Listen सम्बन्ध‒मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति दूर होनेपर योगको प्राप्त हुए स्थिर बुद्धिवाले पुरुषके विषयमें अर्जुन प्रश्न करते हैं । प्रधान विषय‒५४—७२ श्लोकतक‒स्थितप्रज्ञके लक्षणों आदिका वर्णन । सूक्ष्म
विषय‒स्थितप्रज्ञके विषयमें अर्जुनके चार प्रश्न । अर्जुन उवाच स्थितप्रज्ञस्य का भाषा
समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः
किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४ ॥ अर्थ‒अर्जुन बोले‒हे केशव ! परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या
लक्षण होते हैं ? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार करता है
?
व्याख्या‒[ यहाँ अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें जो प्रश्न किये हैं,
इन प्रश्नोंके पहले अर्जुनके मनमें कर्म और बुद्धि (दूसरे अध्यायके
सैंतालीसवेंसे पचासवें श्लोकतक)-को लेकर शंका पैदा हुई थी । परन्तु भगवान्ने बावनवें-तिरपनवें श्लोकोंमें
कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिको तर जायगी,
तब तू योगको प्राप्त हो जायगा‒यह सुनकर अर्जुनके मनमें शंका हुई कि जब मैं योगको प्राप्त
हो जाऊँगा, स्थितप्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे
? अतः अर्जुनने इस अपनी व्यक्तिगत
शंकाको पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धिको लेकर अर्थात् सिद्धान्तको लेकर जो दूसरी
शंका थी,
उसको अर्जुनने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंका वर्णन होनेके बाद (तीसरे
अध्यायके पहले-दूसरे श्लोकमें) पूछ लिया । अगर अर्जुन सिद्धान्तका प्रश्न यहाँ चौवनवें
श्लोकमें ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञके विषयमें प्रश्न करनेका अवसर बहुत दूर पड़ जाता
। ] ‘समाधिस्थस्य’१‒जो मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो चुका है,
उसके लिये यहाँ ‘समाधिस्थ’ पद आया है । १.यहाँ ‘समाधि’ पद
परमात्माका वाचक है । इसको पहले चौवालीसवें श्लोकमें ‘समाधौ न विधीयते’ पदोंसे कहा है । ‘स्थितप्रज्ञस्य’‒यह पद साधक और सिद्ध दोनोंका वाचक है । जिसका विचार दृढ़ है,
जो साधनसे कभी विचलित नहीं होता,
ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धिवाला) है और परमात्मतत्त्वका
अनुभव होनेसे जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है । अतः यहाँ ‘स्थितप्रज्ञ’ शब्दसे साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं । पहले इकतालीसवेंसे
पैंतालीसवें श्लोकतक और सैंतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक साधकोंका वर्णन हुआ है;
अतः आगेके श्लोकोंमें सिद्धके लक्षणोंमें साधकोंका भी वर्णन
हुआ है । यहाँ शंका होती है कि अर्जुनने तो ‘समाधिस्थस्य’ पदसे सिद्ध स्थितप्रज्ञकी बात ही पूछी थी,
पर भगवान्ने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंमें साधकोंकी बातें क्यों
कहीं ? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधककी तो प्रायः साधन-अवस्थामें
ही कर्मोंसे उपरति हो जाती है । सिद्ध-अवस्थामें वह कर्मोंसे विशेष उपराम हो जाता है
। भक्तियोगी साधककी भी साधन-अवस्थामें जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेकी रुचि होती है और इनकी
बहुलता भी होती है । सिद्ध-अवस्थामें तो भगवत्सम्बन्धी कर्म विशेषतासे होते हैं । इस
तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी‒दोनोंकी साधन और सिद्ध-अवस्थामें अन्तर आ जाता है,
पर कर्मयोगीकी साधन और सिद्ध-अवस्थामें अन्तर नहीं आता । उसका
दोनों अवस्थाओंमें कर्म करनेका प्रवाह ज्यों-का-त्यों चलता रहता है । कारण कि साधन-अवस्थामें
उसका कर्म करनेका प्रवाह रहा है और उसके योगपर आरूढ़ होनेमें भी कर्म ही खास कारण रहे
हैं । अतः भगवान्ने सिद्धके लक्षणोंमें, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं,
उनके लक्षण भी बता दिये हैं । ‘का भाषा’२‒परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यको किस वाणीसे कहा
जाता है अर्थात् उसके क्या लक्षण होते हैं ? (इसका उत्तर भगवान्ने आगेके श्लोकमें दिया है ।) २ .‘कया भाषया (वाण्या)
भाष्यत इति भाषा ।’ ‘स्थितधीः
किं प्रभाषेत’‒वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है
? (इसका उत्तर भगवान्ने छप्पनवें-सत्तावनवें
श्लोकमें दिया है ।) ‘किमासीत’‒वह कैसे बैठता है अर्थात् संसारसे किस तरह उपराम होता है
? (इसका उत्तर भगवान्ने अट्ठावनवें
श्लोकसे तिरसठवें श्लोकतक दिया है ।) ‘व्रजेत
किम्’‒वह कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार कैसे करता है
? (इसका उत्तर भगवान्ने चौंसठवेंसे
इकहत्तरवें श्लोकतक दिया है ।) രരരരരരരരരര |