Listen सम्बन्ध‒भगवान्ने उनतालीसवें श्लोकमें जिस समबुद्धि
(समता)-को सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा दी थी,
अब आगेके श्लोकमें उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करनेकी आज्ञा
देते हैं । सूक्ष्म विषय‒कर्तव्य-कर्म करनेकी विधि । कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन
। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७
॥ अर्थ‒कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है,
फलोंमें कभी नहीं अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी कर्म
न करनेमें भी आसक्ति न हो ।
व्याख्या‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’‒प्राप्त कर्तव्य-कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है । इसमें
तू स्वतन्त्र है । कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है । मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि
नया कर्म करनेके लिये नहीं है । पशु-पक्षी आदि जंगम और वृक्ष,
लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते । देवता आदिमें
नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ,
दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं । वे भगवान्के
विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं,
पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं
कर सकते । नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं,
नया कर्म नहीं कर सकते । नया कर्म
करनेमें तो केवल मनुष्यका ही अधिकार है । भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना
उद्धार करनेके लिये ही यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है । अगर यह कर्मोंको अपने
लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा
तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा । अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म
करनेमें ही अधिकार है । ‘कर्मणि’ पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश,
काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे,
पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर
सकता है । जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्य-कर्मोंका विधान है,
पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर
सकता है,
दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता । मार्मिक बात मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं‒पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ । दूसरी योनियोंमें
केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग-योनियाँ हैं । इसलिये उनके लिये
‘ऐसा करो और ऐसा मत करो’‒यह विधान नहीं है । पशु-पक्षी,
कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं,
उनका वह कर्म भी फलभोगमें है । कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला
कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है । उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है । परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे
यह अपना उद्धार कर ले । इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं‒एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थिति आती है और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है । नये कर्मोंके अनुसार
ही इसके भविष्यका निर्माण होता है । इसलिये शास्त्र,
सन्त-महापुरुषोंका विधि-निषेध,
राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है;
क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रधानता है,
नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है । परन्तु पिछले कर्मोंके
फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है । तात्पर्य
है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें
परतन्त्र है । परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य
उसको अपने उद्धारकी साधन-सामग्री बना सकता है; क्योंकि
यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है । इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने
कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है । इसमें एक विशेष समझनेकी बात है कि इस मनुष्य-जीवनमें प्रारब्धके
अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है, उस परिस्थितिको मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है,
पर वास्तवमें देखा जाय तो उस परिस्थितिसे
सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं है,
प्रत्युत मूर्खताका फल है । कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती है और सुखी-दुःखी होता है
यह स्वयं । उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःखका भोक्ता बनता है । अगर मनुष्य उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे, तो
वही परिस्थिति उसका उद्धार करनेके लिये साधन-सामग्री बन जायगी । सुखदायी परिस्थितिका
सदुपयोग है‒दूसरोंकी सेवा करना और दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग
है‒सुखभोगकी इच्छाका त्याग करना । दुःखदायी परिस्थिति आनेपर मनुष्यको कभी भी घबराना नहीं चाहिये,
प्रत्युत यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुख-भोगकी इच्छासे
ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थितिके रूपमें आकर नष्ट हो रहे हैं । इसमें
एक लाभ यह है कि उन पापोंका प्रायश्चित्त हो रहा है और हम शुद्ध हो रहे हैं । दूसरा
लाभ यह है कि हमें इस बातकी चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोगके लिये पाप करेंगे तो
आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी । इसलिये सुखभोगकी
इच्छासे अब कोई काम करना ही नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रके हितके लिये ही काम करना है
। तात्पर्य यह हुआ कि पशु-पक्षी,
कीट-पतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म‒ये दोनों ही भोगरूपमें हैं और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका
फल और नया कर्म (पुरुषार्थ)‒ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं । ‘मा फलेषु
कदाचन’‒फलमें तेरा किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें
तेरी स्वतन्त्रता नहीं है; क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है । अतः फलकी इच्छा न रखकर
कर्तव्य-कर्म कर । अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायगा‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वपर ही कर्तृत्व टिका हुआ
है अर्थात् भोक्तृत्वसे ही कर्तृत्व आता है । फलेच्छा सर्वथा मिटनेसे कर्तृत्व मिट
जाता है और कर्तृत्व मिटनेसे मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता । भाव यह हुआ कि वास्तवमें
मनुष्य कर्तृत्वमें उतना फँसा हुआ नहीं है, जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वमें फँसा हुआ है१ । १.अन्तःकरणमें भोक्तृत्व (फलेच्छा, फलासक्ति) अधिक रहनेके कारण ही मनुष्य भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान, प्रेमप्राप्ति आदिमें कर्मोंको कारण
मानता है । वास्तवमें भगवत्प्राप्ति आदि कर्मोंपर निर्भर नहीं
है, प्रत्युत भाव और बोधपर ही निर्भर है
। कारण कि अप्राप्त पदार्थोंकी प्राप्ति तो कर्मोंपर निर्भर है, पर नित्यप्राप्त तत्त्वकी
प्राप्ति कर्मोंपर निर्भर नहीं है । दूसरी बात, जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनसे ही होते हैं
। पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनके बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता;
अतः इनके संगठनके द्वारा किये हुए कर्मका फल अपने लिये चाहना
ईमानदारी नहीं है । अतः कर्मका फल चाहना मनुष्यके लिये हितकारक नहीं है । फलमें तेरा अधिकार नहीं है‒इससे
यह बात सिद्ध हो जाती है कि फलके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें अथवा न जोड़नेमें मात्र मनुष्य
स्वतन्त्र हैं, सबल हैं । इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं हैं ।
‘फलेषु’ पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता
है,
पर उस कर्मके फल अनेक चाहता है । जैसे,
मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरेको पुण्य हो जाय,
संसारमें मेरी कीर्ति हो जाय, लोग मेरेको अच्छा समझें, मेरा आदर-सत्कार करें, मेरेको इतना धन प्राप्त हो जाय आदि-आदि । രരരരരരരരരര |