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सम्बन्ध‒भगवान्के परायण होनेसे तो इन्द्रियाँ वशमें
होकर रसबुद्धि निवृत्त हो ही जायगी, पर भगवान्के परायण न होनेसे क्या होता है‒इसपर आगेके दो श्लोक कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒रसबुद्धिके रहनेसे होनेवाले पतनका क्रम । ध्यायतो
विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते
॥ ६२ ॥ क्रोधाद्भवति सम्मोहः
सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥ अर्थ‒विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा
हो जाती है । आसक्तिसे कामना पैदा होती है । कामनासे (बाधा लगनेपर) क्रोध पैदा होता है
। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है । सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है
। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि (विवेक)-का नाश हो जाता है । बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका
पतन हो जाता है ।
व्याख्या‒‘ध्यायतो विषयान्पुंसः
सङ्गस्तेषूपजायते’‒भगवान्के परायण न होनेसे, भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है । कारण
कि जीवके एक तरफ परमात्मा हैं और एक तरफ संसार है । जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता
है,
तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है;
क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं
। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति,
राग, प्रियता पैदा हो जाती है । आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका
सेवन करता है । विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो, चाहे
शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे
विषयोंमें प्रियता पैदा होती है । प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है
। अब उस विषयका सेवन करे, चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है‒यह
नियम है । ‘संगात्संजायते
कामः’‒विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो
जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें । ‘कामात्क्रोधोऽभिजायते’‒कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे ‘लोभ’ पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है,
पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर ‘क्रोध’ आ जाता है । कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है । वर्ण,
आश्रम, गुण, योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है,
उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा
हो जाता है । ‘कामना’ रजोगुणी वृत्ति है, ‘सम्मोह’ तमोगुणी वृत्ति है और ‘क्रोध’ रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है । कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है, तो
उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है । जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है,
तो नीति-न्यायमें राग है । अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध
आता है,
तो मान-सत्कारमें राग है । निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है,
तो प्रशंसामें राग है । दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है,
तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है;
आदि-आदि । ‘क्रोधाद्भवति
सम्मोहः’‒क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है । वास्तवमें देखा जाय तो काम,
क्रोध, लोभ और ममता‒इन चारोंसे ही सम्मोह होता है;
जैसे‒ (१) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक
कार्य भी कर बैठता है । (२) क्रोधसे जो सम्मोह होता है,
उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें
कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है । (३) लोभसे जो सम्मोह होता है, उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता और वह कपट करके लोगोंको ठग
लेता है । (४) ममतासे जो सम्मोह होता है,
उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है । अगर काम, क्रोध, लोभ और ममता‒इन चारोंसे ही सम्मोह होता है,
तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों लिया ? इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम, लोभ
और ममता‒इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत्
रहती है, पर
क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है । अतः क्रोधसे जो सम्मोह
होता है, वह
काम, लोभ
और ममतासे पैदा हुए सम्मोहसे भी भयंकर होता है । इस दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया
है । ‘सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः’‒मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे,
सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि ‘अपनेको ऐसा काम करना है, ऐसा साधन करना है, अपना उद्धार करना है’
उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है,
उसकी याद नहीं रहती । ‘स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः’‒स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात्
मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती । ‘बुद्धिनाशात्प्रणश्यति’‒विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है ।
अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान्के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता
है । यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग, रागसे
काम, कामसे
क्रोध, क्रोधसे
सम्मोह, सम्मोहसे
स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन‒यह
जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर
इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती । बिजलीके
करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒विषयभोगोंको भोगना
तो दूर रहा, उनका रागपूर्वक चिन्तन करनेमात्रसे साधक पतनकी
ओर चला जाता है; कारण कि भोगोंका चिन्तन भी भोग भोगनेसे
कम नहीं है । രരരരരരരരരര |