।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकमें कर्म करनेकी आज्ञा देनेके बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहनेका प्रकार बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयकर्तव्य-कर्म करनेकी विधिको अनुष्ठानमें लानेका प्रकार ।

   योगस्थः  कुरु कर्माणि  सङ्गं त्यक्त्वा  धनञ्‍जय ।

   सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥

अर्थ‒हे धनंजय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।

धनञ्‍जय = हे धनंजय ! (तू)

योगस्थः = योगमें स्थित हुआ

सङ्गम् = आसक्तिका

कर्माणि = कर्मोंको

त्यक्त्वा = त्याग करके

कुरु = कर; (क्योंकि)

सिद्ध्यसिद्ध्योः = सिद्धि-असिद्धिमें

समत्वम् = समत्व (ही)

समः = सम

योगः = योग

भूत्वा = होकर

उच्यते = कहा जाता है ।

व्याख्यासङ्गं त्यक्त्वाकिसी भी कर्ममें, किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्‍ततापूर्वक कर्म कर सकता है । अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायगा, तो निर्लिप्‍तता कैसे रहेगी ? और निर्लिप्‍तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा ?

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वाआसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा ? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगी ।

कर्मका पूरा होना अथवा न होना, सांसारिक दृष्‍टिसे उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्मको करनेसे आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दा होना, अन्तःकरणकी शुद्धि होना अथवा न होना आदि-आदि जो सिद्धि और असिद्धि है, उसमें सम रहना चाहिये

१.इस विषयमें श्रीशंकराचार्यजी महाराज (गीता २ । ४८ की व्याख्या करते हुए) कहते हैं

योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्‍वरार्थं तत्रापीश्‍वरो मे तुष्यत्विति सङ्गं त्यक्त्वा धनज्‍जय ! फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्माणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्‍तिलक्षणा सिद्धिस्तद् विपर्ययजा असिद्धिस्तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योरपि समस्तुल्यो भूत्वा कुरु कर्माणि । कोऽसौ योगो यत्रस्थः कुर्वित्युक्तमिदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योग उच्यते

हे धनंजय ! योगमें स्थित होकर केवल ईश्‍वरके लिये कर्म कर । उसमें भीईश्‍वर मेरेपर प्रसन्‍न हो जाय’‒इस संग (कामना)-को छोड़कर कर्म कर । फलतृष्णारहित पुरूषके द्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्‍न होनेवाली ज्ञानप्राप्‍ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्‍तिका न होना) असिद्धि है । ऐसी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर । वह कौन-सा योग है, जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है ? यही जो सिद्धि और असिद्धिमें सम होना है, इसीको योग कहते हैं ।

कर्मयोगीकी इतनी समता अर्थात् निष्कामभाव होना चाहिये कि कर्मोंकी पूर्ति हो चाहे न हो, फलकी प्राप्‍ति हो चाहे न हो, अपनी मुक्ति हो चाहे न हो, मुझे तो केवल कर्तव्य-कर्म करना है । साधकको असंगताका अनुभव न हुआ हो, उसमें समता न आयी हो, तो भी उसका उद्‌देश्य असंग होनेका, सम होनेका ही हो । जो बात उद्‌देश्यमें आ जाती है, वही अन्तमें सिद्ध हो जाती है । अतः साधनरूप समतासे अर्थात् अन्तःकरणकी समतासे साध्यरूप समता स्वतः आ जाती हैतदा योगमवाप्स्यसि (२ । ५३) ।

योगस्थः कुरु कर्माणिसिद्धि-असिद्धिमें सम होनेके बाद उस समतामें निरन्तर अटल स्थित रहना ही योगस्थहोना है । जैसे किसी कार्यके आरम्भमें गणेशजीका पूजन करते हैं, तो उस पूजनको कार्य करते समय हरदम साथमें नहीं रखते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि आरम्भमें एक बार सिद्धि-असिद्धिमें सम हो गये तो अब उस समताको हरदम साथमें नहीं रखना है, राग-द्वेष करते रहना है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि समतामें हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य-कर्मको करना चाहिये ।

समत्वं योग उच्यतेसमता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है । वह समता अन्तःकरणमें निरन्तर बनी रहनी चाहिये । आगे पाँचवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें भगवान् कहेंगे कि जिनका मन समतामें स्थित हो गया है, उन लोगोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिति ब्रह्ममें ही है ।

समताका नाम योग है’‒यह योगकी परिभाषा है । इसीको आगे छठे अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें कहेंगे कि दुःखोंके संयोगका जिसमें वियोग है, उसका नाम योग है ।ये दोनों परिभाषाएँ वास्तवमें एक ही हैं । जैसे दादकी बीमारीमें खुजलीका सुख होता है और जलनका दुःख होता है, पर ये दोनों ही बीमारी होनेसे दुःखरूप हैं, ऐसे ही संसारके सम्बन्धसे होनेवाला सुख और दुःखदोनों ही वास्तवमें दुःखरूप हैं । ऐसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदका नाम ही दुःख-संयोग-वियोगहै । अतः चाहे दुःखोंके संयोगका वियोग अर्थात् सुख-दुःखसे रहित होना कहें; चाहे सिद्धि-असिद्धिमें अर्थात् सुख-दुःखमें सम होना कहें, एक ही बात है ।

