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सम्बन्ध‒जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें हैं,
उसमें और साधारण मनुष्योंमें क्या अन्तर है‒इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒संयमी पुरुषकी महिमा । या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति
संयमी । यस्यां
जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥ अर्थ‒सम्पूर्ण प्राणियोंकी जो रात (परमात्मासे विमुखता) है,
उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं
(भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है ।
व्याख्या‒‘या निशा सर्वभूतानाम्’‒जिनकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं हैं,
जो भोगोंमें आसक्त हैं, वे सब परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं । परमात्मा क्या है
? तत्त्वज्ञान क्या है
? हम दुःख क्यों पा रहे हैं
? सन्ताप-जलन क्यों हो रही है
? हम जो कुछ कर रहे हैं,
उसका परिणाम क्या होगा ?‒इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है,
उनके लिये बिलकुल अँधेरा है । यहाँ ‘भूतानाम्’ कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पशु-पक्षी आदि दिनभर खाने-पीनेमें
ही लगे रहते हैं, ऐसे ही जो मनुष्य रात-दिन खाने-पीनेमें,
सुख-आराममें, भोगों और संग्रहमें, धन कमानेमें ही लगे हुए हैं, उन मनुष्योंकी गणना भी पशु-पक्षी आदिमें ही है । कारण कि परमात्मतत्त्वसे
विमुख रहनेमें पशु-पक्षी आदिमें और मनुष्योंमें कोई अन्तर नहीं है । दोनों ही परमात्मतत्त्वकी
तरफसे सोये हुए हैं । हाँ, अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशु-पक्षी आदिमें विवेक-शक्ति
इतनी जाग्रत् नहीं है, इसलिये वे खाने-पीने आदिमें ही लगे रहते हैं और मनुष्योंमें
भगवान्की कृपासे वह विवेक-शक्ति जाग्रत् है, जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है,
प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है,
परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है । परन्तु उस विवेक-शक्तिका
दुरुपयोग करके मनुष्य पदार्थोंका संग्रह करनेमें एवं उनका भोग करनेमें लग जाते हैं,
जिससे वे संसारके लिये पशुओंसे भी अधिक दुःखदायी हो जाते हैं
। कारण कि पशु-पक्षी तो बेचारे जितनेसे पेट भर जाय, उतना ही खाते हैं, संग्रह नहीं करते; परन्तु मनुष्यको कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है,
वह उसके काममें आये चाहे न आये,
उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरोंके काममें आनेमें
बाधा डाल देता है । ‘तस्यां
जाग्रति संयमी’‒मनुष्योंकी जो रात है अर्थात् परमात्माकी तरफसे,
अपने कल्याणकी तरफसे जो विमुखता है,
उसमें संयमी मनुष्य जागता है । जिसने इन्द्रियों और मनको वशमें
किया है,
जो भोग और संग्रहमें आसक्त नहीं है,
जिसका ध्येय केवल परमात्मा है,
वह संयमी मनुष्य है । परमात्मतत्त्वको,
अपने स्वरूपको और संसारको यथार्थरूपसे जानना ही उसका रातमें
जागना है । ‘यस्यां
जाग्रति भूतानि’‒जो भोग और संग्रहमें बड़े सावधान रहते हैं,
एक-एक पैसेका हिसाब रखते हैं, जमीनके एक-एक इंचका खयाल रखते हैं;
जितने रुपये अधिकारमें आ जायँ वे चाहे न्यायपूर्वक हों अथवा
अन्यायपूर्वक, उसमें वे बड़े खुश होते हैं कि इतनी पूँजी तो हमने ले ही ली है,
इतना लाभ तो हमें हो ही गया है‒इस तरह वे सांसारिक क्षणभंगुर भोगोंको बटोरनेमें और आदर-सत्कार,
मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेमें ही लगे रहते हैं,
उनमें बड़े सावधान रहते हैं, यही उन लोगोंका जागना है । ‘सा निशा
पश्यतो मुनेः’‒जिन सांसारिक पदार्थोंका भोग और संग्रह करनेमें मनुष्य अपनेको
बड़ा बुद्धिमान्, चतुर मानते हैं और उसीमें राजी होते हैं,
संसार और परमात्मतत्त्वको जाननेवाले मननशील संयमी मनुष्यकी दृष्टिमें
वह सब रातके समान है; बिलकुल अँधेरा है । जैसे, बच्चे खेलते हैं तो वे कंकड़-पत्थर,
काँचके लाल-पीले टुकड़ोंको लेकर आपसमें लड़ते हैं । अगर वह मिल
जाता है तो राजी होते हैं कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता तो
दुःखी हो जाते हैं कि मेरी बड़ी भारी हानि हो गयी । परन्तु जिसके मनमें कंकड़-पत्थर
आदिका महत्त्व नहीं है, ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड़-पत्थरोंके मिलनेसे
क्या लाभ हुआ और न मिलनेसे क्या हानि हुई ? इन बच्चोंको अगर कंकड़-पत्थर मिल भी जायँगे,
तो ये कबतक उनके साथ रहेंगे ? इसी तरह भोग और संग्रहमें लगे हुए मनुष्य भोगोंके लिये लड़ाई-झगड़ा,
झूठ-कपट, बेईमानी आदि करते हैं और उनको प्राप्त करके राजी होते हैं,
खुशी मनाते हैं कि हमने बहुत लाभ ले लिया । परन्तु संसारको और
परमात्मतत्त्वको जाननेवाला मननशील संयमी मनुष्य साफ देखता है कि भोग मिल गये,
