।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् आगेके श्‍लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्‍नका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषयकामनाओंके त्यागसे स्वरूपमें स्थित होनेका कथन ।

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।

         आत्मन्येवात्मना तुष्‍टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥

अर्थ‒श्रीभगवान् बोले‒हे पृथानन्दन ! जिस कालमें साधक मनमें आयी सम्पूर्ण कामनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्‍ट रहता है, उस कालमें वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।

पार्थ = हे पृथानन्दन !

आत्मनि = अपने-आपमें

यदा = जिस कालमें (साधक)

एव = ही

मनोगतान् = मनमें आयी

तुष्‍टः = सन्तुष्‍ट रहता है,

सर्वान् = सम्पूर्ण

तदा = उस कालमें (वह)

कामान् = कामनाओंका

स्थितप्रज्ञः = स्थिरबुद्धि

प्रजहाति = भलीभाँति त्याग कर देता है (और)

उच्यते = कहा जाता है ।

आत्मना = अपने-आपसे

 

व्याख्या[ गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग, भक्तियोग आदि)-के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है । जैसे, भक्तियोगमें साधक भगवान्‌के सिवाय और कुछ है ही नहींऐसे अनन्य-योगसे उपासना करता है (बारहवें अध्यायका छठा श्‍लोक); अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहित हो जाता है (बारहवें अध्यायका तेरहवाँ श्‍लोक) । ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्‍त देखता है (चौदहवें अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक); अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (चौदहवें अध्यायके बाईसवेंसे पचीसवें श्‍लोकतक) । ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता हैयह बात इस श्‍लोकमें बताते हैं । ]

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है । कामना तो आने-जानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला है; अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है ? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती हैमनोगतान्; अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है ? परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है ।

जहाति क्रियाके साथ प्र उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामनाका कोई भी अंश किंचिन्मात्र भी नहीं रहता ।

अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता । त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है । ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है, पर उसको अपनेमें मान लिया है । इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ प्रजहाति पदसे कहा गया है ।

यहाँ कामान् शब्दमें बहुवचन होनेसे सर्वान् पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी सर्वान् पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे ।

आत्मन्येवात्मना तुष्‍टःजिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्‍ट रहता है अर्थात् अपने-आपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है ।

सन्तोष दो तरहका होता हैएक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है । अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न होयह सन्तोष गुण है और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव हैयह सन्तोष स्वरूप है । यह स्वरूपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है । इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता । स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है ।

स्थितप्रज्ञस्तदोच्यतेस्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था, उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था । परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था । अब उसने अपनेमेंसे सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है ।

साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है । परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः-स्वाभाविक स्थिर हो जाती है ।

कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है । उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैंआरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता ६ । ३) । इसलिये कर्मयोगीका कर्मोंके साथ सम्बन्ध साधक-अवस्थामें भी रहता है और सिद्धावस्थामें भी । सिद्धावस्थामें कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार कर्म होते रहते हैं, जो दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं (गीतातीसरे अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । इसी बातको भगवान्‌ने चौथे अध्यायमें कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्‍त रहता है और निर्लिप्‍त रहते हुए ही कर्म करता हैकर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’ (४ । १८) ।

भगवान्‌ने तिरपनवें श्‍लोकमें योगकी प्राप्‍तिमें बुद्धिकी दो बातें कही थींसंसारसे हटनेमें तो बुद्धि निश्‍चल हो और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि अचल हो अर्थात् निश्‍चल कहकर संसारका त्याग बताया और अचल कहकर परमात्मामें स्थिति बतायी । उन्हीं दो बातोंको लेकर यहाँ यदा और तदा पदसे कहा गया है कि जब साधक कामनाओंसे सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूपमें ही सन्तुष्‍ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है । तात्पर्य है कि जबतक कामनाका अंश रहता है, तबतक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओंका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब वह सिद्ध कहलाता है । इन्हीं दो बातोंका वर्णन भगवान्‌ने इस अध्यायकी समाप्‍तितक किया है; जैसेयहाँ प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे संसारका त्याग बताया और फिर आत्मन्येवात्मना तुष्‍टः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी ।

