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सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे
यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं,
जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्ठित नहीं होती । अतः
रसबुद्धिको दूर कैसे किया जाय‒इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒रसबुद्धिकी निवृत्तिके लिये भगवत्परायणताकी
आवश्यकताका कथन । तानि सर्वाणि संयम्य युक्त
आसीत मत्परः । वशे
हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥ अर्थ‒कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण
होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
व्याख्या‒‘तानि सर्वाणि संयम्य
युक्त आसीत मत्परः’‒जो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं,
उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें
विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय । तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको
वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है ।
यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है । अतः
साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न
करे, उसमें अपने उद्योगको कारण न माने, प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको
इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है, वह केवल भगवान्की कृपासे ही मिली है । इस प्रकार
केवल भगवान्के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है । यहाँ ‘मत्परः’
कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना,
साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना‒ये सभी भगवान्की कृपापर ही निर्भर हैं । परन्तु अभिमानके कारण
मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है । कर्मयोगीमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है
और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है । अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी
साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं । भगवान्के परायण होनेका तात्पर्य है‒केवल
भगवान्में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का हूँ; संसार
मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं; संसार मेरे साथ रहता ही नहीं । इस प्रकार साधकका ‘मैं-पन’ केवल भगवान्में ही लगा रहे । कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान्को कर्मयोगके अनुसार उपाय
बताना चाहिये था । परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें
केवल भगवत्परायणता ही कारण है । अतः गीतामें भगवत्परायणताकी
बहुत महिमा गायी गयी है; जैसे‒जितने भी योगी हैं, उन सब योगियोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा
भजन करनेवाला श्रेष्ठ है (छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक) आदि-आदि । ‘वशे
हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’‒पहले उनसठवें श्लोकमें भगवान्ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्लोकमें कहते हैं कि जिसकी
इन्द्रियाँ वशमें हैं, वह स्थितप्रज्ञ है । इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (दूसरे अध्यायके
उनसठवें श्लोकमें) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि
पड़ी है;
अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं । परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी
इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है । इसलिये यह नियम नहीं है
कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा;
क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है । परन्तु यह नियम है,
स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी । परिशिष्ट भाव‒कर्मयोगके साधकके लिये भी भगवान्ने ‘मत्परः’ पदसे अपने परायण होनेकी बात कही है, यह भक्तिकी विशेषता है ! कारण कि भगवान्के
परायण हुए बिना इन्द्रियोंका सर्वथा वशमें होना कठिन है । कर्मयोगमें त्याग है और त्यागसे शान्ति,
सुख मिलता है । परन्तु यह प्राप्तिका सुख नहीं है,
प्रत्युत दुःख (अशान्ति) मिटनेका सुख है,
जबकि भक्तिमें प्राप्तिका सुख मिलता है । अतः भक्तिका (प्रेमका)
सुख मिले बिना इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं । दूसरी बात,
कर्मयोगमें तो अत्यन्त वैराग्य होनेपर इन्द्रियाँ वशमें होती
हैं,
पर भक्तिमें (भगवान्के परायण होनेसे) थोड़े वैराग्यसे भी इन्द्रियाँ
सुगमतासे वशमें हो जाती हैं । इसलिये भगवान्ने ‘मत्परः’
पद दिया है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒साधनकी पूर्णताके लिये
भगवान्की परायणता आवश्यक है । भगवान्के परायण होनेसे इन्द्रियाँ सुगमतापूर्वक वशमें
हो जाती हैं । अपने पुरुषार्थसे इन्द्रियोंको सर्वथा वशमें करना कठिन है । इन्द्रियाँ
सर्वथा वशमें होनेसे ही बुद्धि स्थिर होती है । രരരരരരരരരര |