।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपीछेके दो श्‍लोकोंमें जो बात कही है, उसीको आगेके दो श्‍लोकोंमें व्यतिरेक रीतिसे पुष्‍ट करते हैं ।

सूक्ष्म विषयअसंयमी पुरुषकी व्यवसायात्मिका बुद्धि और भावना न होनेका तथा उसको सुख और शान्‍ति प्राप्‍त न होनेका कथन ।

नास्ति  बुद्धिरयुक्तस्य  न  चायुक्तस्य भावना ।

        न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥

अर्थ‒जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त मनुष्यमें निष्कामभाव अथवा कर्तव्य-परायणताका भाव नहीं होता । निष्कामभाव न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती । फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ?

अयुक्तस्य = जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी

अभावयतः = निष्कामभाव न होनेसे (उसको)

बुद्धिः = (व्यवसायात्मिका) बुद्धि

शान्तिः = शान्ति

न = नहीं

न = नहीं मिलती ।

अस्ति = होती

च = फिर

च = और

अशान्तस्य = शान्तिरहित मनुष्यको

अयुक्तस्य = (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त मनुष्यमें

सुखम् = सुख

भावना = निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणताका भाव

कुतः = कैसे (मिल सकता है) ?

न = नहीं होता ।

 

व्याख्या[ यहाँ कर्मयोगका विषय है । कर्मयोगमें मन और इन्द्रियोंका संयम करना मुख्य होता है । विवेकपूर्वक संयम किये बिना कामना नष्‍ट नहीं होती । कामनाके नष्‍ट हुए बिना बुद्धिकी स्थिरता नहीं होती । अतः कर्मयोगी साधकको पहले मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये । परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, उसकी बात इस श्‍लोकमें कहते हैं । ]

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्यजिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे अयुक्त (असंयमी) पुरुषकी मेरेको केवल परमात्मप्राप्‍ति ही करनी हैऐसी एक निश्‍चयवाली बुद्धि नहीं होती कारण कि मन और इन्द्रियाँ संयमित न होनेसे वह उत्पत्ति-विनाशशील सांसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है । वह कभी मान चाहता है, कभी सुख-आराम चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी भोग चाहता हैइस प्रकार उसके भीतर अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती हैं । इसलिये उसकी बुद्धि एक निश्‍चयवाली नहीं होती ।

.अहंता’ (‘मैं’-पन) का परिवर्तन हुए बिना इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं और इन्द्रियोंको वशमें किये बिना एक निश्‍चयवाली बुद्धि नहीं होती । यदि अहंताका परिवर्तन हो जाय किमैं साधक हूँ और साधन करना ही मेरा काम हैतो मन-इन्द्रियाँ अपने-आप वशमें हो जाती हैं, उनको वशमें करना नहीं पड़ता ।

न चायुक्तस्य भावनाजिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती, उसकी मेरेको तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और फलकी इच्छा, कामना, आसक्ति आदिका त्याग करना है’‒ऐसी भावना नहीं होती । ऐसी भावना न होनेमें कारण हैअपना ध्येय स्थिर न होना ।

न चाभावयतः शान्तिःजो अपने कर्तव्यके परायण नहीं रहता, उसको शान्ति नहीं मिल सकती । जैसे साधु, शिक्षक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि यदि अपने-अपने कर्तव्यमें तत्पर नहीं रहते, तो उनको शान्ति नहीं मिलती । कारण कि अपने कर्तव्यके पालनमें दृढ़ता न रहनेसे ही अशान्ति पैदा होती है ।

अशान्तस्य कुतः सुखम्जो अशान्त है, वह सुखी कैसे हो सकता है ? कारण कि उसके हृदयमें हरदम हलचल होती रहती है । बाहरसे उसको कितने ही अनुकूल भोग आदि मिल जायँ तो भी उसके हृदयकी हलचल नहीं मिट सकती अर्थात् वह सुखी नहीं हो सकता ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याकर्मयोगमें निष्कामभावकी मुख्यता हैं । निष्कामभावके लिये मन और इन्द्रियोंका संयम तथा एक निश्‍चयवाली बुद्धिका होना आवश्यक है ।

अशान्तिका मूल कारण कामना है । जबतक मनुष्यके भीतर किसी प्रकारकी कामना है, तबतक उसे शान्ति नहीं मिल सकती । कामनायुक्त चित्त सदा अशान्त ही रहता है ।

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