।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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परिशिष्‍ट भावपहले सोऽमृतत्वाय कल्पते (२ । १५) कहकर ज्ञानयोगकी सिद्धि (पूर्णता) बतायी थी, अब स शान्तिमधिगच्छति कहकर कर्मयोगकी सिद्धि बताते हैं । तात्पर्य है कि चिन्मयता (स्वरूप)-में स्थिति होनेसे अमृतकी प्राप्‍ति होती है और जड़ता (अहंता)-के त्यागसे शान्तिकी प्राप्‍ति होती है ।

अहंता अपने स्वरूपमें मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं । अगर यह वास्तवमें होती तो हम कभी निरहंकार नहीं हो सकते थे और भगवान् भी निरहंकार होनेकी बात नहीं कहते । परन्तु भगवान् निरहङ्कारः कहते हैं, अतः हम अहंकाररहित हो सकते हैं । हमारा अनुभव भी है कि वास्तवमें स्वरूप अहंकाररहित है । सुषुप्‍तिके समय अहम्‌ के अभावका और स्वयं (अपनी सत्ता) के भावका अनुभव सबको होता है, जिसका स्पष्‍ट बोध जगनेपर होता है । सुषुप्‍तिमें अहम्‌ अविद्यामें लीन हो जाता है, पर स्वयं रहता है । इसलिये सुषुप्‍तिसे जगनेपर (उसकी स्मृतिसे) हम कहते हैं कि मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था ।इस स्मृतिसे सिद्ध होता है कि सुखका अनुभव करनेवाला और कुछ पता नहीं थायह कहनेवाला तो था ही ! नहीं तो सुखका अनुभव किसको हुआ और कुछ पता नहीं था’‒यह बात किसने जानी ? अतः कुछ पता नहीं था’‒यह अहम्‌का अभाव है और इसका ज्ञान जिसको है, वह अहंरहित स्वरूप है ।

एक स्‍त्रीकी नथ कुएँमें गिर गयी । उसको निकालनेके लिये एक आदमी कुएँमें उतरा और जलके भीतर जाकर उस नथको ढूँढ़ने लगा । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वह नथ उसके हाथ लग गयी तो उसको बड़ी प्रसन्‍नता हुई । परन्तु उस समय वह कुछ बोल नहीं सका; क्योंकि वाणी (अग्‍नि) और जलका आपसमें विरोध है । अतः जलसे बाहर आनेपर ही वह बोल सका कि नथ मिल गयी !ऐसे ही सुषुप्‍तिमें अहम्‌के लीन होनेपर मनुष्य सुखका अनुभव तो करता है, पर उसको व्यक्त नहीं कर सकता; क्योंकि बोलनेका साधन नहीं रहा । सुषुप्‍तिसे जगनेपर ही उसको सुषुप्‍तिके सुखकी स्मृति होती है । स्मृति अनुभवजन्य होती हैअनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिः ।

इस प्रकार सुषुप्‍तिमें अहम्‌के अभावका अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव किसीको कभी नहीं होता । अहंकार हमारे बिना नहीं रह सकता, पर हम (स्वयं) अहंकारके बिना रह सकते हैं और रहते ही हैं । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । इस नित्य सत्ताको किसीकी अपेक्षा नहीं है, पर सत्ताकी अपेक्षा सबको है । अगर हम अहम्‌से अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्‍तिमें अहंकारके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते । अतः अहंकारके बिना भी हमारा होनापन सिद्ध होता है । जाग्रत् और स्वप्‍नमें अहम्‌ प्रकट रहता है और सुषुप्‍तिमें अहम्‌ लीन हो जाता है, पर हम स्वयं निरन्तर रहते हैं । जो प्रकट और लीन नहीं होता, वही हमारा स्वरूप है ।

कामनाका त्याग होनेपर भी शरीरनिर्वाहमात्रके लिये कुछ-न-कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी आवश्यकता रह जाती है, जिसको स्पृहा कहते हैं । स्थितप्रज्ञ महापुरुषमें शरीरनिर्वाहमात्रकी आवश्यकताका तो कहना ही क्या, शरीरकी भी आवश्यकता नहीं रहती । कारण कि शरीरकी आवश्यकता ही मनुष्यको पराधीन बनाती है । आवश्यकता तभी पैदा होती है, जब मनुष्य उस वस्तुको स्वीकार कर लेता है, जो अपनी नहीं है । कर्मयोगी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये नहीं मानता, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही मानता है । इसलिये उसको किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं रहती ।

कामनाऔर स्पृहा’‒दोनोंका त्याग करनेका तात्पर्य है कि वस्तुओंकी कामना भी न हो और निर्वाहमात्रकी कामना (शरीरकी आवश्यकता) भी न हो । कारण कि निर्वाहमात्रकी कामना भी सुखभोग ही है । इतना ही नहीं, शान्ति, मुक्ति, तत्त्वज्ञान आदिको प्राप्‍त करनेकी इच्छा भी कामना है । अतः निष्कामभावमें मुक्तितककी भी कामना नहीं होनी चाहिये ।

इस श्‍लोकमें अपरा प्रकृतिका निषेध है । जीवने अहंकारके कारण अपरा प्रकृति (जगत्) को धारण किया हैययेदं धार्यते जगत् (गीता ७ । ५) । अतः निरहंकार होनेपर अपरा प्रकृतिका निषेध (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है और जीव जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जाता है । सबका त्याग होनेपर भी अहंकार शेष रह जाता है, पर अहंकारका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याजब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे छूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहनेवाली शान्तिका अनुभव हो जाता है । मूलमें अहंता ही मुख्य है । सबका त्याग करनेपर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंताका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है । अहंतासे राग, रागसे आसक्ति, आसक्तिसे ममता और ममतासे कामना तथा कामनासे फिर अनेक प्रकारके विकारोंकी उत्पत्ति होती है । साधकके लिये पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है । ममताका त्याग होनेपर कामना, स्पृहा और अहंताका त्याग करनेकी सामर्थ्य आ जाती है । वास्तवमें हम कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित हैं । यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान् भी इनके त्यागकी बात नहीं कहते । सुषुप्‍तिमें अहंता आदिके अभावका अनुभव सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता ।

मूलमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंताकी सत्ता है ही नहीं‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । चिन्मय सत्तामात्रमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंता होनेका प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता । ये कामना आदि जड़में ही रहते हैं, चेतनतक पहुँचते ही नहीं । चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैंयह सबका अनुभव है । प्रत्येक जन्ममें कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे । इस जन्ममें भी बचपनमें कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं । हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं । पहले खिलौनौंकी कामना थी, फिर रुपयोंकी कामना हो गयी । पहले माँमें ममता थी, फिर पत्‍नीमें ममता हो गयी । इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदिका आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्तामात्र स्वरूपका आना-जाना आदि होता ही नहीं । जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिया अर्थात् उसे सत्ता और महत्ता दे दीयही हमारी सबसे बड़ी भूल है । इस भूलको मिटानेकी जिम्मेवारी हमपर ही है, तभी भगवान् इनका त्याग करनेकी बात कहते हैं, अन्यथा जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतसिद्ध है । जो स्वतःसिद्ध है, उसे ही प्राप्‍त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया निर्माण ही हमारे बन्धनका, दुःखोंका कारण बनता है ।

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