इस श्‍लोकका तात्पर्य यह हुआ कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे होनेवाली मात्र क्रियाओंको केवल संसारकी सेवारूपसे करना है, अपने लिये नहीं । ऐसा करनेसे ही समता आयेगी ।

बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बात

बुद्धि दो तरहकी होती हैअव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका । जिसमें सांसारिक सुख, भोग, आराम, मान-बड़ाई आदि प्राप्‍त करनेका ध्येय होता है, वह बुद्धि अव्यवसायात्मिकाहोती है (गीतादूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्‍लोक) । जिसमें समताकी प्राप्‍ति करनेका, अपना कल्याण करनेका ही उद्‌देश्य रहता है, वह बुद्धि व्यवसायात्मिकाहोती है (गीतादूसरे अध्यायका इकतालीसवाँ श्‍लोक) । अव्यवसायात्मिका बुद्धि अनन्त होती है और व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है । जिसकी बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं अव्यवसायी (अव्यवसित) होता हैबुद्धयोऽव्यवसायिनाम् (२ । ४१) तथा वह संसारी होता है । जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं व्यवसायी (व्यवसित) होता हैव्यवसितो हि सः’ (९ । ३०) तथा वह साधक होता है ।

समता भी दो तरहकी होती हैसाधनरूप समता और साध्यरूप समता । साधनरूप समता अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूप समता परमात्मस्वरूपकी होती है । सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें राग-द्वेषका न होना साधनरूप समता है, जिसका वर्णन गीतामें अधिक हुआ है । इस साधनरूप समतासे जिस स्वतःसिद्ध समताकी प्राप्‍ति होती है, वह साध्यरूप समता है, जिसका वर्णन इसी अध्यायके तिरपनवें श्‍लोकमें तदा योगमवाप्स्यसि पदोंसे हुआ है ।

अब इन चारों भेदोंको यों समझें कि एक संसारी होता है और एक साधक होता है, एक साधन होता है और एक साध्य होता है । भोग भोगना और संग्रह करनायही जिसका उद्‌देश्य होता है, वह संसारी होता है । उसकी एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत कामनारूपी शाखाओंवाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं ।

मेरेको तो समताकी प्राप्‍ति ही करनी है, चाहे जो हो जायऐसा निश्‍चय करनेवालेकी व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है । ऐसा साधक जब व्यवहारक्षेत्रमें आता है, तब उसके सामने सिद्धि-असिद्धि, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आदि आनेपर वह उनमें सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता । इस साधनरूप समतासे वह संसारसे ऊँचा उठ जाता हैइहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः’ (गीता ५ । १९ का पूर्वार्ध) । साधनरूप समतासे स्वतःसिद्ध समरूप परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती हैनिर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः’ (गीता ५ । १९ का उत्तरार्ध) ।

परिशिष्‍ट भावपातंजलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तिनिरोध-रूप साधनको योगकहा गया हैयोगश्‍चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१ । २) । इस योगके परिणामस्वरूप द्रष्‍टाकी स्वरूपमें स्थिति हो जाती हैतदा द्रष्‍टुः स्वरूपेऽवस्थानम् (१ । ३) । इस प्रकार पातंजलयोगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया है, उसीको गीता योगकहती हैसमत्वं योग उच्यते, ‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् (६ । २३) । तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिको योगकहती है । इस योग अर्थात् समतामें स्थित होनेपर फिर कभी इससे वियोग अर्थात् व्युत्थान नहीं होता, इसलिये इसको नित्ययोगभी कहते हैं । चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेपर तो निर्विकल्प अवस्थाहोती है, पर समतामें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव होनेपर निर्विकल्प बोध (सहजावस्था) होता है । निर्विकल्प बोध अवस्था नहीं है, प्रत्युत सम्पूर्ण अवस्थाओंसे अतीत तथा उनका प्रकाशक एवं सम्पूर्ण योग-साधनोंका फल है । अवस्था तो निर्विकल्प और सविकल्प दोनों होती है, पर बोध निर्विकल्प ही होता है । इस प्रकार गीताका योग पातंजलयोगदर्शनके योगसे बहुत विलक्षण है ।

पातंजलयोगदर्शनके योगका अधिकारी वह है, जो मूढ़ और क्षिप्‍त वृत्तिवाला नहीं है, प्रत्युत विक्षिप्‍त वृत्तिवाला है । परन्तु भगवान्‌की प्राप्‍ति चाहनेवाले सब-के-सब मनुष्य गीताके योगके अधिकारी हैं । इतना ही नहीं, जो मनुष्य भोग और संग्रहको महत्त्व न देकर इस योगको ही महत्त्व देता है और इसको प्राप्‍त करना चाहता हैऐसा योगका जिज्ञासु भी वेदोंमें वर्णित सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता हैजिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते (गीता ६ । ४४) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याएक वस्तु या व्यक्तिमें राग होगा तो दूसरी वस्तु या व्यक्तिमें द्वेष होना स्वाभाविक है । राग-द्वेषके रहते हुए कर्मकी सिद्धि-असिद्धिमें समताका आना असम्भव है राग-द्वेषके न रहनेपर जो समता आती है, उस समतामें स्थित रहकर कर्तव्य-कर्मोंको करना चाहिये । समताको ही ‘योग’ कहा जाता है । कर्म तो करणसापेक्ष होते हैं, पर योग करणनिरपेक्ष है । इस समतारूपी योगमें स्थित साधक कभी विचलित (योगभष्ट) नहीं होता ।

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