।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धमननशील संयमी मनुष्यको संसार रातकी तरह दीखता है । इसपर यह प्रश्‍न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थोंके सम्पर्कमें आता ही नहीं ? अगर नहीं आता तो उसका जीवन-निर्वाह कैसे होता है ? और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है ? इन बातोंका विवेचन करनेके लिये आगेका श्‍लोक कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयसमुद्रके दृष्‍टान्तसे स्थितप्रज्ञकी पूर्णताका कथन ।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्‍ठं    समुद्रमापः    प्रविशन्ति    यद्वत् ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्‍नोति न कामकामी ॥ ७० ॥

अर्थ‒जैसे (सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, पर (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्‍न किये बिना ही) प्राप्‍त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्‍त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं ।

यद्वत् = जैसे

कामाः = भोग-पदार्थ

आपः = (सम्पूर्ण नदियोंका) जल

यम् = जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्‍न किये बिना ही)

आपूर्यमाणम् = चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण

प्रविशन्ति = प्राप्‍त होते हैं,

समुद्रम् = समुद्रमें

सः = वही मनुष्य

प्रविशन्ति = आकर मिलता है, (पर)

शान्तिम् = परमशान्तिको

अचलप्रतिष्‍ठम् = (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है,

आप्‍नोति = प्राप्‍त होता है,

तद्वत् = ऐसे ही

कामकामी = भोगोंकी कामनावाला

सर्वे = सम्पूर्ण

न = नहीं ।

व्याख्याआपूर्यमाणमचलप्रतिष्‍ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है, कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है; परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, तब समुद्र बढ़ता नहीं, अपनी मर्यादामें ही रहता है । परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका जल बहुत कम हो जाता है, तब समुद्र घटता नहीं । तात्पर्य है कि नदी-नदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्‍नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बढ़ता-घटता नहीं । उसको नदी-नदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती । वह तो सदा-सर्वदा ज्यों-का-त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्‍नोति

यहाँ कामाः पद कामनाओंका वाचक नहीं है, प्रत्युत जिन पदार्थोंकी कामना की जाती है, उन भोग-पदार्थोंका वाचक है ।

ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्म-तत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्‍त होते हैं, उसके सामने आते हैं, पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते । अतः वह परमशान्तिको प्राप्‍त होता है । उसकी जो शान्ति है, वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है, भोग-पदार्थोंके कारणसे नहीं (गीतादूसरे अध्यायका छियालीसवाँ श्‍लोक) ।

यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्‍टान्त दिया गया है, वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता । कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है, उसी जातिका जल नद-नदियोंसे आता है और नद-नदियोंसे जो जल आता है, उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है । परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोग-पदार्थोंमें इतना फर्क है कि इसको समझानेके लिये रात-दिन, आकाश-पातालका दृष्‍टान्त भी नहीं बैठ सकता ! कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है, वह तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनन्त है और सांसारिक भोग-पदार्थ जड हैं, अनित्य हैं, असत्‌ हैं, सीमित हैं, अन्तवाले हैं ।

दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है, पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है, वहाँ ये सांसारिक भोग-पदार्थ पहुँचते ही नहीं, प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर, अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं । अतः समुद्रका दृष्‍टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है । उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्‍टान्त नहीं है ।

न कामकामीजिनके मनमें भोग-पदार्थोंकी कामना है, जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं, जिनकी दृष्‍टि पदार्थोंकी तरफ ही है, उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्‍ति नहीं हो सकती; उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है ? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्‍ति जड़ पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती ।

परिशिष्‍ट भावअपनी कामनाके कारण ही यह संसार जड़ दीखता है, वास्तवमें तो यह चिन्मय परमात्मा ही हैवासुदेवः सर्वम् (गीता ७ । १९), ‘सदसच्‍चाहमर्जुन (गीता ९ । १९) । अतः जब मनुष्य कामनारहित हो जाता है, तब उससे सभी वस्तुएँ प्रसन्‍न हो जाती हैं । वस्तुओंके प्रसन्‍न होनेकी पहचान यह है कि उस निष्काम महापुरुषके पास आवश्यक वस्तुएँ अपने-आप आने लगती हैं । उसके पास आकर सफल होनेके लिये वस्तुएँ लालायित रहती हैं । परन्तु कामना न रहनेके कारण वस्तुओंके प्राप्‍त होनेपर अथवा न होनेपर भी उसके भीतर कोई विकार (हर्ष आदि) उत्पन्‍न नहीं होता । उसकी दृष्‍टिमें वस्तुओंका कोई मूल्य (महत्त्व) है ही नहीं । इसके विपरीत कामनावाले मनुष्यको वस्तुएँ प्राप्‍त हों अथवा न हों, उसके भीतर सदा अशान्ति बनी रहती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याजब मनुष्य सर्वथा निष्काम हो जाता है, तब आवश्यक वस्तुएँ उसके पास स्वाभाविक आती हैं, वे उसके हृदयमें हर्ष आदि कोई विकार उत्पन्‍न नहीं करतीं । प्रारब्धके अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति प्राप्‍त होती है, उससे उस तत्वज्ञ महापुरुषके अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार उत्पन्‍न नहीं होते, वह सर्वथा सम रहता है । परन्तु जिसके भीतर सांसारिक कामनाएँ हैं, उसे वस्तुएँ प्राप्त हों या न हों, वह सदा अशान्त ही रहता है ।

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