।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअयुक्त पुरुषकी निश्‍चयात्मिका बुद्धि क्यों नहीं होती, इसका हेतु तो पूर्वश्‍लोकमें बता दिया । अब जो युक्त होता है, उसकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये आगेका श्‍लोक कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयइन्द्रिय-संयमसे स्थितप्रज्ञताकी प्राप्‍तिका कथन ।

तस्माद्यस्य  महाबाहो  निगृहीतानि   सर्वशः ।

       इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठिता ॥ ६८ ॥

अर्थ‒इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।

तस्मात् = इसलिये

सर्वशः = सर्वथा

महाबाहो = हे महाबाहो !

निगृहीतानि = वशमें की हुई हैं,

यस्य = जिस मनुष्यकी

तस्य = उसकी

इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ

प्रज्ञा = बुद्धि

इन्द्रियार्थेभ्यः = इन्द्रियोंके विषयोंसे

प्रतिष्‍ठिता = स्थिर है ।

व्याख्यातस्माद्यस्य........प्रज्ञा प्रतिष्‍ठितासाठवें श्‍लोकसे मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका जो विषय चला आ रहा है, उसका उपसंहार करते हुए तस्मात् पदसे कहते हैं कि जिसके मन और इन्द्रियोंमें संसारका आकर्षण नहीं रहा है, उसकी बुद्धि प्रतिष्‍ठित है ।

यहाँ सर्वशः पद देनेका तात्पर्य है कि संसारके साथ व्यवहार करते हुए अथवा एकान्तमें चिन्तन करते हुएकिसी भी अवस्थामें उसकी इन्द्रियाँ भोगोंमें, विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होतीं । व्यवहारकालमें कितने ही विषय उसके सम्पर्कमें क्यों न आ जायँ, पर वे विषय उसको विचलित नहीं कर सकते । उसका मन भी इन्द्रियके साथ मिलकर उसकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकता । जैसे पहाड़को कोई डिगा नहीं सकता, ऐसे ही उसकी बुद्धिमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि उसको मन किसी भी अवस्थामें डिगा नहीं सकता । कारण कि उसके मनमें विषयोंका महत्त्व नहीं रहा ।

निगृहीतानि का तात्पर्य है कि इन्द्रियाँ विषयोंसे पूरी तरहसे वशमें की हुई हैं अर्थात् विषयोंमें उनका लेशमात्र भी राग, आसक्ति, खिंचाव नहीं रहा है । जैसे साँपके दाँत निकाल दिये जायँ, तो फिर उसमें जहर नहीं रहता । वह किसीको काट भी लेता है तो उसका कोई असर नहीं होता । ऐसे ही इन्द्रियोंको राग-द्वेषसे रहित कर देना ही मानो उनके जहरीले दाँत निकाल देना है । फिर उन इन्द्रियोंमें यह ताकत नहीं रहती कि वे साधकको पतनके मार्गमें ले जायँ ।

इस श्‍लोकका तात्पर्य यह है कि साधकको दृढ़तासे यह निश्‍चय कर लेना चाहिये कि मेरा लक्ष्य परमात्माकी प्राप्‍ति करना है, भोग भोगना और संग्रह करना मेरा लक्ष्य नहीं है । अगर ऐसी सावधानी साधकमें निरन्तर बनी रहे, तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायगी ।

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