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सम्बन्ध‒अब भगवान् आगेके श्लोकमें ‘स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ?’‒इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं । सूक्ष्म विषय‒राग-द्वेषसे रहित अपने वशीभूत इन्द्रियोंके
द्वारा विषयोंका सेवन करनेपर भी स्थितप्रज्ञता होनेका कथन । रागद्वेषवियुक्तैस्तु
विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥ प्रसादे
सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते
। प्रसन्नचेतसो
ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥ अर्थ‒परन्तु वशीभूत अन्तः-करणवाला (कर्मयोगी साधक) राग-द्वेषसे रहित
अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ (अन्तःकरणकी) निर्मलताको
प्राप्त हो जाता है । (अन्तःकरणकी) निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका
नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी (परमात्मामें)
स्थिर हो जाती है ।
व्याख्या‒‘तु’‒पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन
करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे
उत्थान हो जाता है । वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित
होना बताया । इस प्रकार पहले कहे गये विषयसे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ
‘तु’ पद आया है । ‘विधेयात्मा’‒साधकका अन्तःकरण अपने वशमें रहना चाहिये । अन्तःकरणको वशीभूत
किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी
सम्भावना रहती है । वास्तवमें देखा जाय तो अन्तःकरणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके
लिये आवश्यक है । कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है । ‘आत्मवश्यैः
रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः’‒जैसे ‘विधेयात्मा’ पद अन्तःकरणको वशमें करनेके अर्थमें आया है,
ऐसे ही ‘आत्मवश्यैः’
पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है । तात्पर्य है
कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके
लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेषरहित होना जरूरी है । अतः इन्द्रियोंसे
किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो । कारण कि
विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना
महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है । इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने साधकके
लिये सावधानी बतायी है कि ‘प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं । साधक इनके
वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं ।’
पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि ‘जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है,
वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है ।’ ‘विषयान्
चरन्’‒जिसका अन्तःकरण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे
रहित तथा अपने वशमें की हुई हैं, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार
तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता । भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता
है । इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ ‘विधेयात्मा’, ‘आत्मवश्यैः’
आदि पद आये हैं । ‘प्रसादमधिगच्छति’‒राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे साधक अन्तःकरणकी प्रसन्नता
(स्वच्छता)-को प्राप्त होता है । यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता‒सत्रहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक),
जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है । अतः साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक
विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष‒इन
दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है । राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्नता
होती है,
उसका अगर संग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्नता परमात्माकी प्राप्ति करा देती है । ‘प्रसादे
सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते’‒चित्तकी प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका
नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता । कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्नता
होती है । खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दुःख पैदा होते
हैं । परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्नता होती है । उस प्रसन्नतासे सम्पूर्ण
दुःख मिट जाते हैं । जितने भी दुःख हैं, वे
सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे । सुखकी लिप्सा
होती है खिन्नतासे । परन्तु जब प्रसन्नता होती है, तब खिन्नता मिट जाती है । खिन्नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं
रहती । सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे
सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है‒‘सर्वदुःखानां हानिः ।’ तात्पर्य है कि
प्रसन्नतासे दो बातें होती हैं‒संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता ।
यही बात भगवान्ने पहले तिरपनवें श्लोकमें ‘निश्चला’ और ‘अचला’
पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्चल और परमात्मामें
अचल हो जाती है । यहाँ ‘सर्वदुःखानां हानिः’का तात्पर्य यह
नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं,
प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने
दुःखदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्तःकरणमें दुःख,
सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती । ‘प्रसन्नचेतसो
ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’‒प्रसन्न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मामें
स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है,
उसकी बुद्धिमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता । मार्मिक बात भगवद्विषयक प्रसन्नता हो अथवा व्याकुलता हो‒इन
दोनोंमेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है, तो वह शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करा देती है
। जैसे,
भगवान्के पास जाती हुई गोपियोंको माता-पिता,
भाई, पति आदिने रोक दिया, मकानमें बंद कर दिया, तो उन गोपियोंमें भगवान्से मिलनेकी जो व्याकुलता हुई,
उससे उनके रजोगुण-तमोगुण नष्ट हो गये और भगवान्का चिन्तन करनेसे
जो प्रसन्नता हुई, उससे उनका सत्त्वगुण नष्ट हो गया । इस प्रकार गुणसंगसे रहित
होकर वे शरीरको वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान्से जा मिलीं१ । परन्तु सांसारिक विषयोंको लेकर
जो प्रसन्नता और खिन्नता होती है, उन दोनोंमें ही भोगोंके संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात्
संसारका बन्धन दृढ़ होता है । इसके उदाहरण संसारमात्रके सामान्य प्राणी हैं, जो प्रसन्नता और खिन्नताको लेकर संसारमें फँसे हुए हैं । १.अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः । कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ॥ दुःसहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभाः । ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमङ्गलाः ॥ तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि
सङ्गताः । जहुर्गुणमयं देहं
सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः
॥ (श्रीमद्भा॰ १० । २९ । ९‒११) (‒इन श्लोकोंकी विस्तृत व्याख्याके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘अलौकिक प्रेम’ पुस्तक पढ़नी चाहिये।) प्रसन्नता और व्याकुलता (खिन्नता)-में अन्तःकरण द्रवित हो
जाता है । जैसे द्रवित मोममें रंग डालनेसे मोममें वह रंग स्थायी हो जाता है,
ऐसे ही अन्तःकरण द्रवित होनेपर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिक‒जो भी भाव आते हैं, वे स्थायी हो जाते हैं । स्थायी होनेपर वे भाव उत्थान अथवा पतन
करनेवाले हो जाते हैं । अतः साधकके लिये उचित है कि संसारकी
प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलनेपर भी प्रसन्न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलनेपर
भी उद्विग्न न हो । परिशिष्ट भाव‒एक विभाग भोगका है और एक विभाग योगका है । राग-द्वेषसे युक्त
‘भोगी’ मनुष्य अगर विषयोंका चिन्तन भी करे तो उसका पतन हो जाता है
(गीता‒दूसरे अध्यायका बासठवाँ-तिरसठवाँ श्लोक) । परन्तु राग-द्वेषसे
रहित ‘योगी’ मनुष्य अगर विषयोंका सेवन भी करे तो उसका पतन नहीं होता,
प्रत्युत वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है । राग-द्वेषसे रहित मनुष्य भोगबुद्धिसे विषयोंका सेवन नहीं करता
अर्थात् भोगजन्य सुख (रस) नहीं लेता; क्योंकि यह उसका ध्येय नहीं है । वह भोगोंको रागपूर्वक न भोगकर
त्यागपूर्वक भोगता है (गीता‒तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक) । इसलिये उसका अन्तःकरण निर्मल
हो जाता है । त्यागपूर्वक भोग वास्तवमें भोग है ही नहीं ।
लोगोंकी दृष्टिमें उसके द्वारा भोगका आचरण दीखता है, इसीलिये यहाँ ‘विषयान्
चरन्’
पद आये हैं । राग-द्वेषसे रहित होनेपर ‘प्रसाद’ की
प्राप्ति होती है । हरदम प्रसन्नता रहे, कभी खिन्नता न आये, नीरसता
न आये‒यह ‘प्रसाद’ है
। इस प्रसादकी प्राप्तिमें भी सन्तोष न करे, इसका उपभोग न करे तो बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति
हो जाती है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यदि विषयोंमें रागबुद्धि
न हो तो शास्त्रविहित भोगोंका सेवन करते हुए भी पतन नहीं होता, प्रत्युत
उत्थान ही होता है । രരരരരരരരരര |