।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब आगेके श्‍लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ?’ इस प्रश्‍नके उत्तरका उपसंहार करते हैं ।

सूक्ष्म विषयकामना, स्पृहा, ममता और अहंताके त्यागसे शान्तिकी प्राप्‍ति ।

      विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्‍चरति निःस्पृहः ।

     निर्ममो निरहङ्कारः  स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥

अर्थ‒जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्‍त होता है ।

यः = जो

निर्ममः = ममतारहित (और)

पुमान् = मनुष्य

निरहङ्कारः = अहंतारहित होकर

सर्वान् = सम्पूर्ण

चरति = आचरण करता है,

कामान् = कामनाओंका

सः = वह

विहाय = त्याग करके

शान्तिम् = शान्तिको

निःस्पृहः = स्पृहारहित,

अधिगच्छति = प्राप्‍त होता है ।

व्याख्याविहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्‍चरति निःस्पृहःअप्राप्‍त वस्तुकी इच्छाका नाम कामनाहै । स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है । कामनाओंका त्याग कर देनेपर भी शरीरके निर्वाहमात्रके लिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी जो आवश्यकता दीखती है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये प्राप्‍त और अप्राप्‍त वस्तु आदिकी जो जरूरत दीखती है, उसका नाम स्पृहा है । स्थितप्रज्ञ पुरुष इस स्पृहाका भी त्याग कर देता है । कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी, उस तत्त्वकी प्राप्‍ति हो गयी, वह आवश्यकता पूरी हो गयी । अब शरीर रहे चाहे न रहे, शरीर-निर्वाह हो चाहे न होइस तरफ वह बेपरवाह रहता है । यही उसका निःस्पृह होना है ।

निःस्पृह होनेका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन करता ही नहीं । वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन भी करता है, पथ्य-कुपथ्यका भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्थामें शरीर आदिके साथ जैसा व्यवहार करता था, वैसा ही व्यवहार अब भी करता है; परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है, जीवन-निर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा हैऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती ।

इसी अध्यायके पचपनवें श्‍लोकमें प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे कामना-त्यागकी जो बात कही थी, वही बात यहाँ विहाय कामान्यः सर्वान् पदोंसे कही है । इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता ।

निर्ममःस्थितप्रज्ञ महापुरुष ममताका सर्वथा त्याग कर देता है । मनुष्य जिन वस्तुओंको अपनी मानता है, वे वास्तवमें अपनी नहीं हैं, प्रत्युत संसारसे मिली हुई हैं । मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भूल है । यह भूल मिट जानेपर स्थितप्रज्ञ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ आदिमें ममतारहित हो जाता है ।

निरहङ्कारःयह शरीर मैं ही हूँइस तरह शरीरसे तादात्म्य मानना अहंकार है । स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो मैं-पन है, उसका भी किसी प्रकाशमें भान होता है । अतः प्रकाशकी दृष्‍टिसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंता (मैं-पन)ये सभी दृश्य हैं । द्रष्‍टा दृश्यसे अलग होता हैयह नियम है । ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है ।

स शान्तिमधिगच्छतिस्थितप्रज्ञ शान्तिको प्राप्‍त होता है । कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्‍त होती हैऐसी बात नहीं है, प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है । केवल उत्पन्‍न एवं नष्‍ट होनेवाली वस्तुओंसे सुख भोगनेकी कामना करनेसे, उनसे ममताका सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति होती है । जब संसारकी कामना, स्पृहा, ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है, तब स्वतःसिद्ध शान्तिका अनुभव हो जाता है ।

इस श्‍लोकमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंताइन चारोंमें अहंता ही मुख्य है । कारण कि एक अहंताके निषेधसे सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि मैं-पन ही नहीं रहेगा, तो फिर मेरा-पन कैसे रहेगा और कामना भी कौन करेगा और किसलिये करेगा ?

