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सम्बन्ध‒अयुक्त पुरुषकी निश्चयात्मिका बुद्धि क्यों
नहीं होती, इसका हेतु तो पूर्वश्लोकमें बता दिया । अब जो युक्त होता है,
उसकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒इन्द्रिय-संयमसे स्थितप्रज्ञताकी प्राप्तिका
कथन । तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥ अर्थ‒इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे
सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
व्याख्या‒‘तस्माद्यस्य........प्रज्ञा
प्रतिष्ठिता’‒साठवें श्लोकसे मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका जो विषय चला
आ रहा है,
उसका उपसंहार करते हुए ‘तस्मात्’ पदसे कहते हैं कि जिसके मन और इन्द्रियोंमें
संसारका आकर्षण नहीं रहा है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है । यहाँ ‘सर्वशः’
पद देनेका तात्पर्य है कि संसारके साथ व्यवहार करते हुए अथवा
एकान्तमें चिन्तन करते हुए‒किसी भी अवस्थामें उसकी इन्द्रियाँ भोगोंमें,
विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होतीं । व्यवहारकालमें कितने ही विषय
उसके सम्पर्कमें क्यों न आ जायँ, पर वे विषय उसको विचलित नहीं कर सकते । उसका मन भी इन्द्रियके
साथ मिलकर उसकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकता । जैसे पहाड़को कोई डिगा नहीं सकता,
ऐसे ही उसकी बुद्धिमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि उसको मन किसी भी अवस्थामें डिगा नहीं सकता । कारण कि उसके मनमें
विषयोंका महत्त्व नहीं रहा । ‘निगृहीतानि’ का तात्पर्य है कि इन्द्रियाँ विषयोंसे पूरी तरहसे वशमें की
हुई हैं अर्थात् विषयोंमें उनका लेशमात्र भी राग, आसक्ति, खिंचाव नहीं रहा है । जैसे साँपके दाँत निकाल दिये जायँ,
तो फिर उसमें जहर नहीं रहता । वह किसीको काट भी लेता है तो उसका
कोई असर नहीं होता । ऐसे ही इन्द्रियोंको राग-द्वेषसे रहित कर देना ही मानो उनके जहरीले
दाँत निकाल देना है । फिर उन इन्द्रियोंमें यह ताकत नहीं रहती कि वे साधकको पतनके मार्गमें
ले जायँ ।
इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि साधकको
दृढ़तासे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि मेरा लक्ष्य परमात्माकी प्राप्ति करना है, भोग
भोगना और संग्रह करना मेरा लक्ष्य नहीं है । अगर ऐसी सावधानी साधकमें निरन्तर बनी रहे, तो
उसकी बुद्धि स्थिर हो जायगी । രരരരരരരരരര |