।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् आगेके श्‍लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ?’‒इस चौथे प्रश्‍नका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषयराग-द्वेषसे रहित अपने वशीभूत इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करनेपर भी स्थितप्रज्ञता होनेका कथन ।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु   विषयानिन्द्रियैश्‍चरन् ।

         आत्मवश्यैर्विधेयात्मा  प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥

प्रसादे   सर्वदुःखानां   हानिरस्योपजायते ।

         प्रसन्‍नचेतसो  ह्याशु  बुद्धिः  पर्यवतिष्‍ठते ॥ ६५ ॥

अर्थ‒परन्तु वशीभूत अन्तः-करणवाला (कर्मयोगी साधक) राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ (अन्तःकरणकी) निर्मलताको प्राप्‍त हो जाता है । (अन्तःकरणकी) निर्मलता प्राप्‍त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी (परमात्मामें) स्थिर हो जाती है ।

तु = परन्तु

अस्य = साधकके

विधेयात्मा = वशीभूत अन्तः-करणवाला (कर्मयोगी साधक)

सर्वदुःखानाम् = सम्पूर्ण दुःखोंका

रागद्वेषवियुक्तैः = राग-द्वेषसे रहित

हानिः = नाश

आत्मवश्यैः = अपने वशमें की हुई

उपजायते = हो जाता है (और ऐसे)

इन्द्रियैः = इन्द्रियोंके द्वारा

प्रसन्‍नचेतसः = शुद्ध चित्तवाले साधककी

विषयान् = विषयोंका

बुद्धिः = बुद्धि

चरन् = सेवन करता हुआ

हि = निःसन्देह

प्रसादम् = (अन्तःकरणकी) निर्मलताको

आशु = बहुत जल्दी

अधिगच्छति = प्राप्‍त हो जाता है ।

पर्यवतिष्‍ठते = (परमात्मामें) स्थिर हो जाती है ।

प्रसादे = (अन्तःकरणकी) निर्मलता प्राप्‍त होनेपर

 

व्याख्यातुपूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे उत्थान हो जाता है । वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित होना बताया । इस प्रकार पहले कहे गये विषयसे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है ।

विधेयात्मासाधकका अन्तःकरण अपने वशमें रहना चाहिये । अन्तःकरणको वशीभूत किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी सम्भावना रहती है । वास्तवमें देखा जाय तो अन्तःकरणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके लिये आवश्यक है । कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है ।

आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैःजैसे विधेयात्मा पद अन्तःकरणको वशमें करनेके अर्थमें आया है, ऐसे ही आत्मवश्यैः पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है । तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेषरहित होना जरूरी है । अतः इन्द्रियोंसे किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो । कारण कि विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है । इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने साधकके लिये सावधानी बतायी है कि प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं । साधक इनके वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं ।पाँचवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है ।

विषयान् चरन्जिसका अन्तःकरण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित तथा अपने वशमें की हुई हैं, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता । भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता है । इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ विधेयात्मा, ‘आत्मवश्यैः आदि पद आये हैं ।

प्रसादमधिगच्छतिराग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे साधक अन्तःकरणकी प्रसन्‍नता (स्वच्छता)-को प्राप्‍त होता है । यह प्रसन्‍नता मानसिक तप है (गीतासत्रहवें अध्यायका सोलहवाँ श्‍लोक), जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है । अतः साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेषइन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है ।

राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्‍नता होती है, उसका अगर संग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्‍नता परमात्माकी प्राप्‍ति करा देती है ।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायतेचित्तकी प्रसन्‍नता (स्वच्छता) प्राप्‍त होनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता । कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्‍नता होती है । खिन्‍नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दुःख पैदा होते हैं । परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्‍नता होती है । उस प्रसन्‍नतासे सम्पूर्ण दुःख मिट जाते हैं ।

जितने भी दुःख हैं, वे सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे । सुखकी लिप्सा होती है खिन्‍नतासे । परन्तु जब प्रसन्‍नता होती है, तब खिन्‍नता मिट जाती है । खिन्‍नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं रहती । सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता हैसर्वदुःखानां हानिः ।तात्पर्य है कि प्रसन्‍नतासे दो बातें होती हैंसंसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता । यही बात भगवान्‌ने पहले तिरपनवें श्‍लोकमें निश्‍चला और अचला पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्‍चल और परमात्मामें अचल हो जाती है ।

यहाँ सर्वदुःखानां हानिःका तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने दुःखदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्तःकरणमें दुःख, सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती ।

