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सम्बन्ध‒मननशील संयमी मनुष्यको संसार रातकी तरह दीखता
है । इसपर यह प्रश्न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थोंके सम्पर्कमें आता ही नहीं
? अगर नहीं आता तो उसका जीवन-निर्वाह
कैसे होता है ? और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है ? इन बातोंका विवेचन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒समुद्रके दृष्टान्तसे स्थितप्रज्ञकी
पूर्णताका कथन । आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति
न कामकामी ॥ ७० ॥ अर्थ‒जैसे (सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें
आकर मिलता है, पर (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्न
किये बिना ही) प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है,
भोगोंकी कामनावाला नहीं ।
व्याख्या‒‘आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्’‒वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है,
कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है; परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर
मिलता है,
तब समुद्र बढ़ता नहीं, अपनी मर्यादामें ही रहता है । परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों
और नदोंका जल बहुत कम हो जाता है, तब समुद्र घटता नहीं । तात्पर्य है कि नदी-नदोंका जल ज्यादा
आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके
द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बढ़ता-घटता नहीं । उसको नदी-नदोंके जलकी अपेक्षा
नहीं रहती । वह तो सदा-सर्वदा ज्यों-का-त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका
कभी त्याग नहीं करता । ‘तद्वत्कामा१ यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति’‒ १यहाँ ‘कामाः’ पद कामनाओंका वाचक नहीं है, प्रत्युत जिन पदार्थोंकी कामना की जाती
है, उन भोग-पदार्थोंका वाचक है । ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्म-तत्त्वको जाननेवाले
संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं, उसके सामने आते हैं, पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार
पैदा नहीं कर सकते । अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है । उसकी जो शान्ति है,
वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है,
भोग-पदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता‒दूसरे अध्यायका छियालीसवाँ श्लोक) । यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है,
वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता । कारण
कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है,
उसी जातिका जल नद-नदियोंसे आता है और नद-नदियोंसे जो जल आता
है, उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है । परन्तु
स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोग-पदार्थोंमें इतना फर्क है कि इसको समझानेके लिये रात-दिन,
आकाश-पातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता ! कारण कि स्थितप्रज्ञ
मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है, वह तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनन्त है और सांसारिक भोग-पदार्थ जड हैं,
अनित्य हैं, असत् हैं, सीमित हैं, अन्तवाले हैं । दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है,
पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है,
वहाँ ये सांसारिक भोग-पदार्थ पहुँचते ही नहीं,
प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर, अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं । अतः समुद्रका दृष्टान्त
केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है ।
उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है । ‘न कामकामी’‒जिनके मनमें भोग-पदार्थोंकी कामना है,
जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं,
जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है,
उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ,
तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती;
उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है
? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति
जड़ पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती । परिशिष्ट भाव‒अपनी कामनाके कारण ही यह संसार जड़ दीखता है,
वास्तवमें तो यह चिन्मय परमात्मा ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता
७ । १९), ‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । अतः जब मनुष्य कामनारहित हो जाता है,
तब उससे सभी वस्तुएँ प्रसन्न हो जाती हैं । वस्तुओंके प्रसन्न
होनेकी पहचान यह है कि उस निष्काम महापुरुषके पास आवश्यक वस्तुएँ अपने-आप आने लगती
हैं । उसके पास आकर सफल होनेके लिये वस्तुएँ लालायित रहती हैं । परन्तु कामना न रहनेके
कारण वस्तुओंके प्राप्त होनेपर अथवा न होनेपर भी उसके भीतर कोई विकार (हर्ष आदि) उत्पन्न
नहीं होता । उसकी दृष्टिमें वस्तुओंका कोई मूल्य (महत्त्व) है ही नहीं । इसके विपरीत
कामनावाले मनुष्यको वस्तुएँ प्राप्त हों अथवा न हों,
उसके भीतर सदा अशान्ति बनी रहती है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जब मनुष्य सर्वथा निष्काम
हो जाता है, तब आवश्यक वस्तुएँ उसके पास स्वाभाविक आती हैं,
वे उसके हृदयमें हर्ष आदि कोई विकार उत्पन्न नहीं करतीं । प्रारब्धके
अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति प्राप्त होती है, उससे उस तत्वज्ञ महापुरुषके अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष,
हर्ष-शोक आदि विकार उत्पन्न नहीं होते, वह सर्वथा
सम रहता है । परन्तु जिसके भीतर सांसारिक कामनाएँ हैं, उसे वस्तुएँ
प्राप्त हों या न हों, वह सदा अशान्त ही रहता है । രരരരരരരരരര |