Listen सम्बन्ध‒उनतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक जिस समबुद्धिका
वर्णन हुआ है, सकामकर्मकी अपेक्षा उस समबुद्धिकी श्रेष्ठता आगेके श्लोकमें
बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒सकाम-कर्मकी अपेक्षा समबुद्धिकी श्रेष्ठता
बताकर समबुद्धिका आश्रय लेनेकी आज्ञा देना । दूरेण
ह्यवरं
कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥ अर्थ‒बुद्धियोग (समता)-की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट
हैं । अतः हे धनंजय ! तू बुद्धि (समता)-का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।
व्याख्या‒‘दूरेण ह्यवरं कर्म
बुद्धियोगात्’‒बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त
ही निकृष्ट है । कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका
भी संयोग और वियोग होता है । परन्तु योग (समता) नित्य है;
उसका कभी वियोग नहीं होता, उसमें कोई विकृति नहीं आती । अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त
ही निकृष्ट हैं । सम्पूर्ण कर्मोंमें समता ही श्रेष्ठ है । समताके बिना तो मात्र
जीव कर्म करते ही रहते हैं तथा उन कर्मोंके परिणाममें जन्मते-मरते और दुःख भोगते रहते
हैं । कारण कि समताके बिना कर्मोंमें उद्धार करनेकी ताकत नहीं है । कर्मोंमें समता
ही कुशलता है । अगर कर्मोंमें समता नहीं होगी तो शरीरमें
अहंता-ममता हो जायगी और शरीरमें अहंता-ममता होना ही पशुबुद्धि है । भागवतमें
शुकदेवजीने राजा परीक्षित्से कहा है‒‘त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।’ (१२ । ५ । २) अर्थात् हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर
जाऊँगा । ‘दूरेण’ कहनेका तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अन्धकार कभी समकक्ष नहीं
हो सकते,
ऐसे ही बुद्धियोग और सकामकर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते ।
इन दोनोंमें दिन-रातकी तरह महान् अन्तर है । कारण कि बुद्धियोग तो परमात्माकी प्राप्ति
करानेवाला है और सकामकर्म जन्म-मरण देनेवाला है । ‘बुद्धौ
शरणमन्विच्छ’‒तू बुद्धि (समता)-की शरण ले । समतामें
निरन्तर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है । समतामें स्थित रहनेसे ही तुझे स्वरूपमें
अपनी स्थितिका अनुभव होगा । ‘कृपणाः
फलहेतवः’‒कर्मोंके फलका हेतु बनना अत्यन्त निकृष्ट है । कर्म,
कर्मफल, कर्मसामग्री और शरीरादि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना
ही कर्मफलका हेतु बनना है । अतः भगवान्ने सैंतालीसवें श्लोकमें ‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’ कहकर कर्मोंके फलका हेतु बननेमें निषेध किया है । कर्म और कर्मफलका विभाग अलग है तथा इन दोनोंसे रहित जो नित्य-तत्त्व
है,
उसका विभाग अलग है । वह नित्य-तत्त्व अनित्य कर्मफलके आश्रित
हो जाय‒इसके समान निकृष्टता और क्या होगी ? परिशिष्ट भाव‒योगकी अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं अर्थात् कल्याणकारक
नहीं हैं । जैसे पर्वतसे अणु बहुत दूर है अर्थात् अणुको पर्वतके पास रखकर दोनोंकी तुलना
नहीं की जा सकती, ऐसे ही योगसे कर्म बहुत दूर है अर्थात् योग और कर्मकी तुलना
