।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धरसकी निवृत्ति न हो तो क्या आपत्ति है ? इसे आगेके श्‍लोकमें बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयरसबुद्धिकी निवृत्ति न होनेसे हानि ।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्‍चितः ।

         इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥

अर्थ‒कारण कि हे कुन्तीनन्दन ! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्‍न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं ।

हि = कारण कि

प्रमाथीनि = प्रमथनशील

कौन्तेय = हे कुन्तीनन्दन ! (रसबुद्धि रहनेसे)

इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ

यततः = यत्‍न करते हुए

मनः = (उसके) मनको

विपश्‍चितः = विद्वान्

प्रसभम् = बलपूर्वक

पुरुषस्य = मनुष्यकी

हरन्ति = हर लेती हैं ।

अपि = भी

 

व्याख्यायततो ह्यपि........प्रसभं मनः

१.यहाँ भगवान्‌ने इन्द्रियोंको प्रमाथीनि कहा है और छठे अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें अर्जुनने मनको प्रमाथि कहा है । अतः इन्द्रियाँ और मन दोनों ही प्रमथनशील हैं । ऐसे ही यहाँ बताया कि इन्द्रियाँ मनको हर लेती हैं और आगे इसी अध्यायके सड़सठवें श्‍लोकमें बताया है कि मन बुद्धिको हर लेता है अर्थात् यहाँ तो इन्द्रियोंकी प्रबलता बतायी और वहाँ मनकी प्रबलता बतायी । तात्पर्य यह निकला कि साधकको इन दोनोंका संयमन करना चाहिये, तभी वह संयमी बन सकता है ।

जो स्वयं यत्‍न करता है, साधन करता है, हरेक कामको विवेकपूर्वक करता है, आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करता है, दूसरोंका हित हो, दूसरोंको सुख पहुँचे, दूसरोंका कल्याण होऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है, जो स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य, सार-असारको जानता है और कौन-कौन-से कर्म करनेसे उनका क्या-क्या परिणाम होता हैइसको भी जाननेवाला है, ऐसे विद्वान् पुरुषके लिये यहाँ यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्‍चितः पद आये हैं । प्रयत्‍न करनेवाले ऐसे विद्वान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं, विषयोंकी तरफ खींच लेती हैं अर्थात् वह विषयोंकी तरफ खिंच जाता है, आकृष्‍ट हो जाता है । इसका कारण यह है कि जबतक बुद्धि सर्वथा परमात्मतत्त्वमें प्रतिष्‍ठित (स्थित) नहीं होती, बुद्धिमें संसारकी यत्किंचित् सत्ता रहती है, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे सुख होता है, भोगे हुए भोगोंके संस्कार रहते हैं, तबतक साधनपरायण बुद्धिमान् विवेकी पुरुषकी भी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं । इन्द्रियोंके विषय सामने आनेपर भोगे हुए भोगोंके संस्कारोंके कारण इन्द्रियाँ मन-बुद्धिको जबर्दस्ती विषयोंकी तरफ खींच ले जाती हैं । ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण भी आते हैं, जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये । अतः साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी मेरी इन्द्रियाँ वशमें हैं, ऐसा विश्‍वास नहीं करना चाहिये और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ ।

२.मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।

   बलवानिन्द्रियग्रामो     विद्वांसमपि     कर्षति ॥

(मनु २ । २१५)

मनुष्यको चाहिये कि वह माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी एकान्तमें न बैठे; क्योंकि बलवान् इन्द्रियसमूह विद्वान्‌को भी अपने वशमें कर लेता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याबुद्धिमान् साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जबतक अहंतामें रसबुद्धि पड़ी है, तबतक साधकका पतन होनेकी सम्भावना रहती है ।

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