छप्पनवें श्‍लोकके पहले भागमें (तीन चरणोंमें) संसारका त्याग और स्थितधीर्मुनिः पदसे परमात्मामें स्थिति बतायी । सत्तावनवें और अट्ठावनवें श्‍लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठिता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । उनसठवें श्‍लोकके पहले भागमें संसारका त्याग बताया और परं दृष्ट्वा पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । साठवें श्‍लोकसे इकसठवें श्‍लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर युक्त आसीत मत्परः आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । बासठवेंसे पैंसठवें श्‍लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर बुद्धिः पर्यवतिष्‍ठते पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । छाछठवेंसे अड़सठवें श्‍लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठिता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । उनहत्तरवें श्‍लोकमें या निशा सर्वभूतानाम् तथा यस्यां जाग्रति भूतानि पदोंसे संसारका त्याग बताया और तस्यां जागर्ति संयमी तथा सा निशा पश्यतो मुनेः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । सत्तरवें और इकहत्तरवें श्‍लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर स शान्तिमधिगच्छति पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी । बहत्तरवें श्‍लोकमें नैनां प्राप्य विमुह्यति पदोंसे संसारका त्याग बताया और ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी ।

परिशिष्‍ट भावएक विभाग अस्थिर बुद्धिवालोंका है और एक विभाग स्थिर बुद्धिवालोंका है । अस्थिर बुद्धिवालोंकी बात तो पहले इकतालीसवेंसे चौवालीसवें श्‍लोकतक कह दी, अब स्थिर बुद्धिवालोंकी बात पचपनवेंसे इकहत्तरवें श्‍लोकतक कहते हैं । जिस समय साधक सांसारिक रुचिका त्याग करके अपने स्वरूपमें स्थित रहता है, उस समय वह स्थिर बुद्धिवाला कहा जाता है ।

जिसका परमात्माका उद्‌देश्य होता है, उसकी बुद्धि एक निश्‍चयवाली होती है; क्योंकि परमात्मा भी एक ही हैं । परन्तु जिसका संसारका उद्‌देश्य होता है, उसकी बुद्धि असंख्य कामनाओंवाली होती है; क्योंकि सांसारिक वस्तुएँ असंख्य हैं (गीतादूसरे अध्यायका इकतालीसवाँ श्‍लोक) ।

समताकी प्राप्‍तिके लिये बुद्धिकी स्थिरता बहुत आवश्यक है । पातंजलयोगदर्शनमें तो मनकी स्थिरता (वृत्तिनिरोध)-को महत्त्व दिया गया है, पर गीता बुद्धिकी स्थिरता (उद्‌देश्यकी दृढ़ता)-को ही महत्त्व देती है । कारण कि कल्याणप्राप्‍तिमें मनकी स्थिरताका उतना महत्त्व नहीं है, जितना बुद्धिकी स्थिरताका महत्त्व है । मनकी स्थिरतासे लौकिक सिद्धियाँ प्राप्‍त होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे पारमार्थिक सिद्धि (कल्याणप्राप्‍ति) होती है । कर्मयोगमें बुद्धिकी स्थिरता ही मुख्य है । अगर मनकी स्थिरता होगी तो कर्मयोगी कर्तव्य-कर्म कैसे करेगा ? कारण कि मन स्थिर होनेपर बाहरी क्रियाएँ रुक जाती हैं । भगवान् भी योग (समता)-में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देते हैंयोगस्थः कुरु कर्माणि (२ । ४८) ।

प्रजहाति और कामान्सर्वान् पद देनेका तात्पर्य है कि किंचिन्मात्र भी कामना न रहे, पूरा-का-पूरा त्याग हो जाय । कारण कि यह कामना ही परमात्मप्राप्‍तिमें खास बाधक है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒मनकी स्थिरताकी अपेक्षा बुद्धिकी स्थिरता श्रेष्‍ठ है; क्योंकि मनकी स्थिरतासे तो लौकिक सिद्धियाँ प्रकट होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे कल्याण हो जाता है । मनकी स्थिरता हैवृत्तियोंका निरोध और बुद्धिकी स्थिरता हैउद्देश्यकी दृढ़ता ।

त्याग उसीका होता है जो वास्तवमें सदासे ही त्यक्त है । कामना स्वयंगत न होकर मनोगत है । परन्तु मनके साथ तादात्म्य होनेके कारण कामना स्वयंमें दीखने लगती है । जब साधकको स्वयंमें सम्पूर्ण कामनाओंके अभावका अनुभव हो जाता है, तब उसकी बुद्धि स्वतः स्थिर हो जाती है ।

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