नहीं की जा सकती । कर्मोंमें योग ही कुशलता है‒‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (गीता २ । ५०), इसलिये योगके बिना कर्म निकृष्ट हैं, निरर्थक हैं१ और बाधक हैं‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः ।’ १.योगके बिना कर्म और ज्ञान‒दोनों निरर्थक हैं, पर भक्ति निरर्थक नहीं है । कारण कि भक्तिमें भगवान्के साथ सम्बन्ध रहता है; अतः भगवान् स्वयं भक्तको योग प्रदान
करते हैं‒‘ददामि बुद्धियोगं तम्’ (गीता १० । १०) कर्मयोगमें ‘कर्म’ करणसापेक्ष है, पर ‘योग’ करणनिरपेक्ष है । योगकी प्राप्ति कर्मसे नहीं होती,
प्रत्युत सेवा, त्यागसे होती है । अतः कर्मयोग कर्म नहीं है । कर्मयोग करणनिरपेक्ष
अर्थात् विवेकप्रधान साधन है । अगर सेवा, त्यागकी
प्रधानता न हो तो कर्म होगा, कर्मयोग होगा ही नहीं । समता तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करानेवाली है,
पर सकामकर्म जन्म-मरण देनेवाला है । इसलिये साधकको समताका ही
आश्रय लेना चाहिये, समतामें ही स्थित रहना चाहिये । समतामें स्थित होनेसे वह दीन
नहीं रहेगा, प्रत्युत कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जायगा । परन्तु जो सकामभावपूर्वक (अपने लिये) कर्म करता है, वह
सदा दीन, बद्ध
ही रहता है । गीतामें कर्मयोगके लिये तीन शब्द आये हैं‒बुद्धि, योग और बुद्धियोग । कर्मयोगमें कर्मकी प्रधानता नहीं है,
प्रत्युत ‘योग’ की प्रधानता है । योग, बुद्धि और बुद्धियोग‒तीनोंका एक ही अर्थ है । कर्मयोगमें व्यवसायात्मिका बुद्धिकी
प्रधानता होनेसे इसको ‘बुद्धि’ कहा गया है और विवेकपूर्वक त्यागकी प्रधानता होनेसे इसको ‘योग’ या ‘बुद्धियोग’ कहा गया है । ध्यानयोगमें ‘मन’ की और कर्मयोगमें ‘बुद्धि’ की प्रधानता है । मनके निरोधमें स्थिरता और चंचलता दोनों बहुत
दूरतक रहती है; क्योंकि इसमें साधक मनको संसारसे हटाना और परमात्मामें लगाना चाहता है । मनको संसारसे
हटानेपर संसारकी सत्ता बनी रहती है । यह सिद्धान्त है कि जबतक दूसरी सत्ताकी मान्यता
रहती है,
तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं हो सकता । इसलिये समाधितक पहुँचनेपर
भी समाधि और व्युत्थान‒ये दो अवस्थाएँ रहती हैं । परन्तु बुद्धिकी प्रधानता रहनेपर
कर्मयोगमें विवेककी मुख्यता रहती है । विवेकमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं । कर्मयोगी असत् वस्तुओंको सेवा-सामग्री मानकर
उनको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है, जिससे असत्का त्याग शीघ्र और सुगमतापूर्वक हो जाता है । मनका निरोध करना निरन्तर नहीं होता,
प्रत्युत समय-समयपर और एकान्तमें होता है । परन्तु व्यवसायात्मिका
बुद्धि अर्थात् बुद्धिका एक निश्चय निरन्तर रहता है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒योगकी अपेक्षा कर्म
दूरमें ही निकृष्ट हैं, उनकी परस्पर तुलना नहीं हो सकती । योग नित्य-निरन्तर
ज्यों-का-त्यों रहनेवाला (अविनाशी) है, और कर्म आदि-अन्तवाला
(नाशवान्) है, फिर उनकी तुलना हो ही कैसे सकती है ? इसलिये कर्मोंका आश्रय
न लेकर योगका ही आश्रय लेना चाहिये । योगकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत कर्म तथा
कर्मफलके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है । कर्मोंका आश्रय जन्म-मरण देनेवाला और
योगका आश्रय मुक्त करनेवाला है । രരരരരരരരരര |