जब निरहङ्कारः कहनेमात्रसे कामना आदिका त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था, तो फिर कामना आदिके त्यागका वर्णन क्यों किया ? इसका उत्तर यह है कि कामना, स्पृहा, ममता और अहंताइन चारोंमें कामना स्थूल है । कामनासे सूक्ष्म स्पृहा, स्पृहासे सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है । अतः साधक पहले कामना, स्पृहा और ममताका त्याग कर दे तो अहंताका त्याग करना उसके लिये सुगम हो जायगा ।

शास्‍त्रीय दृष्‍टिसे पहले कामनाका त्याग, फिर स्पृहा, ममता और अहंकारका त्याग बताया जाता है । परन्तु साधककी दृष्‍टिसे पहले ममताका त्याग, फिर कामना, स्पृहा और अहंकारका त्याग करना ही ठीक है । ममता प्राप्‍त वस्तुकी और कामना अप्राप्‍त वस्तुकी होती है । सबसे पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है । मनुष्य पहले ममतासे अर्थात् प्राप्‍त वस्तुके सम्बन्धसे ही फँसता है । पहले ममताका त्याग करनेसे निष्काम होनेकी सामर्थ्य आ जाती है, कामनाका त्याग करनेसे निःस्पृह होनेकी सामर्थ्य आ जाती है और स्पृहाका त्याग करनेसे निरहंकार होनेकी सामर्थ्य आ जाती है । शास्‍त्रीय दृष्‍टिके अनुसार चलनेसे मनुष्य पण्डित हो जाता है और साधककी दृष्‍टिके अनुसार चलनेसे मनुष्यको अनुभव हो जाता है ।

अहंता-ममतासे रहित होनेका उपाय

कर्मयोगकी दृष्‍टिसेमेरा कुछ नहीं है; क्योंकि मेरा किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदिपर स्वतन्त्र अधिकार नहीं है । जब मेरा कुछ नहीं है तो मेरेको कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि अगर शरीर मेरा है तो मेरेको अन्‍न, जल, वस्‍त्र आदिकी आवश्यकता है, पर जब शरीर मेरा है ही नहीं, तो मेरेको किसीकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है । जब मेरा कुछ नहीं और मेरेको कुछ नहीं चाहिये, तो फिर मैंक्या रहा ? क्योंकि मैंतो किसी वस्तु, शरीर, स्थिति आदिको पकड़नेसे ही होता है ।

मेरे कहलानेवाले शरीर आदिका मात्र संसारके साथ सर्वथा अभिन्‍न सम्बन्ध है । इसलिये अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे जो कुछ करना है, वह सब केवल संसारके हितके लिये ही करना है; क्योंकि मेरेको कुछ चाहिये ही नहीं । ऐसा भाव होनेपर मैं-का एकदेशीयपना आप-से-आप मिट जाता है और कर्मयोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है ।

सांख्ययोगकी दृष्‍टिसेप्राणिमात्रको मैं हूँइस प्रकार अपने स्वरूपकी स्वतःसिद्ध सत्ता (होनापन)-का ज्ञान रहता है । इसमें मैंतो प्रकृतिका अंश है और हूँसत्ता है । यह हूँवास्तवमें मैंको लेकर है । अगर मैंन रहे, तो हूँनहीं रहेगा, प्रत्युत हैरहेगा ।

मैं हूँ, ‘तू है, ‘यह हैऔर वह है’‒ये चारों व्यक्ति और देश-कालको लेकर हैं । अगर इन चारोंको अर्थात् व्यक्ति और देश-कालको न पकड़ें तो केवल हैही रहेगा‒‘हैमें ही स्थिति रहेगी । हैमें स्थिति होनेसे सांख्ययोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है ।

भक्तियोगकी दृष्‍टिसेजिसको मैंऔर मेराकहते हैं, वह सब प्रभुका ही है । कारण कि मेरी कहलानेवाली वस्तुपर मेरा किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है; परन्तु प्रभुका उसपर पूरा अधिकार है । वे जिस तरह वस्तुको रखते हैं, जैसा रखना चाहते हैं वैसा ही होता है । अतः यह सब कुछ प्रभुका ही है । इसको प्रभुकी ही सेवामें लगाना है । मेरे पास जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि है, यह भी उन्हींकी है और मैं भी उन्हींका हूँ । ऐसा भाव होनेपर भक्तियोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है ।

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