।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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निष्काम होनेके उपाय(१) कामना पैदा होनेसे अभाव होता है, कामनाकी पूर्ति होनेसे परतन्त्रता और पूर्ति न होनेसे दुःख होता है तथा कामना-पूर्तिका सुख लेनेसे नयी कामनाकी उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये-नये कर्म करनेकी रुचि बढ़ती चली जाती हैऐसा ठीक-ठीक समझ लेनेसे निष्कामता स्वतः आ जाती है ।

(२) कर्म नित्य नहीं हैं; क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंका फल भी नित्य नहीं है; क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है । परन्तु स्वयं नित्य है । अनित्य कर्म और कर्मफलसे नित्य स्वरूपको कोई लाभ नहीं होता । ऐसा ठीक समझ लेनेसे निष्कामता आ जाती है । निष्काम होनेसे संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

कर्मोंमें निष्काम होनेके लिये साधकमें तेजीका विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंके होनेसे ही कर्मयोग ठीक तरहसे आचरणमें आयेगा, नहीं तो कर्महो जायँगे, पर योगनहीं होगा । तात्पर्य है कि अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें तो विवेककी प्रधानता होनी चाहिये और दूसरोंको सुख-आराम पहुँचानेमें सेवाभावकी प्रधानता होनी चाहिये ।

मा कर्मफलहेतुर्भूःतू कर्मफलका हेतु भी मत बन । तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ अपनी किंचिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्य कर्मफलका हेतु बन जाता है । आगे पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्‍लोकमें भी भगवान्‌ने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ केवलैः पद देकर बताया है कि शरीर आदिके साथ किंचिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये ।

शुभ क्रियाओंमें फलकी इच्छा न होनेपर भी मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया, किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा’‒ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफलका हेतु बनना है । कारण कि ऐसा भाव होनेसे शुभ कर्मके साथ और मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्ध हो जाता है, जो कि असत्‌का संग है । वास्तवमें अन्तःकरण, बहिःकरण और क्रियाओंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । इनका सम्बन्ध समष्‍टि संसारके साथ है । जैसे दूसरे किसी व्यक्तिके द्वारा दूसरे किसीका हित होता है, तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते, उसमें अपनेको निमित्त नहीं मानते । ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे किसीका हित हो जाय, तो उसमें अपनेको निमित्त न माने । जब अपनेको किसी भी क्रियामें निमित्त, हेतु नहीं मानेंगे, तो कर्म-फलका हेतु भी नहीं बनेंगे ।

मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणिकर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये । कारण कि कर्म न करनेमें आसक्ति होनेसे आलस्य, प्रमाद आदि होंगे । कर्मफलमें आसक्ति रहनेसे जैसा बन्धन होता है, वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें आलस्य, प्रमाद आदि होनेसे होता है; क्योंकि आलस्य-प्रमादका भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है, जो तमोगुण हैनिद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् (गीता १८ । ३९) और जिसका फल अधोगति होता हैअधो गच्छन्ति तामसाः’ (गीता १४ । १८) । तात्पर्य यह हुआ कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधनेवाली हो ही जायगीकारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता १३ । २१) ।

कर्मरहित होनेसे हमें लौकिक लाभ होगा, संसारमें हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सांसारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये और समाधि लग जानेसे आध्यात्मिक तत्त्वमें हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये । तात्पर्य है कि कर्म न करनेसे सांसारिक और पारमार्थिक उन्‍नति होगी’‒यह भी कर्म न करनेमें आसक्ति है; क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करनेसे अतीत है ।

इस श्‍लोकमें भगवान्‌का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदिके साथ साधककी सर्वथा निर्लिप्‍तता होनी चाहिये । इनके साथ किंचिन्मात्र भी किसी तरहका सम्बन्ध नहीं होना चाहिये ।

इस श्‍लोकके चार चरणोंमें चार बातें आयी हैं(१) कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, (२) फलमें कभी तेरा अधिकार नहीं है, (३) तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और (४) कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो । इनमेंसे पहले और चौथे चरणकी बात एक है तथा दूसरे और तीसरे चरणकी बात एक है । पहले चरणमें कर्म करनेमें अधिकार बताया है और चौथे चरणमें कर्म न करनेमें आसक्ति होनेका निषेध किया है । दूसरे चरणमें फलकी इच्छाका निषेध किया है और तीसरे चरणमें फलका हेतु बननेका निषेध किया है ।

तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यतामें रुचि होनेसे प्रमाद, आलस्य आदि तामसी वृत्तिके साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा । कर्म एवं कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे तेरा राजसी वृत्तिके साथ सम्बन्ध हो जायगा । प्रमाद, आलस्य, कर्म, कर्मफल आदिका सम्बन्ध न रहनेपर जो विवेकजन्य सुख होता है, प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे सात्त्विकी वृत्तिके साथ सम्बन्ध हो जायगा । इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्म-मरणका कारण है । अतः साधक कर्म, कर्मफल और इनके त्यागका सुखइनमेंसे किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, इनमें राग या आसक्ति न करे । कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है ।

परिशिष्‍ट भावएक कर्म-विभाग है और एक फल-विभाग है । मनुष्यका कर्म-विभागमें ही अधिकार है, फल-विभागमें नहीं । कारण कि नया पुरुषार्थ होनेसे कर्म-विभाग (करना) मनुष्यके अधीन है और पूर्वकृत कर्मोंका भोग होनेसे फल-विभाग (होना) प्रारब्धके अधीन है । कर्मयोगकी दृष्‍टिसे देखें तो मनुष्यको जो साधन-सामग्री (वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य) मिली है, वह प्रारब्धहै और उसका सदुपयोग करना अर्थात् उसको अपना और अपने लिये न मानकर, प्रत्युत दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवामें लगाना पुरुषार्थहै ।

कर्मयोगमें मुख्य बात हैअपने कर्तव्यके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करना और कर्मफलका अर्थात् अपने अधिकारका त्याग करना । दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और अपने अधिकारका त्याग करनेसे नया राग पैदा नहीं होता । इस प्रकार पुराना राग मिटनेसे और नया राग पैदा न होनेसे कर्मयोगी वीतराग हो जाता है । वीतराग होनेपर उसको तत्त्वज्ञान हो जाता है । कारण कि तत्त्वज्ञानकी प्राप्‍तिमें नाशवान् असत्‌ वस्तुओंका राग ही बाधक है

रागो  लिङ्गमबोधस्य  चित्तव्यायामभूमिषु ।

 कुतः शाद्वलता तस्य यस्याग्‍निः कोटरे तरोः ॥

तात्पर्य है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियामें मनका जो राग, खिंचाव है, यह अज्ञानका खास चिह्न है । जैसे किसी वृक्षके कोटरमें आग लगी हो तो वह वृक्ष हरा-भरा नहीं रहता, सूख जाता है, ऐसे ही जिसके भीतर राग-रूपी आग लगी हो, उसको शान्ति नहीं मिल सकती ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याएक कर्म-विभाग (करना) है और एक फल-विभाग (होना) है । ‘करना’ मनुष्यके अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध अथवा परमात्माके अधीन है । प्रारब्धसे अथवा परमात्माके विधानसे मनुष्यको जो कुछ मिला है, उसे अपने भोगमें न लगाकर दूसरोंकी सेवामें लगाना मनुष्यका कर्तव्य है ।

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