।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब आगेके दो श्‍लोकोंमें स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है ?’ इस दूसरे प्रश्‍नका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषय५६-५७ श्‍लोकस्थितप्रज्ञके भावपरक भाषणका वर्णन ।

दुःखेष्वनुद्विग्‍नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

         वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥

अर्थ‒दुःखोंकी प्राप्‍ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्‍ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो रागभय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया हैवह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।

दुःखेषु = दुखोंकी प्राप्‍ति होनेपर

वीतरागभयक्रोधः = जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, (वह)

अनुद्विग्‍नमनाः = जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता (और)

मुनिः = मननशील मनुष्य

सुखेषु = सुखोंकी प्राप्‍ति होनेपर

स्थितधीः = स्थिरबुद्धि

विगतस्पृहः = जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती (तथा)

उच्यते = कहा जाता है ।

व्याख्याअर्जुनने तो स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है ?’ ऐसा क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्‍न किया थापर भगवान् भावकी प्रधानताको लेकर उत्तर देते हैंक्योंकि क्रियाओंमें भाव ही मुख्य है । क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है । भाव बदलनेसे क्रिया बदल जाती है अर्थात् बाहरसे क्रिया वैसी ही दीखनेपर भी वास्तवमें क्रिया वैसी नहीं रहती । उसी भावकी बात भगवान् यहाँ कह रहे हैं । ]

१.गीतामें अर्जुनने जहाँ-कहीं भी क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्‍न किया हैउसका उत्तर भगवान्‌ने भाव और बोधकी प्रधानताको लेकर ही दिया है । कारण कि क्रियाओंमें भाव और बोध ही मुख्य हैं । भाव और बोधके अनुसार ही क्रियाएँ होती हैं । जैसेअर्जुनने चौदहवें अध्यायमें पूछा कि गुणातीत पुरुषके आचरण कैसे होते हैं ? तो भगवान्‌ने भावकी मुख्यताको लेकर उत्तर दिया कि उसके आचरण समतापूर्वक होते हैं ।

दुःखेष्वनुद्विग्‍नमनाःदुःखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्‍ति होनेपर भी जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता अर्थात् कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करनेमें बाधा लग जानानिन्दा-अपमान होनाकर्मका फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता ।

कर्मयोगीके मनमें उद्वेगहलचल न होनेका कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता हैदूसरोंके हितके लिये कर्म करनाकर्मोंको सांगोपांग करनाकर्मोंके फलमें कहीं आसक्तिममताकामना न हो जायइस विषयमें सावधान रहना । ऐसा करनेसे उसके मनमें एक प्रसन्‍नता रहती है । उस प्रसन्‍नताके कारण कितनी ही प्रतिकूलता आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता ।

सुखेषु विगतस्पृहःसुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्‍ति होनेपर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात् वर्तमानमें कर्मोंका सांगोपांग हो जानातात्कालिक आदर और प्रशंसा होनाअनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहेयह परिस्थिति सदा मिलती रहे’‒ऐसी स्पृहा नहीं होती । उसके अन्तःकरणमें अनुकूलताका कुछ भी असर नहीं होता ।

वीतरागभयक्रोधःसंसारके पदार्थोंका मनपर जो रंग चढ़ जाता है उसको राग कहते हैं । पदार्थोंमें राग होनेपर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थोंका नाश करता हैउनसे सम्बन्ध-विच्छेद कराता हैउनकी प्राप्‍तिमें विघ्‍न डालता हैतो मनमें भय होता है । अगर वह व्यक्ति निर्बल होता हैतो मनमें क्रोध होता है । परन्तु जिसके भीतर दूसरोंको सुख पहुँचानेकाउनका हित करनेकाउनकी सेवा करनेका भाव जाग्रत् हो जाता हैउसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है । रागके मिटनेसे भय और क्रोध भी नहीं रहते । अतः वह रागभय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो जाता है ।

जबतक आंशिकरूपसे उद्वेगस्पृहारागभय और क्रोध रहते हैंतबतक वह साधक होता है । इनसे सर्वथा रहित होनेपर वह सिद्ध हो जाता है ।

[ वासनाकामना आदि सभी एक रागके ही स्वरूप हैं । केवल वासनाका तारतम्य होनेसे उसके अलग-अलग नाम होते हैंजैसे अन्तःकरणमें जो छिपा हुआ राग रहता हैउसका नाम वासना है । उस वासनाका ही दूसरा नाम आसक्ति और प्रियता है । मेरेको वस्तु मिल जायऐसी जो इच्छा होती हैउसका नाम कामना है । कामना पूरी होनेकी जो सम्भावना हैउसका नाम आशा है । कामना पूरी होनेपर भी पदार्थोंके बढ़नेकी तथा पदार्थोंके और मिलनेकी जो इच्छा होती हैउसका नाम लोभ है । लोभकी मात्रा अधिक बढ़ जानेका नाम तृष्णा है । तात्पर्य है कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंमें जो खिंचाव हैश्रेष्‍ठ और महत्त्व-बुद्धि हैउसीको वासनाकामना आदि नामोंसे कहते हैं । ]

स्थितधीर्मुनिरुच्यतेऐसे मननशील कर्मयोगीकी बुद्धि स्थिरअटल हो जाती है । मुनि शब्द वाणीपर लागू होता हैइसलिये भगवान्‌ने किं प्रभाषेत के उत्तरमें मुनि शब्द कह दिया है । परंतु वास्तवमें मुनि शब्द केवल वाणीपर ही अवलम्बित नहीं है । इसीलिये भगवान्‌ने सत्रहवें अध्यायमें मौन शब्दका प्रयोग मानसिक तपमें किया हैवाणीके तपमें नहीं (सत्रहवें अध्यायका सोलहवाँ श्‍लोक) ।

कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ मननशील कर्मयोगीको मुनि कहा गया है । मननशीलताका तात्पर्य हैसावधानीका मननजिससे कि मनमें कोई कामना-आसक्ति न आ जाय । निरन्तर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगीकी सावधानी हैक्योंकि पहले साधक-अवस्थामें उसकी ऐसी सावधानी रही है (गीतातीसरे अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक) और इसीसे वह परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त हुआ है ।

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