कि शरीरके साथ सम्बन्ध मानना ही मूल बन्धन है, मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । अगर साधकका शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध सर्वथा मिट जाय तो उसके द्वारा अशुभ कर्म तो होंगे ही नहीं, शुभ कर्मोंमें भी आसक्ति नहीं रहेगी । उसके द्वारा निरर्थक चिन्तन तो होगा ही नहीं, सार्थक चिन्तनमें भी आसक्ति नहीं रहेगी । उसमें चंचलता तो रहेगी ही नहीं, समाधिमें, स्थिरतामें अथवा निर्विकल्प स्थितिमें भी आसक्ति नहीं रहेगी । इस प्रकार स्थूलशरीरसे होनेवाले कर्ममें, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाले चिन्तनमें और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरतामें आसक्तिका नाश हो जानेपर उसका साधन सिद्ध हो जायगा अर्थात् मोह नष्‍ट हो जायगा और सत्य तत्त्वकी प्राप्‍ति हो जायगी । इसलिये भगवान्‌ने अपने उपदेशके आरम्भमें शरीरका सम्बन्ध सर्वथा मिटानेके लिये शरीर-शरीरीके विवेकका वर्णन किया है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याप्राणिमात्र परमात्माका अंश हैममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ११७ । १) । परमात्माका अंश होनेके नाते इसका कभी नाश हुआ ही नहीं, कभी नाश होगा ही नहीं, कभी नाश हो सकता ही नहीं । अविनाशित्व, ज्ञान और आनन्द शरीरीके गुण नहीं हैं, प्रत्युत स्वरूप हैं ।

शरीर केवल कर्म करनेका तथा उसका फल भोगनेका उपकरण है । अतः शरीरका सम्बन्ध नाशवान् संसारके साथ है; क्योंकि यह संसारका ही अंश है ।

व्याकरणकी दृष्टिसे देखें तो मतुप, इनि आदि प्रत्यय छः अर्थोमें प्रयुक्त होते हैं ।

भूमनिन्दाप्रशंसासु   नित्ययोगेऽतिशायने ।

संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः

‘अस्तिविवक्षामें जो मतुप आदि प्रत्यय होते हैं, वे सब बहुत्व, निन्दा, प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय और संसर्गइन छः विषयोंमें ही होते हैं ।’

यहाँ जीवात्माके लिये ‘निन्दा’ अर्थमें ‘इनि’ प्रत्यय किया गया है, जिससे ‘देही’, ‘शरीरी’ आदि शब्द बनते हैं । कारण कि जिस चिन्मय एवं अविनाशी सत्ता (आत्मा)-का जड़ एवं नाशवान् शरीर या देहसे किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध है ही नहीं, उसे शरीरी या देही कहना वास्तवमें उसकी निन्दा ही है । उदाहरणार्थ, जिस मनुष्यको कोढ़ है, उसे कोढ़ी कहना वास्तवमें उसकी निन्दा है; क्योंकि कोढ़ उसका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक दोष है । इसी तरह शरीर उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाला है‘अन्तवन्त इमे देहाः’ (गीता २ । १८), पर आत्मा उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाला नही है‘देही नित्यमवध्योऽयम्’ (गीता २ । ३०), ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ (गीता २ । २०) । जब शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर शरीरी कैसे रहेगा ? कोढ़ीको तो कोढ़ खराब दीखता है, पर जीवको अज्ञानवश शरीर खराब न दीखकर उल्टे बढ़िया दीखता है ! तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्‌ने कृपापूर्वक अज्ञानी मनुष्योंको समझानेके लिये ही जीवात्मा (चेतन-तत्त्व)-को शरीरी और देही कहा है । वास्तवमें जीवात्मा शरीरी अथवा देही नहीं है ।

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