प्रसन्‍नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्‍ठतेप्रसन्‍न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है, उसकी बुद्धिमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता ।

मार्मिक बात

भगवद्‌विषयक प्रसन्‍नता हो अथवा व्याकुलता होइन दोनोंमेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है, तो वह शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्‍ति करा देती है । जैसे, भगवान्‌के पास जाती हुई गोपियोंको माता-पिता, भाई, पति आदिने रोक दिया, मकानमें बंद कर दिया, तो उन गोपियोंमें भगवान्‌से मिलनेकी जो व्याकुलता हुई, उससे उनके रजोगुण-तमोगुण नष्‍ट हो गये और भगवान्‌का चिन्तन करनेसे जो प्रसन्‍नता हुई, उससे उनका सत्त्वगुण नष्‍ट हो गया । इस प्रकार गुणसंगसे रहित होकर वे शरीरको वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान्‌से जा मिलीं । परन्तु सांसारिक विषयोंको लेकर जो प्रसन्‍नता और खिन्‍नता होती है, उन दोनोंमें ही भोगोंके संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात् संसारका बन्धन दृढ़ होता है । इसके उदाहरण संसारमात्रके सामान्य प्राणी हैं, जो प्रसन्‍नता और खिन्‍नताको लेकर संसारमें फँसे हुए हैं ।

१.अन्तर्गृहगताः काश्‍चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।

    कृष्णं     तद्भावनायुक्ता   दध्युर्मीलितलोचनाः ॥

    दुःसहप्रेष्‍ठविरहतीव्रतापधुताशुभाः                ।

    ध्यानप्राप्‍ताच्युताश्‍लेषनिर्वृत्या  क्षीणमङ्गलाः ॥

    तमेव   परमात्मानं   जारबुद्ध्यापि   सङ्गताः ।

     जहुर्गुणमयं      देहं     सद्यः     प्रक्षीणबन्धनाः ॥

(श्रीमद्भा १० । २९ । ९११)

(‒इन श्‍लोकोंकी विस्तृत व्याख्याके लिये गीताप्रेससे प्रकाशितअलौकिक प्रेमपुस्तक पढ़नी चाहिये।)

प्रसन्‍नता और व्याकुलता (खिन्‍नता)-में अन्तःकरण द्रवित हो जाता है । जैसे द्रवित मोममें रंग डालनेसे मोममें वह रंग स्थायी हो जाता है, ऐसे ही अन्तःकरण द्रवित होनेपर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिकजो भी भाव आते हैं, वे स्थायी हो जाते हैं । स्थायी होनेपर वे भाव उत्थान अथवा पतन करनेवाले हो जाते हैं । अतः साधकके लिये उचित है कि संसारकी प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलनेपर भी प्रसन्‍न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलनेपर भी उद्विग्‍न न हो ।

परिशिष्‍ट भावएक विभाग भोगका है और एक विभाग योगका है । राग-द्वेषसे युक्त भोगीमनुष्य अगर विषयोंका चिन्तन भी करे तो उसका पतन हो जाता है (गीतादूसरे अध्यायका बासठवाँ-तिरसठवाँ श्‍लोक) । परन्तु राग-द्वेषसे रहित योगीमनुष्य अगर विषयोंका सेवन भी करे तो उसका पतन नहीं होता, प्रत्युत वह परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त हो जाता है ।

राग-द्वेषसे रहित मनुष्य भोगबुद्धिसे विषयोंका सेवन नहीं करता अर्थात् भोगजन्य सुख (रस) नहीं लेता; क्योंकि यह उसका ध्येय नहीं है । वह भोगोंको रागपूर्वक न भोगकर त्यागपूर्वक भोगता है (गीतातीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये उसका अन्तःकरण निर्मल हो जाता है । त्यागपूर्वक भोग वास्तवमें भोग है ही नहीं । लोगोंकी दृष्‍टिमें उसके द्वारा भोगका आचरण दीखता है, इसीलिये यहाँ विषयान् चरन् पद आये हैं ।

राग-द्वेषसे रहित होनेपर प्रसादकी प्राप्‍ति होती है । हरदम प्रसन्‍नता रहे, कभी खिन्‍नता न आये, नीरसता न आयेयह प्रसादहै । इस प्रसादकी प्राप्‍तिमें भी सन्तोष न करे, इसका उपभोग न करे तो बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यायदि विषयोंमें रागबुद्धि न हो तो शास्‍त्रविहित भोगोंका सेवन करते हुए भी पतन नहीं होता, प्रत्युत उत्थान ही होता है ।

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