।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकमें यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे यत्‍न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं, जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्‍ठित नहीं होती । अतः रसबुद्धिको दूर कैसे किया जायइसका उपाय आगेके श्‍लोकमें बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयरसबुद्धिकी निवृत्तिके लिये भगवत्परायणताकी आवश्‍यकताका कथन ।

        तानि  सर्वाणि  संयम्य  युक्त आसीत मत्परः ।

        वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठिता ॥ ६१ ॥

अर्थ‒कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।

युक्तः = कर्मयोगी साधक

यस्य = जिसकी

तानि = उन

इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ

सर्वाणि = सम्पूर्ण इन्द्रियोंको

वशे = वशमें हैं,

संयम्य = वशमें करके

तस्य = उसकी

मत्परः = मेरे परायण होकर

प्रज्ञा = बुद्धि

आसीत = बैठे;

प्रतिष्‍ठिता = स्थिर है ।

हि = क्योंकि

 

व्याख्यातानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परःजो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं, उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय । तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है । यह अभिमान साधकको उन्‍नत नहीं होने देता और उसे भगवान्‌से विमुख करा देता है । अतः साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न करे, उसमें अपने उद्योगको कारण न माने, प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है, वह केवल भगवान्‌की कृपासे ही मिली है । इस प्रकार केवल भगवान्‌के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है ।

यहाँ मत्परः कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होनाये सभी भगवान्‌की कृपापर ही निर्भर हैं । परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है । कर्मयोगीमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है । अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं ।

भगवान्‌के परायण होनेका तात्पर्य हैकेवल भगवान्‌में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्‌का हूँ; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं; संसार मेरे साथ रहता ही नहीं । इस प्रकार साधकका मैं-पनकेवल भगवान्‌में ही लगा रहे ।

कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान्‌को कर्मयोगके अनुसार उपाय बताना चाहिये था । परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है । अतः गीतामें भगवत्परायणताकी बहुत महिमा गायी गयी है; जैसेजितने भी योगी हैं, उन सब योगियोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा भजन करनेवाला श्रेष्‍ठ है (छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ श्‍लोक) आदि-आदि ।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठितापहले उनसठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्‍लोकमें कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, वह स्थितप्रज्ञ है । इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (दूसरे अध्यायके उनसठवें श्‍लोकमें) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि पड़ी है; अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं । परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है । इसलिये यह नियम नहीं है कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा; क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है । परन्तु यह नियम है, स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी ।

परिशिष्‍ट भावकर्मयोगके साधकके लिये भी भगवान्‌ने मत्परः पदसे अपने परायण होनेकी बात कही है, यह भक्तिकी विशेषता है ! कारण कि भगवान्‌के परायण हुए बिना इन्द्रियोंका सर्वथा वशमें होना कठिन है ।

कर्मयोगमें त्याग है और त्यागसे शान्ति, सुख मिलता है । परन्तु यह प्राप्‍तिका सुख नहीं है, प्रत्युत दुःख (अशान्ति) मिटनेका सुख है, जबकि भक्तिमें प्राप्‍तिका सुख मिलता है । अतः भक्तिका (प्रेमका) सुख मिले बिना इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं । दूसरी बात, कर्मयोगमें तो अत्यन्त वैराग्य होनेपर इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, पर भक्तिमें (भगवान्‌के परायण होनेसे) थोड़े वैराग्यसे भी इन्द्रियाँ सुगमतासे वशमें हो जाती हैं । इसलिये भगवान्‌ने मत्परः पद दिया है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यासाधनकी पूर्णताके लिये भगवान्‌की परायणता आवश्‍यक है । भगवान्‌के परायण होनेसे इन्द्रियाँ सुगमतापूर्वक वशमें हो जाती हैं । अपने पुरुषार्थसे इन्द्रियोंको सर्वथा वशमें करना कठिन है । इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें होनेसे ही बुद्धि स्थिर होती है ।

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