आदर-सत्कार हो गया, सुख-आराम हो गया, खा-पी लिया, खूब शृंगार कर लिया तो क्या हो गया
? इसमें मनुष्योंको क्या मिला
? इनमेंसे इनके साथ क्या चलेगा
? ये कबतक इन भोगोंको साथमें
रखेंगे
? इन भोगोंसे होनेवाली वृत्ति
कितने दिनतक ठहरेगी ? इस तरह उसकी दृष्टिमें प्राणियोंका जागना रातके समान है । वह मननशील संयमी मनुष्य परमात्माको,
अपने स्वरूपको और संसारके परिणामको तो जानता ही है,
वह पदार्थोंको भी अच्छी तरहसे जानता है कि कौन-सा पदार्थ किसके
हितमें लग सकता है, इससे दूसरोंको कितना लाभ होगा । वह पदार्थोंका अपनी-अपनी जगह
ठीक तरहसे सदुपयोग करता है । उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है । जैसे नेत्रोंमें दोष होनेपर जब हम आकाशको देखते हैं,
तब उसमें जाले-से दीखते हैं और आँखें मीच लेनेपर भी मोरपंखकी
तरह वे जाले दीखते हैं; परन्तु उनके दीखनेपर भी हमारी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता
है कि आकाशमें जाले नहीं हैं । ऐसे ही इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा संसार दीखनेपर
भी मननशील संयमी मनुष्यकी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि वास्तवमें संसार नहीं
है,
केवल प्रतीतिमात्र है । परिशिष्ट भाव‒सांसारिक मनुष्य रात-दिन भोग और संग्रहमें ही लगे रहते हैं,
उनको ही महत्ता देते हैं, सांसारिक कार्योंमें बड़े सावधान और निपुण होते हैं,
तरह-तरहके कला-कौशल सीखते हैं,
तरह-तरहके आविष्कार करते हैं, लौकिक वस्तुओंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति मानते हैं,
सांसारिक वस्तुओंकी बड़ी महिमा गाते हैं,
सदा जीवित रहकर सुख भोगनेके लिये बड़ी-बड़ी तपस्या करते हैं,
देवताओंकी उपासना करते हैं, मन्त्र-जप करते हैं आदि-आदि । परन्तु जीवन्मुक्त,
तत्त्वज्ञ महापुरुष तथा सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें वह बिलकुल
रात है,
अन्धकार है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है । कारण कि उनकी दृष्टिमें
ब्रह्मलोकतक सम्पूर्ण संसार विद्यमान है ही नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६), ‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८ । १६) । सांसारिक लोग तो संसारमें ही रचे-पचे रहते हैं और ऐसा मानते
हैं कि जो कुछ है, वह यही है‒‘नान्यदस्तीति वादिनः’ (गीता २ । ४२) । ‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः’ (गीता
१६ । ११) । पारमार्थिक विषयमें
उनकी बुद्धि जाती ही नहीं । परन्तु पारमार्थिक साधक पारमार्थिक विषयके साथ-साथ संसारको
भी जानते हैं, इसलिये उनके लिये ‘पश्यतः’
पद दिया है । संसारी लोग तो केवल रातको ही देखते हैं,
दिनको देखते ही नहीं, पर योगी दिनको भी देखता है और रातको भी‒यह दोनोंमें फर्क है । उदाहरणार्थ बालकने केवल बालकपना ही देखा
है,
जवानी नहीं, पर वृद्ध पुरुषने वृद्धावस्थाके साथ-साथ बालकपना भी देखा है
और जवानी भी ! रुपये रखनेवाला व्यक्ति रुपयोंके त्यागको नहीं जानता,
पर रुपयोंका त्याग करनेवाला रुपयोंके संग्रहको भी जानता है और
त्यागको भी जानता है । यह सिद्धान्त है कि संसारमें लगा हुआ मनुष्य संसारको नहीं जान
सकता । संसारसे अलग होकर ही वह संसारको जान सकता है; क्योंकि वास्तवमें वह संसारसे अलग है । इसी तरह परमात्माके साथ
एक होकर ही मनुष्य परमात्माको जान सकता है; क्योंकि वास्तवमें वह परमात्माके साथ एक है । जो ‘है’ में स्थित है, वह ‘है’ और ‘नहीं’‒दोनोंको जानता है, पर जो ‘नहीं’ में स्थित है, वह ‘नहीं’ को भी यथार्थरूपसे अर्थात् ‘नहीं’-रूपसे नहीं जान सकता, फिर वह ‘है’ को कैसे जानेगा ?
नहीं जान सकता । उसमें जाननेकी सामर्थ्य ही नहीं है । ‘है’ को जाननेवालेका तो ‘नहीं’ को माननेवालेके साथ विरोध नहीं होता,
पर ‘नहीं’ को माननेवालेका ‘है’ को जाननेवालेके साथ विरोध होता है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अब भगवान् सांख्ययोगकी
दृष्टिसे कहते हैं; क्योंकि परिणाममें कर्मयोग तथा सांख्ययोग एक
ही हैं (गीता ५ । ४-५) । लोग जिस परमात्माकी तरफसे सोये हुए हैं, वह तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें दिनके प्रकाशके समान है
। सांसारिक लोगोंका तो पारमार्थिक साधकके साथ विरोध होता है, पर पारमार्थिक साधकका सांसारिक लोगोंके साथ विरोध नहीं होता‒‘निज प्रभुमय
देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर॰ ११२ ख)
। सांसारिक लोगोंने तो केवल संसारको ही देखा है, पर
पारमार्थिक साधक संसारको भी जानता है और परमात्माको भी । संसारमें रचे-पचे लोग सांसारिक
वस्तुओंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति मानते हैं; परन्तु तत्त्वज्ञ
महापुरुष और सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें वह रातके अन्धकारकी तरह है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है । രരരരരരരരരര |